Gulabkothari's Blog

September 14, 2009

ज्ञान-कर्म-2

ज्ञान और कर्म अलग नहीं हैं। सदा ही साथ रहते हैं। आनन्द- विज्ञान-मन-प्राण-वाक् (शरीर) से हमारे पंचकोश बने हैं। इनमें मन रूप विज्ञान भाव जिसके भीतर हो, ऎसे आनन्द को विद्या कहा है। मन रूप प्राण जिसके भीतर हो,ऎसी वाक् को कर्म/वीर्य कहा है। हर कर्म का लक्ष्य आनन्द प्राप्ति है। इसमें मन की गति दोनों ओर रहती है। संकल्प ही मन है। विद्या के साथ अविद्या का जुड़ना ही द्वैत पैदा करता है। सत्-रज-तम रूप प्रकृति ही ब्रह्म,क्षत्र और विड् वीर्य पैदा करती है। वैसे ही कर्म होते हैं। विद्या में प्रवेश करने के लिए एक वीर्य में दूसरे वीर्य का आधान करना पड़ता है। प्रकृति को बदलने से ही अहंकृति और आकृति बदली जा सकती है। चूंकि सृष्टि अग्नि सोम (प्रसार-संकोच) पर आधारित है, अत: विद्या के स्पन्दन पैदा करके अविद्या के भाव बदले जा सकते हैं। योग-उपासना आदि सभी का लक्ष्य यही रहता है। भाव के अनुरूप इच्छा पैदा होती है। इस कामना की स्वीकृति ज्ञान के द्वारा होती है। इच्छा हमारे हाथ में नहीं है, किन्तु अभ्यास करके भावों को बदला जा सकता है। जब भी कोई भाव तीव्रता से मन में उठता है, तब पिछला भाव स्वत: ही दब जाता है। दोनों भावों के अन्त और आरंभ के बीच एक संधि क्षण आता है, जहां मानसिक गतिविधियों का बाहर जाना ठहर जाता है। निर्विकल्प क्षण जैसा। अभ्यास की दृढ़ता से, बाहरी आवेग को रोककर भीतर समेटना ही भीतर गति करना है। धीरे-धीरे यह भाव स्थिर हो जाता है। बाहरी वृत्तियों की दिशा बदलकर अन्तर्मुखी करना ही चित्त निरोध कहलाता है।

जीवन व्यवहार में हम इसे घटता हुआ देख सकते हैं। आप किसी छोटे बच्चे, नवजात शिशु के साथ अन्तरंग भाव से जुड़ जाइए। उसमें होने वाले नित्य परिवर्तनों का आकलन भी करते रहिए। उसके साथ खिलखिलाते भी रहिए। आपके भावों में धीरे-धीरे विद्या भाव बढ़ता ही जाएगा। आपको क्रोध आया, बच्चे का ध्यान कर लें, फोन पर बात कर लें या उसके पास खड़े हो जाएं। आपको वही क्रोध अनावश्यक लगने लगेगा। इसी बच्चे के बारे में आप कुछ लिखना शुरू कर दें। एक के बाद एक सकारात्मक भाव स्वत: ही मन में आने लगेंगे। कामना, वासना तो छू भी नहीं पाएगी। आप अपना बचपन याद करके सोचें कि आप भी कभी इतने ही निर्मल थे। क्या हो गया आपको कि इतने आवरण चढ़ा लिए। क्या यह संभव नहीं कि वापस बचपन को लौटा सकें। भक्ति का स्वरूप क्या है मन को सकारात्मक भावों से जोड़ देना, पवित्रता, श्रद्धा को विकसित करना। इसके सहारे अविद्या से विद्या में प्रवेश पाना। कीर्तन-भजन का भी यही लक्ष्य है। इस तरह की गतिविधियों में कहीं भी बुद्धि की जरूरत नहीं पड़ती। जब ज्ञान पर पर्दा पड़ता है, तभी तो अविद्या का प्रवेश होता है, जीवन में। इसी को अहंकार कहते हैं। इसी कारण मन में भी अविद्या के भाव पैदा होते हैं। राग-द्वेष्ा उठने लगते हैं। मोह-ईष्र्या-लोभ जाग्रत होते हैं। हमारे मन की जो तीन अवस्थाएं हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुष्ाुप्ति – उनकी ओर कभी हमारा ध्यान ही नहीं जाता। इसके मूल में मन-बुद्धि-अंहकार रूपी चित्त होता है। एक बीज से जैसे सम्पूर्ण वृक्ष बनता है, वैसे ही मन की सारी अवस्थाएं भी भिन्न-भिन्न नहीं होकर एक ही होती हैं। भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं।

सर्वव्यापक आत्म तत्व जाग्रत अवस्था में केवल ज्ञेय पदार्थो के रूप में, स्वप्न में केवल ज्ञान (मानसिक संकल्प-विकल्प) के रूप में रहता है। सुष्ाुप्ति में अल्पतम ज्ञान रहता है। यह प्रगाढ़ निद्रा अवस्था है। तीनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला एक ही व्यक्ति होता है। जाग्रत अवस्था में मन का संकल्पित ज्ञान ही बाहरी विष्ायों में दिखाई पड़ता है। स्वप्न में वैकल्पिक ज्ञान रूप में, ज्ञेय पदार्थो को इस प्रकार संकल्प रूप में देखता है, मानो यह जाग्रत अवस्था ही हो। जैसे इन्द्रियों के द्वारा ही ग्रहण किया जा रहा हो। कोई पदार्थ न रहते हुए भी मानसिक संकल्प (ज्ञान) वर्तमान रहता हैं। सुष्ाुप्ति में न ज्ञान, न ही ज्ञेय। जागने पर भी कुछ याद नहीं आता। चिन्मय(अपूर्ण) अवस्था है। ऎसा तमोगुण के मोह रूप की घनता के कारण होता है।

ज्ञान शरीर में किस प्रकार कार्य करता है, कैसे संस्कारों का निर्माण करता है, उस मार्ग को आसानी से समझा जा सकता है।
जीवन चूकि कर्म का पर्याय है, हमको अन्तिम संास तक कर्म करना है। कर्म का अपना फल भी है। जब तक फल नहीं आता, कर्म जारी रहता है। चाहे दो जन्मों के बाद ही मिले। अत: कर्म को केवल कर्म रूप में करने की सलाह शास्त्र देते हैं। गुरू भी वीर्य (कर्म) में बदलाव लाने का कार्य करता है। फिर भी सबसे पहली आवश्यकता है इच्छा के साथ जुड़े हुए भाव को समझने की। भाव ही कर्म की दिशा तय करते हैं। और भाव ही देवता को भी प्रिय होते हैं। वे भाव के भूखे होते हैं। परोक्षप्रिया वै देवा:। फल की कामना रहित कर्म पूर्ण रूप होकर देव से जुड़ जाता है।

कैसे कार्य करते हैं यह इच्छा-ज्ञान-कर्म! क्या जीवन में इस प्रणाली को समझा जा सकता है हां, समझ सकते हैं। यदि हम अपना ध्यान इधर केंद्रित करें और इनका विश्लेष्ाण करते जाएं। पेट में बच्चा बाहरी ज्ञान ग्रहण करता है। जैसे अभिमन्यु ने किया था। कैसे ध्वनि के स्पन्दनों के माध्यम से। नाभि केन्द्र के माध्यम से। ध्वनि या नाद तो सृष्टि का मूल है। आकाश का गुण है नाद। आकाश से ही सृष्टि का विकास हुआ है। ध्वनि तरंगें ही निर्माण, स्थिति और संहार का कारण है। दृश्य जगत की जनक हैं तथा भावों के साथ जुड़कर कार्य करती हैं। भाव क्या है भाव शब्द का मूल धातु “भू” है जिसका अर्थ है सत्ता या अस्तित्व। इसके कारण ही अस्तित्व भी सिद्ध होता है। तभी तो कत्ताü भाव बना रहता है। इसके कारण ही कर्म करने की स्वतंत्र इच्छा रहती है। इस स्वतंत्र कतृüत्व को ही भाव कहते हैं। इसी में प्रसार-संकोच रूप माया के स्पन्दन समाहित रहते हैं। ज्ञान बल के कारण प्रसार अथवा संकोच दिशा में कर्म करके विकास किया जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का मौलिक रूप भी स्वतंत्र इच्छा (माया की) ही है। यही स्वतंत्र कत्ताüभाव और इच्छा, ज्ञान-क्रिया रूप “चित्त” कहा जाता है।

गुलाब कोठारी

4 Comments »

  1. your articles are brain storming, it remind us the purpose of media, responsibilities of media. please write on education model, curriculum of schools in particular. we are talking of poor traffic sesnse, but we have no education in schools for it though today’s school students are tomorrow’s vehicle owner or on driving seats.

    Comment by guddu — October 26, 2009 @ 7:00 | Reply

    • Thanks for your valuable comments we will write on education in different form

      Comment by gulabkothari — January 11, 2010 @ 7:00 | Reply

  2. pranam,
    aap bahut achha likhte hain.main apka har column padhta hun. par fir bhi aaj tak dhyaan main nahi baith pata.shayad meri umra abhi kamhai inke liye(21).main aapke ek program me bhi aaya tha jisme maine kohli ji,guruvanad ji ko bhi suna tha.bahut sikhne ko mila krishna ke bare me.
    vaihav

    Comment by vaibhav — September 21, 2009 @ 7:00 | Reply

    • ध्यान का सम्बन्ध उम्र से नहीं मन से है।

      Comment by gulabkothari — January 11, 2010 @ 7:00 | Reply


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