जिवन में आनन्द के आगे सारी कामनाएं ठहर जाती हैं। इसके बाद कुछ रहता ही नहीं चाहने को। नन्द का अर्थ है- समृद्धि। आनन्द का अर्थ चहुंमुखी, पूर्ण समृद्धि। समृद्धि का अर्थ है-सम्+रिद्धि। रिद्धि का अर्थ है, जो निरन्तर बढता जाए। सम्यक् रूप से बढता जाए। यह है लौकिक आनन्द। एक और आनन्द है- पारलौकिक। इसके पर्याय हैं कृष्ण। जहां से सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार शुरू होता है। जहां जाकर सृष्टि का विस्तार ठहर जाता है। कृष्ण कहते हैं कि मैं अव्यय पुरूष हूं। उस अव्यय पुरूष की प्रथम कला ही आनन्द है। सम्पूर्ण सृष्टि इसी अव्यय पुरूष से आगे बढती है। अत: यह सिद्धान्त बन गया है कि आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती।<br/>आनन्द चूंकि हर सृष्टि के मूल में रहता है, अत: इसके स्वरूप भी अनन्त हैं। अव्यय पुरूष की पांच कलाओं (आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्) में प्रथम कला ही आनन्द है। इसके बिना तो अव्यय पुरूष ही नहीं बन सकता। एक से अनेक कैसे बनते हैं, इसी ज्ञान या जानकारियों को विज्ञान कहा जाता है। जब आनन्द और ज्ञान घनीभूत हो जाते हैं ; तब इस स्वरूप का नाम मन हो जाता है। अनेक होने की इच्छा (एकोहं बहुस्याम्) से ही प्राणों में हलचल होती है और वाक् का निर्माण होता है। इस वाक् के भीतर ही आनन्द, विज्ञान, मन और प्राण रहते हैं, कार्य करते हैं। दिखाई दे या न दे, वाक् इनमें सबसे स्थूल तत्व होता है। इससे इस सिद्धान्त की भी पुष्टि होती है कि हर इच्छा के साथ नया मन बनता है और इच्छापूर्ति के साथ ही समाप्त भी हो जाता है। मन कोई स्थाई तत्व नहीं है। हां, अव्यय का मन ही हमारे ह्वदय-केन्द्र में रहता है और प्रकृति के आवरणों के कारण हमें त्रिगुणी मन की अनुभूति होती है। जब भी मन में आनन्द का भाव पैदा होता है, वही सृष्टि का मूल तत्व दिखाई पडता है। कृष्ण के जीवन काल में यह आनन्द तत्व सदा मौजूद रहा, कभी वे आनन्द से च्युत नहीं दिखाई पडे। अत: दशावतार में से केवल कृष्ण ही पूर्णावतार माने गए। शेष को अंशावतार ही कहा गया। हम सब भी अंशवतार ही होते हैं। हम उस अंश को विकसित नहीं कर पाते। अघिकांशत: तो उसका भान ही हमको नहीं हो पाता और हम जीवन के सौ साल पूरे कर जाते हैं।<br/>सुख काल्पनिक है। आनन्द काल्पनिक नहीं है। सुख अस्थाई है, आनन्द स्थाई है। सुख की अवधारणा तो परिस्थितियों के अनुसार बदल जाती है। आनन्द के बाद कोई परिस्थिति बचती ही नहीं है। सुख बाहर से जुडा है। आनन्द भीतर का अन्तिम केन्द्र है। यह सच है कि समृद्धानन्द बाहर से जुडा है, किन्तु यह शान्तानन्द बनकर भीतर स्थाई भाव में आ जाता है। आनन्द के मूल में रहता है साक्षी भाव। जब व्यक्ति को ज्ञान के सहारे विज्ञानधारा समझ में आ जाती है, तब आनन्द की ओर गति होती है। साक्षी भाव प्रकट होता है। साक्षी होने का अर्थ है अनासक्तभाव। न कोई आसक्ति, न कोई विरक्ति। न कुछ अच्छा है, न ही कुछ बुरा है। जो है, बस है।<br/>साक्षी भाव के लिए पहले व्यक्ति को वर्तमान में जीना आना चाहिए। आप यदि वर्तमान में हैं ही नहीं, तब साक्षी कौन होगा। वर्तमान में जीता है मन। तभी इन्द्रियां वर्तमान का साक्ष्य कर सकती हैं। आपके सम्मुख कोई व्यक्ति खडा है, आपका मन कुछ और सोच में है, तो व्यक्ति कैसे आपको दिखाई देगाक् आंखें भले ही खुली रहें, किन्तु दिखाई कुछ नहीं देगा। कोई भी इन्द्रिय काम नहीं करेगी। इन्द्रियां तो उपकरण हैं। मन जिसके साथ जुडता है, वही कार्य निष्पादन करती हैं। इन्द्रिय के साथ मन का वर्तमान में होना तो अनिवार्यता है। मन चंचल होने के कारण कभी एक विषय पर टिकता ही नहीं है। हर क्षण इच्छाएं भी बदलती हैं और मन भी बदलता रहता है। तब यह मन परिस्थितियों का आनन्द कैसे उठा सकता है। उसे परिस्थिति के साथ तो रहना ही पडेगा। मन के साथ अतीत के अनुभव जुडे रहते हैं। मन अनेक भावी आशंकाओं और सपनों में अटका रहता है। उसके पास वर्तमान में जीने की फुर्सत ही नहीं है। न ही व्यक्ति का ध्यान कभी इस ओर जाता कि जो कार्य वह कर रहा है, वहां उसका मन नहीं है। मन कहीं और दिशा में चल रहा है। वह खाना खाता है, तब मन में अनेक विषय उठ रहे होते हैं। विचार कहीं चल रहे होते हैं। कहीं पहुंचने की चिन्ता होती है या कोई फोन पर बात कर रहा होता है। खाना खाने के साथ उसका मन नहीं होता। खाना कौन खा रहा है, यह ध्यान भी नहीं होता। तब वह कैसे साक्षी बन सकता है। कैसे खाने का सुख भोग सकता है। आनन्द से तो कोसों दूर ही रहेगा।<br/>इस मन को पहले वर्तमान में लाना है। अपने ज्ञान का उपयोग, आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं का निर्घारण करना है। अनावश्यक को छोडने का संकल्प लेना है। इसमें केवल भौतिक आवश्यकताएं ही नहीं हैं। वैचारिक एवं भावनात्मक धरातल को भी समझना पडेगा। अवचेतन मन में क्या-क्या उठता रहता है, जो हमें वर्तमान में नहीं रहने देता, कौन-कौन सी दबी हुई इच्छाएं हमें भटकाती हैं, कौनसी स्मृतियों से हम बाहर नहीं निकल पाते। आज उनकी जीवन में क्या सार्थकता है। वह तो मेरा बीता हुआ कल है। लौटने वाला नहीं है। फिर क्यों बांध कर रखूं। मन के भय कौन से हैं, जिनकी चिन्ता में मन डूबा रहता है। इस प्रकार एक-एक करके मन के विषयों को समझना है। मन को अनावश्यक से मुक्त करने का अभ्यास करना है। मन को समझाना कठिन कार्य होता है, क्योंकि चंचल है। स्थिरता जल्दी टूट जाती है। इस स्थिरता को ही प्राप्त करना है। तब जाकर मन विषय अथवा कार्य के साथ जुडेगा। हर कार्य की बारीकियों को समझ सकेगा। अनुभव कर सकेगा। सही-गलत का भेद समझ पाएगा। उपयोगिता की दृष्टि का भी विकास हो सकेगा। <br/>जैसे-जैसे मन स्थिर होने लगेगा, वैसे-वैसे उसका मोह भी भंग होता जाएगा। विषय और मन की कामनाओं की सार्थकता दिखाई देने लगेगी। मन बाहर और भीतर जीने लगेगा। एक तारतम्य पैदा होने लगेगा। इसी तारतम्य के कारण आसक्ति का भाव क्षीण होगा। राग-द्वेष क्षीण होंगे। एक नई तटस्थता पैदा होगी ; और इसी मार्ग से व्यक्ति साक्षी भाव में प्रवेश करेगा। प्राकृतिक ऊर्जाओं की भूमिका सामने आएगी। उनके आगे समर्पण करने का भाव जाग्रत होगा। इसी समर्पण से अ-मन की स्थिति प्राप्त होती है। मन का अ-मन हो जाना ही आनन्द से साक्षात्कार है।<br/>
अप्रैल 24, 2009
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