केन्द्रीय चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्रों को आचार संहिता में शामिल कर लिया है। अब दलों को घोषणाएं पूरी करने के लिए आर्थिक अपेक्षा एवं साधनों का ब्योरा देना होगा। घोषणा-पत्रों में संविधान के सिद्धान्तों के विरूद्ध कुछ नहीं होगा। ये आदर्श चुनाव संहिता के प्रावधानों के अनुरूप होंगे। वोटरों को दिग्भ्रमित करने वाले वादों से बचने की सलाह के साथ वादों को पूरा करने के वित्तीय साधनों का ब्योरा देने को भी कहा है।
चुनाव आयोग को ऎसे दिशा-निर्देश जारी करने की जरूरत क्यों पड़ी? आजादी के बाद से आज तक जो भी परिवर्तन चुनाव प्रक्रिया तथा राजनीतिक दलों की मानसिकता में आए, ये निर्देश उसी की अभिव्यक्ति हैं। कहां तो आजादी के मतवालों की फौज थी और कहां आज व्यापारियों का बोलियां लगाने का बाजार। सत्ता जनसेवा की जगह व्यापार बन गई। योजनाएं कमाई के मुखौटे बन गई। चुनावी घोषणा-पत्र मतदाताओं को भ्रमित करने के माध्यम बन गए। वर्षो से हम इनको पढ़ते आ रहे हैं। राजनीतिक दल ढोल बजा-बजाकर इन घोषणाओं का प्रचार करके वोट मांगते हैं। मूल में ये घोषणा-पत्र मतदाताओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से तैयार किए जाते थे। यह भी सही है कि इनका कोई वैधानिक स्वरूप नहीं है। फिर भी यह तो माना ही जाता है कि ये सत्ता में आने पर दल के काम-काज की दिशा इंगित करते हैं। घोषणा-पत्रों के संदेशों पर चर्चा करके ही सामूहिक निर्णय भी होते हैं।
आज स्थिति यह हो चुकी है कि सत्ता में आने के बाद किसी को घोषणा-पत्र याद ही नहीं आता। अब तो स्थिति और भी भयानक हो गई है। सत्तारूढ़ दल तो अपनी घोषणाओं से मुकरने तक लग गए। तब मतदाता की स्थिति क्या होती है, इस पर चुनाव आयोग को चिन्तन करना चाहिए। क्या यह मतदाता के साथ ब्लैकमेलिंग नहीं है? आर्थिक प्रलोभन तो रिश्वत है। चुनाव आयोग इसके उपाय न कर पाया है और न ही कर पाएगा। सब जानते हैं कि प्रत्याशी अपनी आय तथा चुनाव खर्च का ब्योरा कितना सही देते हैं। चुनाव आयोग करोड़ों रूपए वीडियोग्राफी पर खर्च भी करता है। परिणाम सामने है। क्या टिकटों की बिकवाली की कहीं चर्चा होती है?
हकीकत तो यह है कि प्रत्याशी स्वयं सूचना भरने में रूचि नहीं रखते। कोई तैयारी करके फार्म भरने भी नहीं जाता है। टिकट मिलने से पहले ही उसका अहंकार विजेता जैसा हो जाता है। चुनाव आयोग में कहां एक-एक सूचना को चैक किया जाता है। यही कारण है कि प्रत्याशी भी किसी प्रकार के उत्तरदायित्व बोध से बंधा नहीं होता। किसी का राष्ट्र के प्रति संकल्प दिखाई नहीं देता।
आज चुनावों में आर्थिक प्रलोभन ने तो चुनाव को लोकतंत्र से अलग ही कर दिया। प्रत्येक वोटर को नकदी के साथ सत्ता में आने पर सब्जबाग दिखाने की होड़ चल पड़ी है। पिछले 10-15 सालों में तो इस होड़ ने मतदाताओं को इस सीमा तक कब्जे में करने की कोशिश कर डाली कि सत्ता में आने के बाद जनता को दोनों हाथ लूटने की छूट मानकर काम करने लगे। कितने मुख्यमंत्रियों के नाम आज इस सूची में स्वर्ण अक्षरों में लिखे हैं। ईश्वर भी सोचता होगा कि उसने कैसे लोगों को जनता का सिरमौर बनाया। इतना दिया फिर भी कोई अहसान नहीं मानता अभावग्रस्त ही रहता है। क्या चुनाव आयोग को नहीं सोचना चाहिए। आज का तो यह सर्वाधिक ज्वलनशील विषय है। सत्तासीन सरकारें यह कह चुकी हैं कि उनके चुनावी वादे भूल जाएं। उनको पूरा नहीं किया जाएगा।
तब हर परिवार को घर, समान नागरिक संहिता, धारा 370, राम मन्दिर निर्माण, आरक्षण और हर गरीब को दवा जैसे चुनावी वादे दाखिल दफ्तर हो जाएं, तो क्या मतदाता ठगा-सा महसूस नहीं करेगा? क्या चुनाव आयोग का यह धर्म नहीं कि वह इन वादों की क्रियान्विति निश्चित करें। किसी को मतदाता को भ्रमित अथवा ब्लैकमेल करने का अधिकार नहीं दे। क्या आयोग प्रत्याशी एवं दल से नहीं लिखवा सकता कि दल अपने कार्यकाल में इन वादों की पूर्ति करने का पूरा प्रयास करेगा। इनकार तो कर ही नहीं सकता। यदि दल इनकार कर दे या वादे पूरे नहीं करे, तो उसे अगला चुनाव लड़ने से वंचित कर देना अनिवार्य होगा। हिसाब-किताब तो आंकड़ों का खेल है।
इन वादों का ही परिणाम है कि आज देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। यही है हमारे विकास की कहानी! चुनाव आयोग भी इसकी जिम्मेदारी अपने आप को मुक्त नहीं मान सकता। वह भी उतना ही अपराधी है जितने राजनीतिक दल। कोल ब्लॉक, राष्ट्रमण्डल खेल, टू-जी जैसे अनेक मामलों में यह स्पष्ट हो चुका है। नीयत की खोट तथा मतदाता एवं लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ यदि चुनाव आयोग सहन कर लेता है, तब तो आयोग के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़े हो जाएंगे।
1) जो आत्मा मोक्ष नहीं पाती उनका क्या होता होगा?
2) कर्म वो हरकत हैं जो ध्यान में पहुचायें बाकी हरकतें अकर्म हैं मा ते सन्गोस्तव अकर्मणी , अकर्मों में चस्का न तो रखना न लगाना अर्थात दोहराव नहीं , क्या ये सत्य हैं?
Comment by अखिलेश सहाय — June 7, 2015 @ 7:00 |
1. भारतीय चिंतन में पुनर्जन्म की अवधारणा है। कर्म विपाक होने तक बार-बार जन्म होते हैं।
2. दोहराव ही चिपकन है, इस आसक्ति से छुटकारा ही निष्काम कर्म कहा है। अकर्म का अर्थ निष्कर्म नहीं, ब्रह्म है।
Comment by gulabkothari — August 10, 2015 @ 7:00 |