Gulabkothari's Blog

September 13, 2011

अंतरजातीय विवाह की उलझन

हमारा देश आज एक ऎसे मार्ग पर चल पड़ा है जिसकी परिणति दुख के सिवाय कुछ और नहीं है। हर व्यक्ति उस मार्ग पर चलकर गौरवान्वित महसूस करता है। उसके पास कोई विकल्प भी नहीं है। हमारे सामने तथ्य हैं, सारे आंकड़े हैं, दर्शन है, अनुभव हैं, किन्तु हमारा अहंकार या लाचारी हमें इनमें से किसी को स्वीकारने नहीं देती। समाज और परिवारों में अनावश्यक तनाव, वैमनस्य बढ़ता जा रहा है। यह नया रोग है अन्तरजातीय विवाह।

 

इसको विकासवादी दृष्टिकोण की पैदाइश माना तो जाता है, किन्तु जीना उनके बीच पड़ता है, जिनके दिलो-दिमाग पर विकास पहुंचा ही नहीं है। प्रेम का रिश्ता कितनी सहजता से कट्टरता की भेंट चढ़ जाता है, यह दृश्य देखकर कितने लोग खुश हो सकते हैं, यह भी मानव समाज की त्रासदी ही है। क्योंकि भारत में यह पीड़ा या मुसीबतों का पहाड़ मूल रूप में तो कन्या पक्ष के सिर टूटता है।

 

पिछले सप्ताह कर्नाटक के धर्मस्थल गया था। एक ब्राह्मण लड़के की शादी अन्य जाति की कन्या से इसलिए की गई कि ब्राह्मण जाति में उपयुक्त कन्या नहीं मिली। एक साल के बाद लड़के ने लड़की को छोड़ दिया। वह लड़की न्याय की तलाश में आध्यात्मिक चेतना के साथ सामाजिक जनजागरण में जुटे वीरेन्द्र हेगड़े के पास आई थी।

 

आज शिक्षा की आवश्यकता और भूत ने इस समस्या में ‘आग में घी’ का काम किया है। भौतिकवाद, विकासवाद, स्वतंत्र पहचान, समानता की भ्रमित अवधारणा आदि ने व्यक्ति को शरीर के धरातल पर भी लाकर खड़ा कर दिया और अपने जीवन के फैसले मां-बाप से छीनकर अपने हाथ में लेने शुरू कर दिए। अधिकांशत: माता-पिता उसके मार्गदर्शक बनते नहीं जान पड़ते।

 

चूंकि शिक्षा नौकरी के अतिरिक्त अधिक विकल्प नहीं देती, अत: परिवार का विघटन अनिवार्य हो गया। दादा-दादी बिछुड़ गए। नई बहुएं सास-ससुर से भी मुक्त रहना चाहती हैं, तो बच्चों को संस्कार देने से भी। स्कूल, होम वर्क के सिवाय बच्चों के लिए उसके पास न समय है, न ही वह ज्ञान जिससे बच्चों का व्यक्तित्व निर्माण होता है। शिक्षा ने उसके मन को भी समानता के भाव के नाम पर यहां तक प्रभावित कर दिया कि वह ‘मेरे घर में लड़के-लड़की में कोई भेद नहीं है’ का आलाप तार स्वर में गाती है। इससे कोई अधिक क्रूर मां धरती पर कौन होगी जो अपनी बेटी को स्त्री युक्त, मातृत्व, गर्भस्थ अवस्था आदि की भी जानकारी नहीं देती, क्योंकि बेटे को भी नहीं देती। बेटी को अंधेरे में धक्का देकर गौरवान्वित होती है। बेटे को तो पूरी उम्र मां-बाप की छत्रछाया में रहना है। मां बनना नहीं है। नए घर में जीना नहीं है।

 

इस जीवन-शिक्षा के अभाव में न जाने कितने संकट हो रहे हैं। बच्चों को यथार्थ का ज्ञान नहीं होता और मित्र मण्डली के प्रवाह में जीना सीख जाते हैं। उच्च शिक्षा की भी अवधारणा हमारे यहां नकारात्मक है। बच्चों का शिक्षा के साथ उतना जुड़ाव भी नहीं होता, जितना विदेशों में दिखाई देता है। हां, शिक्षा के नाम पर अधिकांश बच्चों को उन्मुक्त वातावरण रास आता है। फिर कुदरत की चाल। उम्र के साथ आवश्यकताएं भी बदलती हैं। भूख लगी है और भोजन भी उपलब्ध है, तब व्यक्ति कितना धैर्य रख सकता है? मां-बाप बच्चों को भूखा रखते हैं।

 

संस्कारों का सहारा नहीं देते। उधर टीवी, इण्टरनेट इनको दोनों हाथों से शरीर सुख परोसने में लगे हैं। मन और आत्मा का तो धरातल ही भूल गए। शुद्ध पशुभाव रह गया। आहार-निद्रा-भय-मैथुन। और कुछ बचा ही नहीं जीवन में।

 

भारत में कुछ सीमा तक जो संस्कृत समाज हैं, उनको छोड़ दें। शेष अपने जीवन में इस पशुभाव पर नियंत्रण नहीं कर पाते। आज तो स्कूल में ही बच्चे 17-18 साल के हो जाते हैं। कक्षाओं से गायब रहते हैं। तब एक मोड़ जीवन में ऎसा आता है कि नियंत्रण भी छूट जाता है और विकल्प भी खो जाते हैं। ये परिस्थितियां ही इस अन्तरजातीय विवाह की जननी बनती हैं।

 

अन्तरजातीय विवाह में यूं तो खराब कुछ नहीं दिखाई देता। जिसको दिखाई देगा वह दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख है। जब लड़का-लड़की दोनों राजी हैं, तब किसी को अच्छा-बुरा क्यों लगना चाहिए? लेकिन जो कुछ नजारा अगले कुछ महीनों में सामने आता है, उसे देखकर मानवता पथरा जाती है। सारा समाज बीच में कूद पड़ता है। अनेक बाध्यताएं, जिनमें धर्म परिवर्तन तक की भी हैं, अपने मुखौटे दिखा-दिखाकर चिढ़ाती हैं। कट्टरता, संकीर्णता और निर्दयता से सारा वातावरण कम्पित हो जाता है। लड़की के मां-बाप की स्थिति बयान करना सहज नहीं है।

 

लड़की भी हजार गलतियां करने के बाद भारतीय है। मन में कुछ लज्जा का भाव होता है। जब किसी सभ्य परिवार की लड़की असभ्य परिवार से जुड़ जाती है, तब तो ताण्डव ही कुछ और होता है। किसी असभ्य परिवार की लड़की सभ्य और समृद्ध परिवार में चली जाती है, तब एक अलग तरह के अहंकार की टकराहट शुरू हो जाती है। जिन जातियों में नाता होता है, वहां मन कोई मन्दिर नहीं रह जाता। लड़की के दो-तीन तलाक हो जाएं तो लाखों का किराया वसूल लेते हैं मां-बाप। ऊपर से कानून एकदम अंधा। परिस्थितियों की मार से दबे मां-बाप के लिए कानून भी भयावह जान पड़ता है।

 

आज न्यायालयों में विवाह विच्छेद के बढ़ते आंकड़े इस देश के सामाजिक तथा पारिवारिक भविष्य को रेखांकित करते हैं। जीवन विषाक्त होता दिखाई पड़ रहा है। पश्चिम में सम्प्रदायों तथा जातियों की इस प्रकार की वैभिन्नता भी नहीं है और है तो भी ऎसी कट्टरता दिखाई नहीं देती। वहां पैदा होने वाले व्यक्ति को जीवन में दो-तीन शादी कर लेना मान्य है। हम अभी अर्घविकसित हैं। विकास का ढोंग करते हैं। भीतर बदले नहीं हैं। परम्पराओं और मान्यताओं की जकड़ से मुक्त भी नहीं हैं। फिर भी हम विकसित समाजों के पीछे दिखना भी नहीं चाहते। विदेशों में उच्च शिक्षा का कारण सुख प्राप्ति है।

 

स्वतंत्रता भी है और स्वावलम्बन भी। भारत में लड़कियों को उच्च शिक्षा सुख प्राप्ति के लिए नहीं दी जाती, बल्कि इसलिए दी जाती है कि खराब समय (वैधव्य या विवाह विच्छेद) की स्थिति में पराश्रित न रहे। नकारात्मक चिन्तन ही आधार होता है। तब समझौते का प्रश्न किसी के मन में उठता ही नहीं है। हम जब तक इस लायक हों कि यथार्थ को स्पष्ट समझ पाएं, हमारे यहां कुछ विकासशील कुण्ठाएं संस्कृति विरोधी कानून भी पास करवा लेती हैं। एक कहावत है कि हम अपने दुख से उतने दुखी नहीं हैं, जितने कि पड़ोसी के सुख से।

 

मात्र कानून बना देना विकास नहीं है। अभी मन्दिर-मस्जिद के झगड़ों से हम बाहर नहीं आए। आरक्षण ने जातियों के नाम पर अनेक विरोध के स्वर खड़े कर दिए। जब हमारी सन्तान हमारे साथ किसी जाति के विरोध में लड़ती है, हिंसक हो जाती है, तब क्या वह लड़का विरोधी जाति की लड़की का पत्नी रूप में सम्मान कर सकेगा।

 

अथवा ऎसा होने पर जातियों के बीच नए संघर्ष के बीज बोये जाएंगे? क्या समाज का यह दायित्व नहीं है कि यदि किसी सम्प्रदाय को वह स्वीकार नहीं करता, तो अपने बच्चों को भी शिक्षित करे? क्या विरोधी समाज की लड़की का अपमान करके अपनी बहू के प्रति उत्तरदायित्व के बोध का सही परिचय दे रहे हैं? क्या यह पूरे समाज का अपमान नहीं है? आज जीवन एक दौड़ में पड़ गया है।

 

एक होड़ में चल रहा है। स्पर्धा ने मूल्यों को समेट दिया है। नकल का एक दौर ऎसा चला है कि व्यक्ति की आंख खुद के जीवन के बजाए दूसरे पर टिकी होती है, जिसकी वह नकल करना चाहता है। जैसे कि शिक्षित लड़कियां भी लड़कों की नकल करना चाहती हैं। अत: लड़कियों के गुण ग्रहण ही नहीं करतीं। लड़का बन नहीं सकतीं। अत: यह आदमी की हवस का पहला शिकार होती हैं। भले ही इस कारण ऊंचे पदों तक पहुंच भी जाए, किन्तु सुख न इनको मिलता, न ही इनके माता-पिता को। बस, विकास की धारा में बहते रहते हैं।

 

प्रश्न यह है कि यदि हम विकसित हो रहे हैं, शिक्षित हो रहे हैं, तो इसका लाभ स्त्री को क्यों नहीं मिल रहा। शिक्षित व्यक्ति निपट स्वार्थी भी होता जा रहा है और उसे नुकसान करना भी अधिक आता है। अनपढ़ औरतें कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम इसलिए हो गई कि उनको गर्भस्थ शिशु के लिंग की जानकारी उपलब्ध नहीं थी। आंकड़े साक्षी हैं कि ऎसी हत्याओं में शिक्षित महिलाएं अधिक लिप्त हैं और चर्चा भी नहीं होती। ये हत्याएं इस बात का प्रमाण तो हैं ही कि नारी आज भी स्वयं को लाचार और अत्याचारग्रस्त मानती है। अपनी कन्या को इस पुरूष के हवाले नहीं करना चाहती।

 

पुरूष वर्ग का इससे अधिक अपमान हो भी क्या सकता है। अब अन्तरजातीय विवाह ने इस नासूर को नया रूप ही दिया है। लड़का अधिकांश मामलों में मां-बाप के साथ होकर लड़की को अकेला छोड़ देता है। तब उसके लिए मायके लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। इसके लिए भी उसे अदालतों के और वकीलों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। यह आत्म-हत्याओं को बढ़ावा देने वाला मार्ग तैयार हो रहा है। यह भी सच है कि व्यक्ति अपना किया ही भोगता है।

 

समाज हर युग में एक-सा रहा है। शिक्षा बाहरी परिवेश है भीतर की आत्मा की शिक्षा, उसका जागरण, परिष्कार आदि जब तक जीवन में नहीं जुड़ेंगे, संस्कारवान मानव समाज का निर्माण संभव नहीं है।

 

गुलाब कोठारी

पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक

June 1, 2009

विवाह-5

Filed under: Spandan — gulabkothari @ 7:00
Tags: , ,

भौतिक विकास के साथ-साथ जीवन भी इतना भौतिकता से चिपक गया कि शरीर भी एक उपकरण बनकर रह गया। व्यक्ति जीवन भर इसके सहारे प्रयोग करता रहता है। प्रयोग करने की दृष्टि भी भौतिक बन गई है, बाहरी ज्ञान पर आधारित हो गई। जिस प्रकार शरीर नश्वर है, उसी प्रकार बाहर का ज्ञान भी नश्वर है। पेट भरने से आगे उस ज्ञान की उपादेयता नहीं है। इसीलिए आज ज्ञान पेट भरने का साधन बनकर रह गया। जीवन के साथ इसका दूसरा कोई सम्बन्ध ही नहीं रह गया है।

इसका पहला प्रभाव तो यह हुआ कि व्यक्ति का प्रकृति से सामंजस्य टूट गया। शरीर के भीतर प्रकृति भी कार्य करती है और हम स्वयं प्रकृति द्वारा संचालित है, यह विचार ही जीवन से बाहर हो गया। व्यक्ति स्वयं ही कर्ता और स्वयं का नियन्ता बन गया। उसको न तो शरीर की क्रियाओं की ही जानकारी है, न ही इसके भीतर होने वाली क्रियाओं की। व्यक्ति बाहरी संसार में ही जीता है। जो कुछ उसकी इन्द्रियों की पकड़ में आता है, उतना ही उसका संसार रह गया है। उसके आगे के जीवन क्रम को समझना आज उसकी आवश्यकता ही नहीं रह गई। जो कुछ उसे अच्छा लगता है, करने लग जाता है। हेय और उपादेय का भेद उसके जीवन से सिमट ही गया है। बाहरी ज्ञान की स्थूलता के कारण सूक्ष्म ओझल हो गया है। यही दृष्टि उसके निजी जीवन को प्रभावित करती है।

मेरे देखते-देखते कितने विदेशी मित्रों की शादियां हुई, तलाक हुए, फिर शादियां हुई। आज खुश कोई नहीं है। शादियां भी लम्बे काल तक नहीं टिक पाती। जिनको हम भारतीय लोग संस्कार कहते हैं, वहां नहीं दिखाई पड़ते। जो वहां हो रहा है, वही वहां के संस्कार हैं। जीवन शुद्ध शरीर, धन और अपेक्षाओं पर जुड़ा है। न मिलने में देर, न बिछुड़ने में।

ऎसा ही कुछ नजारा यहां भी समृद्ध परिवारों में देखने को मिलने लगा है। विवाह तो इतनी धूम-धाम से होते हैं कि इससे बड़ा झूठ जीवन में कुछ होता ही नहीं। वर-वधु के मां-बाप भी वैभव की चकाचौंध का ही बखान करते रहते हैं। परम्पराएं इतनी सख्ती से निभाई जाती हैं कि जरा कहीं चूक न हो जाए। स्वयं को तो परम्परा की याद भी नहीं होती। कोई याद दिला जाता है। वर-वधु मात्र यांत्रिक दिखाई पड़ते हैं। उनको कोई आदमी मानकर देखता ही नहीं है। घरवालों का ध्यान तो मेहमानों के साथ फोटो खिंचवाने में लगा रहता है। वर-वधु केवल उठक-बैठक करते हैं। उनको पानी पिलाना भी किसी को याद नहीं होता। मां-बाप का भावनात्मक जुड़ाव भी पश्चिम जैसा ही दिखाई देता है। शादी पैसे के जोर पर होती है। आदमी कहीं नहीं होता। होटल के लोग मांगें पूरी करते रहते हैं। दोनों परिवार के लोग सज-धजकर टहलते रहते हैं। इसी का तो नाम अब विवाह पड़ गया है। उस भीड़ में कौन तो आया, खाया भी कि नहीं खाया, कौन जाने! लिफाफे खोलेंगे, तब ध्यान आएगा।

पूरी की पूरी विवाह पद्धति ही नकली बनकर रह गई। तोरण-तलवार-घोड़ी जीवन में जुड़े ही नहीं, तब विवाह में क्यों चिपके हुए हैं फेरों का अर्थ और कारण किसी को मालूम ही नहीं, तब क्यों खा रहे हैं फेरो का समय पंडित तय करता है। जल्दी कराने के लिए उसे भी रिश्वत दी जा रही है। मंत्रों की भी जरूरत किसी को नहीं लगती। फिर यह दिखावा क्यों मुहूर्त निकल जाने के समय तक तो बारात ही नहीं आती। सारे घर वाले सड़क पर नाचते रहते हैं। लड़की वाले के घर पर नाचे, तब भी समझ में आता है। सज-धजकर सड़क पर और इसी वातावरण में हम वर-वधु का मंगल भविष्य ढ़ूढ़ रहे हैं। अनुष्ठान के जरिए देवता का आशीर्वाद मांग रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि जैसी प्रार्थना होगी, वैसा ही फल मिलेगा।
इस विवाह का वर-वधु के आत्मीय संबंध से कोई लेना-देना ही नहीं है। मां-बाप “कन्यादान” भी कर गए और वहां कन्या की परिभाषा ही लागू नहीं होती। वहां तो एक लड़की है, जैविक लड़की। घर छोड़कर जा रही है, पति के साथ। क्यों जा रही है, किसी ने नहीं बताया उसे। नए जीवन को कैसे परिभाषित करना है और क्यों, नहीं मालूम। संस्कारों का अध्याय तो शायद इसकी मां को भी नहीं मालूम। देखा-देखी का नाम ही संस्कार है।

देखा-देखी ही विवाह का कारण है। दोनों मिलकर गृहस्थी चलाएंगे, कमाएंगे, पेट पालेंगे और बस!
विवाह की तैयारी से ही पता चल जाता है कि हम कहां जा रहे हैं। लड़का कार्यालय में छुट्टी मांगता है -“सर मेरा विवाह है। पांच दिन की छुट्टी चाहिए। कपड़े सिलवाने हैं, सर। आप भी जरूर आइएगा।” उधर लड़की वाले कपड़ों और गहनों में उलझे दिखाई देंगे। उसके यहां ऎसा था, हमारे यहां उससे अच्छा होना चाहिए। सगाई भी विवाह के एक दिन पहले ही कर लेंगे। फेरों से पहले “रिंग सेरेमनी” भी होगी। लड़के की अंगुली की नाप भी चाहिए। लेकिन इस बीच मां को बेटी के साथ बैठकर अपने अनुभव बांटने की आवश्यकता ही नहीं लगती। वह तो पैसा देकर उसी मांग पूरी करके संतुष्ट रहती है।

लड़की को यह तैयारी जरूर करके जाना है कि जरूरत पड़ने पर अपने पांव पर खड़ी रह सके। इसी शक्ति के कारण उसका टकराव का मार्ग खुल गया। समझौता एक सीमा के आगे नहीं होता। दोनों की अपनी-अपनी पहचान भी बनी रहती है। एक तो होते ही नहीं ; केवल साथ रहते हैं। इनको अलग रहने में कितनी देर लगेगी। ससुराल से “लेटकर निकलने वाली” पत्नियां तो इतिहास में ही पढ़ाई जाएंगी। विवाह में 15 पीढियां अब नहीं जुड़ेंगी। केवल एक पीढ़ी में ही आपस में विवाह होंगे और उसी पीढ़ी में पूरे भी होते जाएंगे।

गुलाब कोठारी

May 24, 2009

विवाह-4

Filed under: Spandan — gulabkothari @ 7:00
Tags: , , ,

पथ्वी के सभी जीवों को पशु कहा जाता है। हमारी पृथ्वी की तरह सभी लोकों को भी पृथ्वी संज्ञा दी गई है। अत: सभी लोेकों में भी पशु ही रहते हैं। चाहे असंज्ञ हो, अन्त: संज्ञ हो, या फिर ससंज्ञ हो। मनुष्य की भी पशु संज्ञा है। प्रकृति के प्राणों में ऋषि, पितर, देव, गंधर्व प्राणों के बाद पशु प्राण आते हैं। ऋषि, पितर और देव प्राणों के कारण हमारे तीन ऋण बनते हैं। मानव जीवन का लक्ष्य है धर्मानुकूल अर्थ और काम के सहारे मोक्ष प्राप्ति। आ#काम हो जाना। मानव-रूप पशु की मोक्ष तक की यात्रा कोई साधारण घटना नहीं हो सकती। पशु को तो वैसे भी भोग योनि माना है।

अज्ञानवश मनुष्य भी भोग को ही प्रधान कर्म मानकर जीने लगता है। उसके कर्म में विद्या का अंश अल्प होता है। जीवन को दो ही तत्व चलाते हैं-विद्या और अविद्या। धर्म-ज्ञान-वैराख्य-ऎश्वर्य विद्या कहलाते हैं। अधर्म, अस्मिता, आसक्ति, अभिनिवेश को अविद्या कहते हैं। विद्या से बुद्धि प्रभावित होती है। अविद्या मन के प्रवाह से जुडती है। मनमानी करती है। विद्याभाव से ही मन पर अंकुश लगाया जाता है। पशु के पास अंकुश लगाने की क्षमता नहीं होती। वह तो प्रवाह पतित हो जाता है। मानव के पास यह क्षमता होती है।

इस भू पिण्ड पर औषधि, वनस्पति, कीट, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि सभी शरीर रहते हैं। सभी का अपना-अपना जीवन स्वतंत्र भी होता है और एक दूसरे पर निर्भर भी। ये सारे शरीर भू-पिण्ड के नभ्य (नाभि या केन्द्र) के द्वारा आकृष्ट भिन्न-भिन्न प्राणों से ही बनते हैं। अत: इन्हें पार्थिव या पृथ्वी के पशु कहा जाता है। जब तक इनका पृथ्वी केन्द्र से आदान-प्रदान रहता है, तब तक ही इनका जीवन रहता है। पृथ्वी के नष्ट होने पर भी ये सारे नष्ट हो जाते हैं।

पशु की एक अन्य व्याख्या यह भी है कि जो प्राणी पंच पाश से बंधा हो, वह पशु है। ये पांच पाश अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश हैं। अज्ञान को अविद्या कहते हैं। ज्ञान को विद्या कहा है। एकोज्ञानं ज्ञानम् के अनुसार जिसको यह समझ में आ जाए कि सब प्राणियों में एक ही सत्ता रहती है, उसे ज्ञानी कहा जाता है।

पृथ्वी पिण्ड का पोषण करने वाले भी पशु कहे जाते हैं। अत: सभी असंज्ञ, ससंज्ञ और अन्त: संज्ञ पशु कहलाते हैं। सभी पृथ्वी के उपकरण हैं। जैसे मन, बुद्धि और शरीर आत्मा के उपकरण हैं। जो स्थान घेरते हैं, सीमायुक्त होते हैं, वे भी पशु हैं। अत: जीवों के अतिरिक्त अन्न, जल और अख्नि भी पशु हैं। लेकिन जिस जल और अख्नि से पृथ्वी का निर्माण होता है, वह पशु नहीं हैं। उनको प्राण पद कहते हैं। सभी पशु पृथ्वी की प्राण शक्ति के आधार पर स्थिरता पाते हैं। अन्न का अर्थ है-जिसको पाकर पिण्ड अपने स्वरूप में बना रहता है। शरीर, मन, बुद्धि जैसे उपकरणों से। सूर्य-परमेष्ठी आदि मण्डलों से जो रस पृथ्वी पर आते हैं, वे ही पशु रूप ग्रहण करते हैं। अन्त में जब पृथ्वी के मूल स्वरूप में जुड जाते हैं, तब इनका पशु भाव समाप्त हो जाता है। वर्षा का जल, नदी, तालाब का जल पशु रूप है। लकडी में छिपी हुई अख्नि पशु रूप है। पिण्ड शरीरों पर दिखाई देने वाला अख्नि भी पशु है। इसी प्रकार प्राणों के आधार हर लोक के अपने-अपने पशु होते हैं। प्राण के साथ मन और वाक् भी सदा जुडे रहते हैं। अविनाभाव होते हैं।

ये वाक् भी चार प्रकार की होती है। पृथ्वी की वाक् कारणभूत अग्नि में और जहां तक पृथ्वी दिखाई पडती है, उस रथन्तर साम में रहती है। अंतरिक्ष वाक् वायुमण्डल में, वाम देव्य साम में रहती है। सूर्य की वाक् केन्द्रस्थ इन्द्र में और सूर्य के वृहत साम में रहती है। इसमें अन्य सभी वाक् समाहित रहती हैं। चौथी वाक् लोक के सभी पशुओं में रहती है। इसके दो रूप होते हैं। प्राण रूप या प्राण गर्भिता वाक् रूप। एक को चित्य और दूसरी को चितेनिधेय कहते हैं। एक मत्र्य रूप, दूसरा अमृत रूप। पिण्ड रूप मत्र्य वाक् है। पिण्ड की स्थिति को बनाए रखने वाला चितेनिधेय कहलाता है। यह केन्द्रगत प्राण ही अगिA-सोम यज्ञ द्वारा पिण्ड को बनाता है। फिर उसी पर आरूढ हो जाता है। वही चारों और फैलता है। यह रस रूप यजु: है, पिण्ड भाग ऋक्। जहां तक पिण्ड दिखाई दे, वह साम कहा जाता है।

तीनों लोकों में अग्नि-वायु-आदित्य को अमृत कहा है। पृथ्वी अन्तरिक्ष द्यु लोक मत्र्य पिण्ड हैं। इनको लोक-मूर्ति-ऋक् भी कहते हैं। इनसे हमारी इन्द्रियों के विषय बनते हैं। रस रूप गंध आदि। साम बहिर्मण्डल कहलाते हैं। इनसे ही हमारी इन्द्रियों का सम्बन्ध बनता है। जो सदा दूसरों पर आश्रित रहते हैं, उनको भी पशु कहते हैं। इस प्रकार एक ही वाक् चार प्रकार से प्रकट होकर अन्न को प्रकट करती है। सूक्ष्म अवस्था की वाक् ही स्थूल अवस्था में अन्न कहलाती है। चौथा रूप ही स्थूल होता है। यही पशुभाव होता है। हम भी एक-दूसरे का अन्न बने रहते हैं।

पशु में भी अन्य प्राणियों की तरह वीर्य रहता है। ब्राह्, क्षत्र या विड वीर्य। चूंकि पशु की भी स्वतंत्र आत्मा होती है, अत: निर्वीर्य नहीं हो सकता। अल्पवीर्य कहलाता है। सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी जैसे लोकों का आत्मा पूर्ण इन्द्र प्राण से बनता है। अत: इनकी पूर्ण संज्ञा है। पशु आत्मा अपूर्ण होता है। इनको पैदा करने वाले रस को केन्द्र प्राण एक ही दिशा में फेंकता है। अलग-अलग दिशा में अलग पशु पैदा होते हैं। आधे इन्द्र प्राण से उत्पन्न होने वाला पशु अर्धेन्द्र कहलाता है। इसमें जो रस सूर्य मण्डल की ओर फेंका जाता है, उससे आगAेय पुरूष और जो रस चान्द्र की सौम्य दिशा में जाता है, उससे स्त्री शरीर का निर्माण होता है। हर पशु एक भाग में बलवान रहता है। दूसरा भाग निर्बल होता है। वृक्ष ऊपर बढता है, नीचे नहीं। चेतन प्राणियों का शरीर नाभि से ऊपर-नीचे (लम्बा) होता है। दोनों पक्षों में नहीं बढता। स्त्री-पुरूष दोनों भाव ही अर्धेन्द्र होते हैं। अत: इनको पूर्णता की खोज रहती है।

यह भी तथ्य है कि अकेला प्राणी रमण नहीं कर सकता। ब्राह् भी चाह रहा था-एकोहं बहुस्याम। यह विनोद भाव गूढ में भी रहता है और अतिज्ञानी में भी (गूढ रूप से)। सभी पशु जीवात्मा अपूर्ण होते हैं। इच्छा का अभाव पूर्णता है। इसी प्रकार अपूर्ण कोई सृष्टि पैदा नहीं कर सकता। नया आत्मा आकृष्ट पूर्ण से ही होता है। अत: दो मिलकर पूर्ण बनते हैं। तब सृष्टि होती है। जाया प्राप्त करके पूर्ण होने के लिए विवाह किया जाता है। बिना पत्नी के पुरूष यज्ञ का अधिकारी नहीं होता। पूर्ण से सम्बन्ध बनाने के पहले स्वयं को पूर्ण बनना पडता है। यही मूल सिद्धान्त है। यज्ञ का फल भी तभी पूर्ण रूप में प्राप्त होगा। उसका आधे में समावेश नहीं हो सकता। विवाह एक संकल्प होता है। मन को एक निश्चित स्वरूप में मर्यादित करता है। संकल्प के टूट जाने पर व्यक्ति विकल्प तलाश करने लग जाता है।

जो इन्द्र प्राण पशु शरीर में रहता है, उसको “मनु” कहते हैं। सम्पूर्ण जगत का शासक, अणु से भी अणु, कान्तियुक्त, स्वप्न-सुषुप्ति में भी कार्य करने वाला, स्वपA में होने वाले ज्ञान से अनुमान करने योख्य जो प्राण रूप पुरूष है, सब भूतों का जो पर तत्व है, वह मनु है। चार मण्डल, स#लोक और 14 भुवनों के अपने-अपने मनु हैं। मनु और यम को सूर्य पुत्र कहा है। मनु को इस लोक का शासक कहा जाता है। यम को परलोक का। मनु ही अर्धेन्द्र है। “मैं हूं” इस अहं भाव को मनु ही प्रकट करता है। यही हमारा इन्द्र है।

इस पशु रूप मानव जीवन को दो अर्धेन्द्र मिलकर न केवल पूर्णता देते हैं, बल्कि पशु भाव से बाहर निकलने का प्रयास भी करते हैं। दोनों ही पूर्ण होकर पूर्णाकार बन जाते हैं। अकेला तो कभी पूर्णता प्राप्त ही नहीं कर सकता। धर्म, अर्थ, काम के बाद दोनों मोक्षगामी हो जाते हैं।

गुलाब कोठारी

May 11, 2009

विवाह-2

Filed under: Spandan — gulabkothari @ 7:00
Tags: ,

भारतीय दर्शन में विवाह संस्था को सृष्टि का मूल आधार भी माना है और प्रति सृष्टि (विलय या मोक्ष) का आधार भी माना है। हमारे अध्यात्म के चारों अंगों-शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा के लिए पुरूषार्थ की व्यवस्था दी है। मोक्ष आत्मा का विषय है। कामना (काम) मन का क्षेत्र है। अर्थ शरीर चलाने की आवश्यकता है और धर्म हमारी बुद्धि को प्रज्ञा रूप देने का कार्य करता है। ये सारे कार्य भी जीवन के भिन्न-भिन्न काल में भिन्न-भिन्न रूपों में किए जाते हैं। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों ही आश्रम केवल गृहस्थाश्रम पर टिके रहते हैं। अत: जीवन का मूल केन्द्र भी गृहस्थाश्रम को ही माना है। उसी के अनुरूप विवाह संस्था का स्वरूप निर्माण हुआ है। हर समाज की इकाई यह गृहस्थ ही नजर आएंगे। समाज के लिए व्यक्तित्व निर्माण भी यहीं होता है। इसी से किसी भी राष्ट्र का स्वरूप बनता है।

इस दृष्टि से भारतीय दर्शन के कुछ सिद्धान्त बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक है कर्म और कर्मफल का सिद्धान्त। दूसरा है पुनर्जन्म का सिद्धान्त। तीसरी है मोक्ष की अवधारणा। व्यक्ति को प्रकृति का अंग और ईश्वर का अंश मानकर उसका निरूपण किया गया है। व्यक्ति को पिता, पितामह, प्रपिता आदि से जोडकर भी देखा गया है और माता, मातामह और प्रमाता आदि से भी। सृष्टि युगल तत्व के सिद्धान्त पर आगे बढती है, अत: इसे ही जीवन की पूर्णता का दर्जा प्राप्त है। विवाह का मूल कहा है। सम्पूर्ण पितृलोक और देवलोक की संस्थाएं इस पर टिकी हुई हैं। ब्रह्म और माया के स्वरूप को भी विवाह संस्था के माध्यम से ही समझने का मार्ग बताया गया है। यही कामना से आप्तकाम होने का मार्ग भी है। माया ही कामना या क्षुधा रूप होकर जीवन को आगे बढाने वाली शक्ति है। गृहस्थाश्रम माया के प्रवेश के साथ जुडता है और वानप्रस्थ के साथ इसके द्वार बन्द हो जाते हैं। भोग संस्कृति में व्यक्ति पूरी उम्र गृहस्थ रहता है। उसके पास काम-अर्थ के अतिरिक्त कोई चिंतन ही नहीं होता। वह पूरी उम्र जड शरीर से ही बंधा रहता है। चेतना की दिशा में उसकी यात्रा शुरू ही नहीं होती। जबकि जीवन का पहला सोपान ही चेतना को जाग्रत करना है। उसको संस्कारित करके मानवीय धरातल पर लाना होता है। तब आत्मा जीने लगता है-इस शरीर में।

विवाह नर-नारी के संकल्पित योग का नाम है। प्रारब्ध ही इसका निमित्त बनता है। जीवन की दिशा यह संकल्प तय करता है। दोनों का संकल्प, दोनों के सपने और पुरूषार्थ में सामंजस्य रहता है। दोनों अपने में स्वतंत्र जीव भी हैं और दोनों के प्रारब्ध भी अलग-अलग होते हैं। नए कर्म साथ-साथ किए जाते हैं। दोनों के फल साथ-साथ भोगने पडते हैं। ज्ञान की आवश्यकता इन परिस्थतियों को समझने में ही होती है। वैवाहिक सम्बन्धों में प्रारब्ध भी परिलक्षित होता है और वर्तमान कर्म भी। दोनों को ही ध्यान में रखकर व्यवहार करना पडेगा। इसके बिना साथ रहना केवल सामाजिक लाचारी बन जाती है।

मूल रूप से विवाह के दो मुख्य पहलू होते हैं। प्रेम को पैदा करना, पल्लवित करना और इसका आगे विस्तार करना। इसी के साथ दाम्पत्य रति (स्त्रेह, वात्सल्य, श्रद्धा और प्रेम) का विकास इस तरह से करना कि यह देव रति में बदल सके। अर्थ और काम को धर्म से मर्यादित करते हुए, कामनाओं की पूर्ति करके, निष्काम हो सकें। गृहस्थाश्रम सृष्टि विस्तार का काल है। अच्छी, योख्य, सुस्कृत संतान के लिए प्रार्थना करें, ताकि उसी तरह का जीव हमारी ओर आकृष्ट हो सके। जीव के प्रवेश के बाद उसके स्वभाव को समझकर उसे मानव रूप में माता संस्कारित करे। बाद में माता-पिता और गुरू उसे व्यावहारिक और आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढाएं। इसके अभाव में जीवन का सुरक्षा भाव छूट जाता है। तब व्यक्ति देने के स्वभाव को ग्रहण ही नहीं कर सकता। वह सदा ही लेने की सोचता रहता है। उसका विस्तार ही संभव नहीं है। उसकी मानसिकता संकुचित होकर रह जाती है।

भक्ति भाव व्यक्ति सोच समझकर पैदा करता है। पहले अपना इष्ट तय करता है। फिर धीरे-धीरे उसकी भक्ति में डूबता चला जाता है। प्रेम का भी यही स्वरूप है। यह भी होता नहीं है, किया जाता है। नित्य अभ्यास और संकल्प के द्वारा एकाकार हो जाता है। अपने आप उठने वाला प्रेम का ज्वार स्थाई भाव में टिक पाना कठिन है। वहां संकल्प उतना दृढ पूरी उम्र नहीं रहता। उस कामना को समझने के लिए पश्चिम के बडे देशों की ओर देखना होगा। जहां विवाह सम्बन्ध अपेक्षाओं पर ही आधारित रहते हैं। अहंकार का टकराव नित्य रहता है। समर्पण की तो कोई सोच भी नहीं सकता। इसका कारण है वहां की जीवन शैली में अधिदेव (प्राण) की अवधारणा का अभाव। वहां शरीर है, बुद्धि है बस! शरीर जड पदार्थ है। इसका भोग भी जड पदार्थ की तरह किया जाता है। एक निश्चित ढांचे में जीवन चलता है। इसमें जीवन कहां ठहर सकता है। जीवन में तो नित नया होता रहता है। सम्बन्धों के विच्छेद का किसी को खेद कहां होता है। वे अपने पैरों पर खडे रहने को सक्षम होते हैं। अत: साथी के छूटने की उतनी चिन्ता क्यों करें! इसीलिए वहां पर विवाह संस्था जर्जर होती जान पड रही है। साथ रह लेंगे, किन्तु शादी नहीं करेगे।
इसका एक कारण यह भी है कि वहां लडके-लडकी की शिक्षा एक-सी हो गई। लडकी भी लडकों जैसे ही जी रही है। लडका बनकर। न उसे पत्नी बनने की चिन्ता, न मां बनने की। न ही संस्कारों जैसे शब्द से उसका परिचय है। पूरा समाज ही लडकों जैसा व्यवहार करने लग गया। लडकी होकर लडकी जैसे जीने को कोई तैयार नहीं। एकांगी हो गया। कुदरत का इतना बडा अपमान ही वहां के नारी क्रन्दन का मूल है। हम भी उधर ही जाने में प्रसन्नता/गर्व का अनुभव करते हैं। अत: जीव जिस योनि से मां के पेट में आता है, वैसा ही मनुष्य रूप लेकर पैदा हो जाता है। उम्र भर शरीर का उपभोग भी उसी तरह करता चला जाता है।

पति-पत्नी दोनों बौद्धिक धरातल पर जीते हैं। पत्नी का भावनात्मक स्वरूप विच्छिन्न हो रहा है। मन में संवेदना का स्तर गिर चुका है। बच्चों के प्रति भी वैसा मोह नहीं दिखाई देता। ममता, करूणा, वात्सल्य जैसे भावों का अभाव बढता जा रहा है। लडकी के शरीर में लडके की बुद्धि कार्य करती है। दोनों का अहंकार झुकने को तैयार नहीं होता। शरीर की पकड छूटते ही अहंकार हावी हो जाता है और झट से अलग हो जाते हैं। अगले विवाहों में शरीर की पकड क्रमश: कम होती ही जाती है। वैसे भी दो लडके एक साथ कितने साल पति-पत्नी जैसे रह सकते हैं! एक को गर्म दूसरे को नरम रहना ही पडेगा। सुख के साथ दुख मे भी मिल बैठकर पार चलना होगा। इस माहौल में न तो पुरूषार्थ का धर्म दिखाई देता है और न ही दाम्पत्य रति का विकास। चेतना का धरातल तो शून्य प्राय: होता है। कैसे कोई स्वयं को सृष्टि का अंग मान सकता है या किसी की मर्यादा में जीना स्वीकार कर सकता है।

विवाह संस्था के कारण कामना का संसार आगे बढता है। दाम्पत्य रति से कामना तृप्त होती है। पितृ और देव संस्थाओं का पोषण करते हुए दोनों आप्तकाम होकर शान्तानन्द में विहार करते हैं। यही मोक्ष है। संकल्प ही मार्ग है और विवाह ही इसका निमित्त बनता है।

गुलाब कोठारी

May 5, 2009

विवाह-1

Filed under: Spandan — gulabkothari @ 7:00
Tags: , ,

जब भी सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की बात आती है, तब व्यवहार के कुछ न कुछ नियम बनाए जाते हैं। समय के साथ इन नियमों में इतना परिवर्तन आ जाता है कि सिद्धान्त दिखाई भी नहीं पडते। तब हम इनको रूढि मानने लग जाते हैं। व्यवहार में सिद्धान्त से ज्यादा रूढियों का महत्व अधिक होता है। इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण विवाह है। विवाह में कितनी तरह के रीति-रिवाज देखे जा सकते हैं। विश्व भर में, हर समाज में विवाह एक आवश्यक सामाजिक परम्परा है। हर देश और समाज में इसके विभिन्न रूप बन गए। विवाह की परम्पराओं का महत्व इतना अधिक हो गया कि व्यक्ति गौण हो गया। हर लडके-लडकी को यह मालूम है कि बडे होकर विवाह करना है। लडकी जानती है कि उसे लडके के साथ रहना है। यह सोच भी रूपान्तरित इतना हो गया कि विवाह का मूल भी भूल गए। सिद्धान्त पक्ष की चर्चा ही नहीं होती। मैंने अनेक लडकियों से यह प्रश्न किया है कि तुम विवाह की तैयारी तो कर रही हो, जानती भी हो कि विवाह करना भी है और लडके के साथ जाना है, पीहर छोडना है, अकेले जाना है, जो अब तक सीखा, उसमें से बहुत कुछ छोडना है, कुछ नया सीखकर जीना है, जीवन से समझौता भी करना है, पर यह सारा क्यों करना है क्या सोचकर तुम विवाह कर रही हो जीवन की कौनसी सार्थकता प्राप्त करना चाहती हो क्या परम्परा मानकर ही विवाह की तैयारी होती है। सब को करना पडता है, मुझे भी करना है। इस प्रश्न पर हर एक के चेहरे पर गंभीरता आते देखा। किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था।
दोनो तरफ से “अच्छा खानदान” देखा जाता है, किन्तु खानदान की परिभाषा आज केवल धन से आंकी जाती है। संस्कारों की मांग लुप्त हो गई। वैभव की चमक के आगे सब छोटा हो गया। विवाह को इतना नकारात्मक धरातल दे दिया कि व्यापारिक लेन-देन में बदलकर रह गया। जीवन की पवित्रता का स्वरूप ही खो गया। लडकों की बोलियां लगने लग गई जैसे बिकाऊ माल हो। उन्हें निर्जीव पदार्थ मान लिया गया। लडकी के गुण भी महžवहीन हो गए। यह भी कोई अर्थ नहीं रखता कि वह मां-बाप को छोडकर आएगी। तलाक हो गया तो उसे ही वापिस लौटना पडेगा। वही इस घर को स्वरूप देगी। संतान को भी संस्कारवान बनाएगी। लडके को पूर्णता देगी। लडका तो उसके बिना ही स्वयं को परिपूर्ण मानकर चलता है। समर्पण नहीं चाहिए उसे।
हम कुछ पीछे चलते हैं, जब समाज व्यवस्था ही नहीं थी। तब क्या संतान पैदा नहीं होती थी विवाह शब्द पैदा ही नहीं हुआ था। विवाह और सारे सामाजिक सम्बन्ध विकसित समाज व्यवस्था के साथ पैदा हुए। पहले केवल प्रकृति थी। नर था, नारी थी। इनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप थे। केवल प्रारब्ध को भोगकर चले जाते थे। अन्य पशुओं की तरह।
जीवन में जितने भी परिवर्तन दिखाई पडते हैं, उनका मूल कारण भाषा है। शब्दावली है। सारे जीवन व्यवहार भाषा पर टिके हैं। भाषा ने ही ज्ञान का स्वरूप धारण किया। पुराने ज्ञान के आधार पर नया ज्ञान विकसित होता गया। इसी के साथ समाज व्यवस्था बदलती चली गई। इसी व्यवस्था में से विवाह संस्था का जन्म हुआ। मानव मन की चंचलता और व्यवहार की स्वच्छंदता को मर्यादित करने का सूत्रपात हुआ। सृष्टि के नियमों को मानव जीवन में लागू करने के लिए अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हुए। फिर भी कोई समाज प्रारब्ध को रोक पाने में समर्थ नहीं हो सका। पिछले कर्मो के फल तो हर मानव को भोगने ही पडते हैं। विवाह संस्था में इसके परिणाम स्वरूप अनेक व्यवधान भी बने रहते हैं। मानव तो शरीर के स्वरूप का नाम है। जीव का कोई नाम-रूप नहीं होता। समाज के नियम-कायदों को वह आसानी से नहीं समझ सकता। उसे मानव बनाने की प्रक्रिया लम्बी भी है और जटिल भी। आज की विकसित समाज व्यवस्था में, विशेषकर विकसित देशों में तो यह प्रक्रिया ही लुप्त हो गई। उनकी जीवन शैली फिर से आदि मानव की तरह स्वच्छंद हो गई है। मानव देह रह गया, भीतर जीने वाला मानव नहीं बन पाता। इने-गिने दिखाई पडते हैं। निजी जीवन को यदि नजदीक से देखा जाए, तो स्पष्ट चित्र दिखाई दे जाएगा। विकास, सुविधाएं और समृद्धि तो है, किन्तु निजी जीवन में सभी त्रस्त हैं। मानवीय संवेदनाएं भोग तक आकर ठहर गई हैं। सभी एक दूसरे का उपभोग करना चाहते हैं। उसके बाद साथ रहने को भी तैयार नहीं। जिस तेजी से मिलते हैं, उसी तेजी से अलग भी हो जाते हैं। साथी बदलते जाते हैं। हर बार जीवन को नए सिरे से शुरू करते हैं और आधे रास्ते चलकर बिछुड जाते हैं। कहीं कोई दर्द नहीं होता। न किसी को संतानों की चिन्ता होती है। चिडिया के बच्चे के पंख आते ही उड जाता है। मां-बाप स्वतंत्र हो जाते हैं। वहां केवल भोग संस्कृति होती है। मानव सम्पूर्ण विकास के बाद फिर उधर ही अग्रसर हो रहा है। जब कि केवल मानव ही कर्म कर सकता है। अपना भाग्य बदलने की क्षमता रखता है। समृद्धि भाग्य या कर्म का लक्ष्य नहीं है। साधन मात्र है।
इस भोग संस्कृति को योग में बदलने और भविष्य निर्माण से जोडने के लिए केवल एक सूत्र चाहिए संकल्प। इस संकल्प का नाम ही विवाह पड गया। बिना संकल्प के विवाह का स्वरूप टिक ही नहीं सकता। संकल्प भी नर और नारी दोनों का। पूरक बनने के लिए हो, स्पर्द्धा करने के लिए नहीं। इस संकल्प के कारण ही नर-नारी में पति-पत्नी के भाव जाग्रत होते हैं। संकल्प टूटते ही फिर से नर और नारी बन जाते हैं।
बिना संस्कार के संकल्प करना भी संभव नहीं होता। संकल्प की दिशा तो संस्कार ही तय कर सकते हैं। मात्र संतान पैदा करने के लिए संकल्प की आवश्यकता नहीं होती। समय के साथ इन संस्कारों के क्षेत्रों का विकास भी हुआ। ज्ञान का, विज्ञान का विकास भी हुआ। संस्कारों की भी विस्तार से व्याख्याएं होने लगीं। संस्कार तो सदा ज्ञान के साथ रहे। शुद्ध विज्ञान, हर काल में, हर रूप में भौतिक विश्व का अंग ही रहा। ज्ञान और विज्ञान आज पूरक न होकर विरोधाभासी बन गए। ज्ञान भीतर चलता है, विज्ञान बाहर। सृष्टि के नियम दोनों पर एक जैसे लागू होते हैं। फिर भी इतना विरोधाभास आश्चर्यजनक ही है।
गुलाब कोठारी

Blog at WordPress.com.