Gulabkothari's Blog

May 22, 2020

करवट बदल रहा समय

सृष्टि प्रकृति और पुरुष का संघर्ष है। पुरुष सुर भी है और असुर भी। सुर एक चौथाई तथा असुर तीन चौथाई होते हैं एवं देवों से बलवान भी होते हैं। असुरों के कारण ही देवों की दिव्यता सिद्ध होती है। असुरों से देवता सदा त्रस्त रहते हैं। इसीलिए अवतारों का भी महत्व है। कृष्ण कहते हैं-

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ॥’

सृष्टि में दुष्ट भी दुष्टता करते रहेंगे, देव भी मार्ग निकालते रहेंगे, समय-समय पर दुष्टता का हिसाब भी होता रहेगा। पुरुष रूप सूर्य जगत् का आत्मा है। पृथ्वी, मृत्युलोक तक आते-आते स्थूल रूप धारण कर लेता है। जहां प्रकाश है, वहां देव रहते हैं। अंधकार में असुरों का वास है। सूर्य अपने परिक्रमा पथ-अयन वृत्त-पर जहां-जहां पहुंचते हैं, असुर भागते जाते हैं। यही स्थिति पृथ्वी के परिक्रमा पथ-क्रांति वृत्त-पर सूर्य के प्रकाश पडऩे से होती है। सूर्य के आगे जाते ही पीछे अंधकार तैयार बैठा रहता है। अंधकार ही लक्ष्मी का कार्य क्षेत्र भी है। उल्लू प्रकाश में नहीं जी सकता। असुर और लक्ष्मी का सम्बन्ध अंधेरे की आसुरी वृत्तियों का ही पोषक है।

आज की जीवनशैली लक्ष्मी-प्रवृत्त है। सारे अनर्थ चरम पर हैं। सरस्वती का उपयोग ही प्रकाश के स्थान पर अर्थ प्राप्त करना ही रह गया है। साधुओं के परित्राण की जरूरत बढ़ती जा रही है। आज जो कुछ विश्व में हो रहा है, उसको इसी दृष्टि से देखना चाहिए। विज्ञान की और राजनीति की भाषा कुछ भी हो, रंग तो मूल में प्रकृति ही दिखा रही है। उद्योग-धन्धों के नुकसान की चिन्ता आम आदमी की नहीं दिखाई पड़ती। मानवता का ध्यान प्रवासी समुदाय की ओर है। जो पैदल घर लौट रहे हैं उनके कष्टों को देखा-सहा नहीं जा रहा। भूखे हैं, पांवों में छाले हैं, बीमार हैं, वाहन उपलब्ध नहीं है और उसके बाद भी लाखों-करोड़ की घोषणा करने वाली सरकारों पर उनको भरोसा नहीं हो रहा। अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों को विश्वासघाती मान रहे हैं। क्या मानवता की कराहट पर भी सियासत करना लोकतंत्र का स्वरूप होगा!

जो लोग अपने घरों के लिए निकल पड़े, वे नहीं लौटेंगे। भले ही राज्यों की सरकारें अपनी सीमाएं सील कर दें। आज नहीं कल, वे घर तो पहुंच ही जाएंगे। उनके पास ईश्वर की आस्था है। जो मार्ग में बिछड़ जाएंगे, उनकी आत्मा भी घर तक साथ जाएगी। इस देश की शक्ति तन और धन नहीं, मन है। जो सत्ता में उपलब्ध नहीं है। सत्ता तो आज की परिस्थितियों में अपना उल्लू सीधा करने से नहीं चूकेगी, यह बात जन-जन की चर्चा में भी आ चुकी है। जो शहर छोड़ चुके उनके राशन का अनाज भी कोई तो उठा रहा है। कई प्रकार के नकली बिल, विशेषकर चिकित्सा के नाम पर, बनते दिखाई दे रहे हैं। और भी न जाने क्या-क्या हो रहा है। राजनेताओं को इस बात की चिन्ता नहीं है कि जनता के मन से विश्वास डोल गया है।

परिणाम कुछ कह रहे हैं। जो मार्ग में हैं, इस दुर्दशा में भी रुकना नहीं चाह रहे। जो सीमा पर हैं, उनको लेकर राजनीति के अखाड़े व्यस्त हैं। कौन मर रहा है, सडक़ों पर प्रसव हो रहे हैं, उनकी बला से। जो अभी रवाना नहीं हुए उन्होंने भी अचानक हुंकार भरना शुरू कर दिया। गांव लौटने के लिए औद्योगिक शहरों में बड़े-बड़े प्रदर्शन, श्रमिकों के, होने लगे हैं। आश्चर्य यह है कि उनको विश्वास में लेने के बजाय, उन पर लाठियां बरसाई जा रही हैं। जले पर नमक छिडक़ रहे हैं। अपने ही देश में परदेशी नहीं, आतंकी हो गए हैं। क्या ये सरकार के विरुद्ध विष-वमन नहीं करेंगे? एक और काम गया, गांव गया और लावारिस की तरह लाठियों से पेट भर रहे हैं। उस देश में जहां तंत्र जनता के द्वारा और जनता के लिए है। आज सरकार के अलावा कौनसा तबका सुखी है? राहत के लाखों-करोड़ किसके पास पहुंच रहे हैं।

कोरोना इलाज बनकर आया है। जिस तरह के हालात भारत में प्रवासियों और श्रमिकों के हैं, कमोबेश वैसे ही हर देश में हैं। बाकी का पता नहीं, भारत में तो परिवर्तन का एक बड़ा दौर आता दिखाई पड़ रहा है। सत्ता की लूट, शिक्षित बेरोजगार और प्रवासी श्रमिकों का सत्ता से मोह भंग कुछ नया रंग लाता दिखाई पड़ रहा है। वोटों की राजनीति ने पहले ही देश को खण्ड-खण्ड कर दिया, बचा खुचा कोरोना के बाद समझ में आ जाएगा। प्रकृति न्याय करने निकल पड़ी है। दिवाली तक की विश्वभर में भविष्यवाणियां हो चुकी हैं। समय करवट बदल रहा है।

सरकार की नीतियां भी कुछ और ही कह रही हैं। राहत योजनाएं, भाजपा-कांग्रेस का संघर्ष, आयात-निर्यात, बैंकों का प्रदर्शन, खुदरा व्यापार के हालात, कृषि और पशुपालन की अनदेखी (कृषकों के साथ बीमा कम्पनियों का तांडव) अफसरों का वर्चस्व, जीएसटी, ऋण की किस्तें, हर अवसर पर कोई ना कोई नया कर लगाने की मानसिकता तथा जनता से बनाई गई अप्रत्याशित दूरी जैसे अनेक पहलू चर्चा में नए सिरे से आने लगे हैं। उच्च वर्ग पर नीतियां लागू नहीं होती। नेता-अधिकारी कानून से ऊपर हो गए। निम्न आय वर्ग भूखा मर रहा है। आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे। मध्यम वर्ग को ही प्रत्येक विभाग मार रहा है। इस बार उद्योग जगत लपेटे में आया है। सरकारें मजदूरों को लौटाने के प्रबन्ध कर रही हैं। इतने उग्र रूप को लेकर श्रमिक घर जाएगा, तो आसानी से लौटने वाला नहीं है। दिवाली भी हो सकती है और नहीं भी आ सकता। आएगा तब तक तो कच्ची बस्तियां भी पक्की बन चुकी होंगी।

अगले वर्ष की शुरुआत तक देश का एक नया स्वरूप उभरकर आ चुका होगा। नई ऊर्जा, नई दिशा और नई गति होगी। देश के पुराने ठेकेदार विदा हो जाएंगे। नई तकनीक के साथ देश फिर शिखर छुएगा।

May 15, 2020

नए वरदान

कोरोना वायरस इतना डरावना निकला कि बड़े-बड़ों के अहंकार पिघल गए। पांवों के नीचे से धरती खिसकती दिखाई पडऩे लगी। लोग कपड़ों में सिमट गए। अर्थात् उनमें जो मानवीय संवेदना मरने के कगार पर पहुंच गई, उसमें प्राण लौट आए। घर के लोगों में अपना प्रतिबिंब दिखाई देने लग गया। समय और प्रकृति से बड़ा शिक्षक कोई नहीं। प्रकृति ने कोरोना देकर हमारी हठधर्मिता को तोड़ दिया, वहीं सामाजिक जीवन में एक नया स्वरूप ला खड़ा किया। हां, कुछ तो असुर प्रकृति के लोग भी हर युग में रहते हैं। वे किसी को सुखी नहीं देखना चाहते।

खैर! कोरोना ने दो बड़े वरदान भी दे डाले। परिवारों का पुनर्गठन, सौहार्द का दरिया पैदा कर दिया। और समय से पहले हमको विश्व के विकासशील देशों की श्रेणी से निकालकर विकसित देशों में शामिल कर दिया। किसने सोचा था, दो-तीन माह पूर्व-कि हमारी दैनिक चर्या में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा। पहली बार देश में अनावश्यक वस्तुओं की खरीद पर अंकुश लगा। खाने-पीने-सोने के प्राकृतिक नियम लागू हो गए। हर क्षेत्र में मर्यादा बढ़ी दिखाई पड़ती है। घर के कार्यों में छोटे-बड़े सब की भागीदारी बढ़ी है।

नई तकनीक तो मानव जीवन पर हावी हो गई। टीवी, मोबाइल फोन, जूम जैसी तकनीक के सहारे गोष्ठियां आदि तो आम बात हो गई। दो महीनों में, बिना किसी प्रशिक्षण के, सारे कार्यालय घरों से संचालित हो गए। कहीं कोई गुणवत्ता में अथवा समय सीमा को लेकर दिक्कत नहीं आई। हम अचानक आधुनिक हो गए।

वर्क-फ्रॉम-होम के कई अन्य लाभ भी दिखाई दिए। कार्य की स्वतंत्रता सबसे बड़ा सुख। घर पर रहने का सुख, गाड़ी या अन्य वाहन का कोई खर्च नहीं, जिसके कारण पर्यावरण की शुद्धि में योगदान मिला। जीवन का समग्र विकास शुरू हुआ। दूसरी ओर कार्यालयों में सन्नाटा। हजारों-हजार की संख्या में भवन उपलब्ध हो गए। आज एक अवसर है जब राज्यों एवं केंद्र सरकार को यह निर्णय कर लेना चाहिए कि कोरोना रहे, ना रहे, तीस प्रतिशत कर्मचारी तो घर से ही कार्य करेंगे। निजी क्षेत्र में भी।

आज देश में आबादी के दबाव के कारण बड़ी जमीनें भी नहीं मिल रही, कॉलेजों और अस्पतालों जैसे कार्यों के लिए। तीस प्रतिशत का नियम लागू होते ही सरकारों के तो बड़े भवन खाली हो जाएंगे। किराए के मकान लेने ही नहीं पड़ेंगे। यातायात में भी बड़ा फर्क पड़ेगा। सरकारों को नई योजनाओं के लिए स्थान उपलब्ध होंगे। बड़े स्कूलों-कॉलेजों में शिक्षा भी तो ऑन-लाइन हो गई है। सरकारों को इनके लिए भी परिसर बनाने की जरूरत नहीं होगी। आज हम 4-जी तकनीक पर हैं। कुछ ही समय में 5-जी आने को है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी देहली पर ही खड़ी है। कार्यालय जाने और नहीं जाने के अर्थ ही बदल जाएंगे। आज हम नहीं भी करें, तो बाद में मजबूर होकर करना तो पड़ेगा। चूंकि आज सभी कार्य कर ही रहे हैं, बिना किसी प्रशिक्षण खर्च के। समय को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय भी अभी कर डालना चाहिए। जो कर देगा, वही फायदे में रहेगा।

May 10, 2020

मां!

‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।। (9.17)

गीता में कृष्ण कह रहे हैं कि इस जगत को धारण करने वाला पिता, माता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ऊँ कार, ऋक्-साम-यजु:वेद भी मैं ही हूं।

जो जगत् का सृष्टा, पालनकर्ता, नियंता है, उस माता-पिता रूप ईश्वर का क्या कोई एक निश्चित दिन हो सकता है? क्या कोई भी दिन उसके बाहर होना संभव है? तब क्या अर्थ ‘मदर्स-डे’ का, ‘फादर-डे’ अथवा ‘टीचर्स-डे’ का। सब नकली चेहरे हैं-जीवन के। क्या इन्हीं माताओं के लिए ‘मातृ देवो भव’ या पिताओं के लिए ‘पितृ देवो भव, ‘आचार्य देवो भव’ कह सकते हैं। ये तो देवता हैं, जो प्राण (सूक्ष्म) रूप से हमारे जीवन को चलाते हैं। देवता दिखाई नहीं पड़ते। देवता भाव के भूखे हैं। माता-पिता शरीर नहीं हैं। हम भी शरीर नहीं हैं। आत्मा हैं, शरीर की तरह समय के साथ न पैदा होते हैं, न मरते हैं। शरीर बस एक मार्ग है आत्मा को 84 लाख योनियों में लाने, ले जाने का। जगत् का एक ही पिता है-सूर्य। वही आत्मा बनकर सबके हृदय में प्रतिष्ठित रहता है। ‘ईश्वर:सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (18.6)।

तब हमारी ‘मदर्स-डे’ वाली माता कौन है जिसके लिए वर्ष में एक बार होली-दिवाली की तर्ज पर त्योहार मनाना चाहते हैं? शेष वर्ष (364 दिन) के लिए चर्चा से बाहर! क्या पंचमहाभूत की स्थूल देह को ‘मां’ कहना उचित होगा? क्या नवरात्रा में नौ दिन के अनुष्ठान की अधिकारिणी हो सकती है यह देह? यह देह तो प्राणीमात्र की, हर मादा की होती है। कोई भेद नहीं है। कार्यकलाप भी स्थूल दृष्टि से तो एक ही हैं। तब सभी प्राणियों की माताओं के लिए क्यों नहीं मनाया जाए मदर्स-डे?

मां एक सृष्टि तत्त्व है, प्रकृति है जो पुरुष के संसार का संचालन करती है। पुरुष आत्मा को कहते हैं। सृष्टि में पुरुष एक ही है। अत:सृष्टि पुरुष प्रधान है। शेष सब माया है। माया ही मां है। मातृ देवो भव।

मानव योनि कर्म प्रधान योनि है। शेष योनियां भोग योनियां हैं। अत: मानव पितृ-मातृ स्वरूप में दैविक आधार एक विशेष उद्देश्य लिए रहता है। हमारे शास्त्रों ने जीवन को पुरुषार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। इसका अर्थ है-धर्म आधारित अर्थ और काम के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करना। अर्थात्-कामना मुक्त हो जाना। माया ही अर्थ और काम को धर्म रूप देती है। माता के रूप में अन्य योनियों से आए हुए जीव को प्रसव पूर्व मानव (संस्कार युक्त) बनाती है। इस पके हुए मटके का स्वरूप संसार की कोई शक्ति बदल नहीं सकती। माता केवल आकृति ही नहीं देती, प्रकृति में भी रूपांतरण करती है। अन्य मादा प्राणियों में यह क्षमता नहीं होती। सम्पूर्ण मानव सभ्यता को माता चाहे तो एक पीढ़ी में बदल सकती है। अभिमन्यु की तरह दीक्षित कर सकती है। आज शिक्षा ने नारी देह से ‘मातृत्व’ की दिव्यता को नकार दिया है। अत: विकसित, बुद्धिमान मादा रह गई है।

हर माता को गर्भकाल में अपेक्षित वातावरण नहीं मिलता। वह जानती है कि उसकी संतान में कौन सी कमी छूट गई है। कमी चूंकि आत्मा के स्तर की होती है-(संतान भी शरीर नहीं आत्मा ही होता है) अत: वह अन्न-ब्रह्म या नाद-ब्रह्म के सहारे संतान की आत्मा तक पहुंचने को रूपान्तरित करने का प्रयास करती है। मां की लोरियां उसकी आत्मा का नाद होता है। शरीर-मन-बुद्धि में यह क्षमता नहीं होती कि आत्मा तक पहुंच सके।

अन्न-ब्रह्म का उपयोग केवल भारतीय ‘मां’ (मदर नहीं) ही करती रही है। वह जो कुछ पकाती है, वह प्रसाद की तरह एक-एक ठाकुर (व्यक्ति) के लिए, उसे प्रसन्न करने के लिए, इच्छित वरदान मांगने के लिए पकाती है। ‘मेरा बच्चा यह खाएगा तो ऐसा हो जाएगा’। ‘मेरा पति यह खाएगा तो ऐसा हो जाएगा’। खाना खाते समय यह प्रार्थना संतान/पति के हृदय में सूक्ष्म रूप से पहुंचती रहती है। संपूर्ण परिवार संस्कारवान भी होता है और एक सूत्र में बंधा ही रहता है। इस दृष्टि से आज की माताओं को मदर्स कहना ही उचित है। वे ‘मां’ कहलाने योग्य नहीं हैं वे सन्तान के लिए खाना पकाना सजा मानती हैं। और ‘मां’ का एक नया रूप भी है। हर पत्नी में पति के लिए भी ‘मातृत्व’ भाव होता है। बुढ़ापे में तो सभी मानने लगते हैं। वह पच्चीस वर्ष की वय में प्रवृत्ति बन कर आती है। एक अनुभवहीन (जीवन दर्शन में) पुरुष के जीवन में आहूत हो जाती है। वही पुरुष के जीवन (अर्थ-काम) की हवन सामग्री बनती है। एक श्लोक है-आत्मा (पिता) वै जायते पुत्र:। केवल मां ही जानती है कि उसने पति को ही पुत्र बनाया है अत: उसे पूरी उम्र पति मान कर ही उसकी सेवा करती है। पुरुष के पत्नी को लेकर कोई स्वप्न नहीं होता। स्त्री सपने बुनकर पति से जुड़ती है। उसका पति कैसा होगा-खूब समझती है। पचास की उम्र उसकी निवृत्ति की है। इस गृहस्थाश्रम के पच्चीस वर्षों में श्रद्धा, वात्सल्य, काम और स्नेह के छैनी-हथौड़ी से पति की मूर्ति घड़ देती है-सपनों वाली। हालांकि उसका यह व्यवहार पति के मन में विमोह ही पैदा करता है। यही पत्नी की मां के रूप में उपलब्धि है। वह स्त्री से विमुख हो गया तो वानप्रस्थ और संन्यास में कामना मुक्त हो ही जाएगा। उसका मोक्ष तो निश्चित कर ही दिया न! सृष्टि में कोई भी प्राणी अन्य प्राणी के लिए नहीं जीता। आज तो शिक्षित व्यक्ति तो पशु ही है। देह मात्र उसका ध्येय है। ‘मां’ स्वयं अपने लिए नहीं जीती, न किसी पर अधिकार जताती है। सन्तान कुछ अच्छा कर भी दे तो मन ही मन गर्व कर लेती है। जीवन का कौनसा क्षण ‘मां’ के बाहर हो सकता है? पुरुष बीज है। उसके बाद उसके बिना सृष्टि चलती है, बीज के-ब्रह्म को केन्द्र में रखकर। मां ही गुरु होती है गुरु भी ‘मां’ बने बिना शिष्य की आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। वहां पहुंचकर क्या मां, क्या गुरु, क्या संतान!

April 28, 2020

पुनर्विचार आवश्यक

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही एक मामले में कहा है कि सरकार को समय-समय पर आरक्षण नीति और इसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसके लाभ उन लोगों तक पहुंच रहे हैं जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

आरक्षण आत्मा का विषय है। सब में एक है। कर्म फलों के कारण स्वरूप भिन्न दिखते हैं। सृष्टि में जितने पशु-पक्षी-कीट दिखाई पड़ते हैं, वे कभी मनुष्य ही थे। कर्म फल भोगने के लिए इन योनियों में गए, कल फिर से मानव बनेंगे। मानव शरीर मोक्ष द्वार भी है। इस भारतीय दृष्टि से आरक्षण मात्र सामाजिक विषय ही नहीं रह जाता। यह सभ्यता का मुद्दा न होकर संस्कृति का क्षेत्र है, जिस पर विधि या प्रशासन की दृष्टि जाती ही नहीं। यह बुद्धि मात्र से समझा जाने वाला विषय होता तो सत्तर साल बाद भी बढ़ता हुआ रोगनहीं बन पाता। सत्ता अट्टहास करती है, मानो सृष्टि रहने तक हम ही शासन करेंगे। दिव्यता खो बैठी है। फिर कौन हमें जगतगुरु मानेगा!

इतिहास साक्षी है-लोकतंत्र में भी सत्ता पक्ष बहुमत के आधार पर अधिनायकवादी हो जाता है। मानवीय संवेदना खो बैठता है। वैसे भी क्रान्ति तो युवा के नेतृत्व में ही आती है। उनमें जोश होता है, आंखों में सपने होते हैं, शक्ति का महासागर होता है। सन् 1990 का आरक्षण विरोधी आन्दोलन युवा आन्दोलन ही था।

आरक्षण का विचार राष्ट्र सृजन की दिशा में उचित कहा जा सकता है, किन्तु इसका केन्द्रीय आधार ‘वर्तमान’ होना चाहिए, न कि भूतकाल; जैसा कि वर्तमान मण्डल आयोग की सिफारिशों का आधार (सन् 1931 की जनगणना) है।

जाति को इकाई क्यों बनाएं? एक ही नाम की जातियां भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। हर जाति में गरीब-अमीर दोनों हैं। अनुसूची में नाम की समानता को आधार पकड़ लिया। तब आदिवासियों के बदलाव में ठहराव आ गए। लोग पुन: अपने पुराने जाति नामों का प्रयोग करने लगे, जैसे राजस्थान में मीणा या मीना जाति। इस भागमभाग में ‘जाति’ शब्द को परिभाषित करना ही भूल गए। ‘इण्डिया दैट इज भारत’ की तरह हो गया।

इसका नुकसान यह हुआ कि जिस जाति-प्रथा के उन्मूलन का संकल्प किया गया था, उसे पुन: प्रतिष्ठित करके विकास की धारा को ही उलट दिया। अखण्डता के सपने संजोकर आजादी पाने वाला ही जाति-धर्म में खण्ड-खण्ड हो गया। युवा ने आंखों पर जातियों की पट्टियां बांध ली। राजनीति के मोहरे बन गए। शिक्षा के मन्दिर राजनीति के अखाड़े हो गए। जाति-विग्रह के आगे देश छोटा पड़ गया। यह तो ठीक है कि पिछड़े हुए वर्गों की क्षमता बढ़ाई जाए, उन्हें नौकरी या जीवनयापन की अन्य सुविधाएं दी जाए, पर अवसर पाने के बाद योग्यता के आधार पर ही आगे के फैसले होने चाहिए।

गुजरात का पटेल आंदोलन एवं राजस्थान का गुर्जर आंदोलन इस बात का प्रमाण है कि जाति के स्थान पर समाज के व्यवहार के ढांचे की समीक्षा होनी चाहिए। आरक्षण की प्राथमिकता पिछड़े वर्ग को सहारा देकर मुख्यधारा से जोडऩे की होनी चाहिए। इसमें गलत कुछ नहीं होगा। हर व्यक्ति को अधिकार तो समान मिलेगा।

पिछले सात दशकों में आरक्षण का घुण देश की संस्कृति, समृद्धि, अभ्युदय सब को खा गया। शिक्षा नौकर पैदा कर रही है। खेती, पशु-पालन, पुश्तैनी कार्य छूटते जा रहे हैं। गुणवत्ता खो रही है। निर्यात के स्थान पर आयात बढ़ रहा है। पेंसिल छीलने का शार्पनर और नेलकटर भी विदेशी?

सरकारें मौन। मौन स्वीकृति भी आग में घी का कार्य कर रही है। बहुमत की सरकारें भी देश हित के स्थान पर निजी स्वार्थ को ही बड़ा मानें, तो क्या कहना चाहिए उनको? नाकारा या नपुंसक? उनकी कृपा से आज हर जाति-समाज आरक्षण की तख्तियां हाथ में उठा चुका है। ‘हमें भी आरक्षण दो या आरक्षण समाप्त करो’ का नारा बुलंदी पर है। दूसरी ओर शिक्षित व्यक्ति की क्षमता क्या रह गई? हर स्तर पर नीति में खोट दिखाई दे रही है। क्यों?

नीतियां बुद्धिजीवी बनाते हैं, माटी से इनका जुड़ाव ही नहीं, संवेदना इनके पाठ्यक्रम में नहीं। वे आंकड़ों में जीते हैं, शरीर-प्रज्ञा से अविज्ञ होते हैं। भारत जैसे देश में लिव-इन-रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता क्या विवेकशीलता है। देश पनपता है अभ्युदय नि:श्रेयस के भाव से। भौतिकवाद में इन शब्दों का अभाव है।

आरक्षण के नाम पर हम लक्ष्य से पूरी तरह भटक गए हैं। जो चाहा, कुछ नहीं हुआ। अनचाहा, सब हो गया। गरीब को उठाना था, नहीं उठा। गरीबी बढ़ी ही है। देश की अखण्डता को अक्षुण्ण रखना था। खण्ड खण्ड कर दिया। इसी को उपलब्धि मानकर अट्टहास करते हैं, हमारे नीति निर्माता। निर्लज्ज कहीं के!

आरक्षण ने सभी में हीनभावना भर दी। सभी अल्पसंख्यक हो गए। कानून की धृष्टता देखिए, हर कोई अल्प-संख्यक हुए जा रहा है। संविधान में बहुसंख्यक की परिभाषा तक नहीं है। फिर किसके आगे अल्प-संख्यक? इसी नासमझी से प्रकृतिदत्त वर्ण व्यवस्था से समाज को मुक्त कर दिया। वर्ण तो मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी-देवता के भी होते हैं। कृष्ण को हमारे कानूनविदों ने अज्ञानी सिद्ध कर दिया।

आरक्षण के कारण गुणवत्ता में समझौता नहीं होना चाहिए। महिला आरक्षण से जीती हुई सरपंच का कार्य उसका पति करेगा तो यह संविधान का ही अपमान है। राजनीति वोट के स्थान पर जनहित की होगी, तो भी अधिक सफल होगी। एकपक्षीय दृष्टि को बदलना पड़ेगा। वरना, आने वाली पीढिय़ों के लिए देश सुरक्षित नहीं रहेगा। आज भी प्रतिभा पलायन तो शुरू हो ही गया है। नीति निर्माता ही अपनी सन्तान को बाहर भेजकर सन्तुष्ट होते हैं। प्रतिभाशाली युवा भी बाहर जा रहे हैं। आरक्षण के पहले हम पिछड़े थे, अब अतिपिछड़े भी हो गए। सवर्ण तो पिछड़ा होता ही नहीं।

मंडल आयोग को तीन बिंदुओं पर रिपोर्ट देनी थी-(1) सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की खोज का आधार, (2) उत्थान के उपाय, (3) आरक्षण जैसे सुझाव। आयोग ने ऐसा नहीं किया। न ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्रश्न उठाया। आयोग की रिपोर्ट मात्र सवर्णों के सामाजिक व्यवहार पर आक्रमण करना था, कर दिया। परिणाम? जिस आधार पर अवसर की समानता का अधिकार है, उसके स्थान पर आज जाति ही प्रमुख योग्यता बन गई। इसका तो संविधान में निषेध है। इसने आज के युवा को लाचारी के अंधे कुएं में डाल दिया। आज उसे पेट के आगे कुछ नहीं सूझता।

आरक्षण ने इससे भी आगे जाकर हमारी अखण्डता की हत्या कर दी। यह कार्य तो अंग्रेज चाहकर भी नहीं कर पाए थे। नीतियां बनाने वाले प्रज्ञा-हीन लोग ही आज इसी व्यवस्था के उत्पाद हैं। पहले देश को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बांटा। मुस्लिम अल्प-संख्यक हो गए, हिन्दू बहुसंख्यक। दोनों समाज सिमट गए। आजादी का नशा काफूर हो गया। आरक्षण ने शेष हिन्दुओं को भी 50-50 कर दिया। आधे सवर्ण कहलाने लगे, आधे आरक्षित। ये दोनों भी मुसलमानों की तरह ही आपस में एक-दूसरे से सिमट गए। मुसलमानों से व्यवहार कभी इतना बुरा नहीं रहा, जितना कि आरक्षित वर्ग ने वातावरण पैदा किया। लाभ केवल कुछ ‘सरकारी नौकरी’ और नुकसान ‘सामाजिक अपमान’। नौकरी कुछ को, शेष को अपमान। मेरा भारत महान्।

अब एक भारत में तीन भारत जी रहे हैं। गुणवत्ता, क्षमता, व्यवहार। समृद्धि दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। वैमनस्य ही बढ़ रहा है। मध्य वर्ग पिस रहा है। तीनों समुदाय एक-दूसरे के शत्रु हो चुके हैं। देश के विकास की चर्चा गौण हो चुकी है। राजनेता भी यही चाहते हैं। जब तक जीएं, कुर्सी बनी रहे। तभी तो देश हित को भी दर गुजर करके हर बार आरक्षण की समय सीमा को बढ़ाते रहते हैं। अब तो कानून भी कुछ ऐसा ही समझने लगा है। तब क्या देश बचेगा? आज के कानूनों के रहते तो कल्कि अवतार भी नहीं बचा पायेगा। न हमें डूबने के लिए विदेशी सहायता की कोई आवश्यकता ही पड़ेगी। इसके लिए हमारे सभी राजनीतिक दल सक्षम हैं। विक्षुब्ध है तो बस युवा और देश का भविष्य।

आज भी हमारे देश में बहुत लोग पिछड़े हुए हैं। उन्हें मुख्यधारा से जोडऩे के लिए आज भी आरक्षण की आवश्यकता है। पहले जो आधार तय किये गए थे वे तत्कालीन परिस्थितियों पर आधारित थे। अब उन आधारों का, नीतियों का वर्तमान की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विस्तार से आकलन करके पुनर्निर्धारण किया जाना चाहिए। जातिगत आधार सही है या नहीं, इस पर भी पुनर्विचार आवश्यक है। आधार, आर्थिक या जो भी हो, ऐसा नहीं हो कि एकजुट होने की बजाय देश विखण्डन की ओर बढ़ता रहे। कोरोना के दौर में सरकार को कई कठोर फैसले लेने पड़ रहे हैं। एक फैसला आरक्षण को लेकर भी कर ही डालना चाहिए।

April 20, 2020

तंग दिली त्यागें

सरकारें जनता की सेवा करने को कितनी तत्पर और समर्पित हैं, इसका उदाहरण लॉकडाउन के हटते ही समझ में आ जाएगा। सरकारें यह तो कह चुकी हैं कि इतने लोगों को मुफ्त खाना खिलाना संभव नहीं है। जबकि मद में हजारों-करोड़ों रुपए स्वीकृत किए गए हैं। सरकारों की एक दुमुंही चाल भी स्पष्ट दिखाई देती है। नेता जनहित के नाम पर कुछ कहते हैं, तरह-तरह की राहतों की घोषणा करते हैं। अधिकारी गलियां निकालकर आहत करने पर अड़े रहते हैं।

आज मीडिया में सूचना दी थी कि कल से कुछ छूट मिलेगी-लॉकडाउन में। उद्योग, खनन (बजरी भी) सहित श्रम आधारित कार्यों को प्राथमिकता मिल सकती है। बस घुंघरू बज उठे। आज से ही टोल लागू हो जाएगा। देने की सूझती नहीं, लेने की फितरत है। वो भी उन्हीं से जिनसे तनख्वाह मिलती है। विद्युत विभाग और भी आगे। पहले तो कानून का डर दिखाया कि उद्योगों का फिक्स चार्ज रद्द नहीं होगा। फिर जब दिल्ली ने कह दिया, तब भी गलियां निकाल रहे हैं। किस्तों को स्थगित करने की बात कही, तब भी ब्याज का खंजर तो लटका ही दिया। क्या छोड़ा? इस बात का प्रमाण है कि जनता को मजबूरी में मदद भी नहीं करेंगे, किन्तु डण्डा दिखाते रहेंगे। उद्योग बन्द होने की चिन्ता उनकी नहीं है। हमारी वसूली कम नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकारों को आगे आकर निर्णय करना चाहिए कि जितना उपभोग किया, उतना बिल बनेगा। वरना, सरकार की राहत की सारी गतिविधियों पर प्रश्न चिन्ह लगेगा। आम उपभोक्ता जिनके घर बन्द रहे, सडक़ों पर रहे, उनके बिजली-पानी के बिल भी माफ होने चाहिए। जरूरत पड़े तो नियमों में संशोधन किए जाएं।

प्रश्न केवल वर्तमान परिस्थिति से निपटने का नहीं है, मानसिकता का है। एक कहावत है कि ‘शहर बसा नहीं, मांगने वाले पहले ही आ गए’। ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की आज छवि यह बन गई है कि उन्हें वेतन भी चाहिए, रिश्वत भी चाहिए और दलाली भी। यह छवि विकसित देश को आगे नहीं ले जा सकती। समय के साथ नहीं बदले तो समय बदल देगा। आज संवेदना पहली आवश्यकता है। केवल अर्थप्रधान भाषा पथरीली होती है। सरकार को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना ही पड़ेगा। हजारों-करोड़ के बजट बना दिए राहत के नाम पर, और कुछ सौ-दो सौ करोड़ के लिए कानून का डण्डा। व्यावहारिक नहीं है। पहले सबको खड़ा होने में मदद करें, फिर भले पूरी उम्र बांटे और खाएं!

भीतर झांककर देखेंगे तो सरकारों और नेताओं की तंग-दिली के दर्शन हो जाएंगे। आज नेता व्यापारी है, देश को कुछ देने की हैसियत ही नहीं रखते। आज की स्थिति में स्वयं हर काम से हाथ झाड़ रहे हैं, खुद जनता से धन मांग रहे हैं। केन्द्र अलग, राज्य सरकारें अलग। सरकार स्वयं हर तरफ से टैक्स बढ़ा रही है, बजट भी देने का भाव दिखा रही है, किन्तु पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में, पलायन करते लोगों को खाना बांटते हुए समाज के लोग ही दिखाई देते हैं। कुछ राज्य सरकारों ने पुलिस के जरिए खाना-सामग्री बांटने का आग्रह किया है, ताकि सरकार का काम भी रिकॉर्ड पर आ सके। गरीब को राशन कितना पहुंचा, इसके उत्तर तैयार हैं। तैयारियां नहीं हैं। सरकार उदारवादी दिखाई देना जरूर चाहती है, किन्तु जनता के सिर पर।

आप कर्मचारियों का वेतन नहीं काटेंगे, उनकी छंटनी नहीं करेंगे। आप अपना उद्योग बन्द कर दें, वह मंजूर है। सरकार जनता से छीनने पर उतारू कैसे हो सकती है। आप भूखे रहें, व्यापार बन्द कर दें, किन्तु कर्मचारी को भी खिलाएं और सरकार को भी। वाह रे लोकतंत्र!

इसका असर क्या होगा, सरकारों ने शायद यह नहीं सोचा। जनता का सरकारों, नीति निर्माताओं से विश्वास ही उठ गया। इस आदेशात्मक एकपक्षीय प्रक्रिया को लोकतंत्र भी नहीं कहा जाएगा। कई संस्थान तो दैनिक मजदूरों को छोड़ चुके हैं। वे विभिन्न प्रदेशों की सीमाओं पर बैठे हैं। उनमें से अधिकांश काम पर लौटने के पहले घर जाना चाहेंगे। पूरे देश में फसलों की कटाई चल रही है। स्थानीय मजदूरों की भी लगभग ऐसी ही स्थिति रहेगी। अनुमान से अधिक समय लगेगा, उद्योगों को पुन:शुरू करने में।

दूसरा पहलू है सरकारी एवं बैंकों का भुगतान। यदि सरकार बिजली के फिक्स चार्जेस जैसे मुद्दों पर अड़ी रही अथवा स्थगन पर ब्याज को लेकर अड़ी रही, (रह तो सकती है, किन्तु हालत देखकर पुनर्विचार करे, न करे) तो उद्योगों को कच्चा माल खरीदने के लिए नए सिरे से उधार लेना पड़ेगा। पुराने उधार की किस्तें भी कोई बैंक बिना ब्याज स्थगित करने को तैयार नहीं है। यह लूटने की मानसिकता कही जाती है। जनता के लिए तो ‘गरीबी में आटा गीला’ हो रहा है।

यही स्थिति अनुबन्धित कर्मचारियों की है। सरकार अपना सारा कामकाज बिना स्थायी भर्ती के चला रही है। पांच माह में हटा देगी। एक माह बाद उसी को पुन:संविदा पर रख लेगी। वर्षों निकल जाते हैं। तब उसे निजी कंपनियों पर यह दबाव बनाने का अधिकार कहां है कि अपने कर्मचारियों को नहीं हटाएं। इसका बड़ा नुकसान यह हो गया कि एक ओर अनुबन्धित कर्मचारी घर बैठ गए, दूसरी ओर प्रभावशाली तथा पहुंच वाले उद्योगपतियों ने छंटनी कर डाली। सौहार्द के स्थान पर द्वेष का वातावरण पैदा हो गया। मानो सरकार मेरी नहीं, अंग्रेजों की ही चल रही है।

जनता को चाहिए कि गरीबों को खाना भी खिलाए, उनकी सेवा भी करे और सरकारी कोष में भी मुक्त हस्त से देना चाहिए। सामाजिक संस्थान भी जुटें इस कार्य में।

April 18, 2020

नए भारत का निर्माण

भारत का संघर्ष ‘गरीबी में आटा गीला’ जैसी स्थिति से जूझने जैसा है। हमारे सामने अधिकांश पश्चिमी देश विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं। भारत विकसित नहीं है। आर्थिक हालात कागजों में कुछ भी हों, हम विकासशील ही हैं। कोरोना ने हमको व्यावहारिक दृष्टि से और भी पीछे धकेल दिया है। आने वाले समय में तो ‘नंगा क्या धोए, क्या निचोड़े’ जैसे दिन काटने पड़ेंगे। देश को नए सिरे से खड़ा होना पड़ेगा। आजादी की जंग का जज्बा कुछ और ही था। स्वतंत्रता के नाम पर जो स्वच्छन्दता का, भ्रष्टाचार का, अंग्रेजियत का और राजनीतिक अराजकता का वातावरण बना, उसने स्वतंत्र भारत के सपनों को चूर-चूर कर दिया।

सबसे पहली मार तो उस अखण्डता को पड़ी जिसके नाम पर यह संघर्ष रंग लाया। आज देश खण्ड-खण्ड है। कानून का सम्मान भी खण्ड-खण्ड हो गया। अभी लॉकडाउन में भी कानून का उल्लंघन जगह-जगह देखा जा सकता है। हम आजादी के बाद माटी से जुड़े या दूर हो गए। लोकतंत्र की स्थापना हो गई। जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए। कितना अच्छा नारा दिया गया। लोकतंत्र के तीन पाए जनता के द्वारा पोषित किए जाएंगे और देश को जनहित का एक सुदृढ़ और संकल्पित शासन देंगे। पिछले सत्तर वर्षों में किसी राजनीतिक दल ने सत्ता-स्वार्थों से उठकर देश की अखण्डता और ‘जनता के लिए’ किए गए उद्घोष को प्राथमिकता नहीं दी।

रहा सहा कोरोना खा गया। अब सरकारी कर्मचारी ड्यूटी पर आने के लिए अलग और काम करने के लिए अलग मोल मांगने लगा। उसमें भी दरारें और अनेक छेद हो गए। दूसरी ओर कर्मचारियों की भर्तियां बंद हैं, केवल अधिकारियों की ही भर्ती हो रही है। कोरोना ने सबको घर भेज दिया। काम-काज ठप हो गया। देश बेरोजगार हो गया। धनाढ्य भी हिल गए हैं। क्या हम लॉकडाउन के उठने पर चल पड़ेगे? कभी भी नहीं! हमारी सरकारी मानसिकता साथ नहीं देती। न जाने क्यूं वह स्वयं को जनता का अंग मानकर काम नहीं करती। अधिकारी, विशेषकर केन्द्र शासित वर्ग स्वयं को सरकारों से भी ऊपर मानता है। कानून बनाने में हमारे जनप्रतिनिधि प्रभावी नहीं हो पाते। अत: हमारे अधिकतर कानून विकसित देशों की तर्ज पर बने होते हैं, जो हमारी आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से मेल तक नहीं खाते, किन्तु कानून बन जाते हैं। इस स्तर का सारा चिन्तन अंग्रेजियत से प्रभावित है। तीनों पाए भी और मीडिया भी। इसलिए अधिकांश मीडिया भी स्वयं को सरकार (चौथा पाया) घोषित कर बैठा। जनता का कौन बचा?

हमारी अर्थव्यवस्था आज केवल चरमरा ही नहीं गई बल्कि पैंदे बैठती दिखाई दे रही है। आज की चक्काजाम स्थिति से बाहर निकलने के लिए युद्ध स्तर पर, विकसित देशों की तरह नए सिरे से तपना पड़ेगा। आज भी सरकारें विलासिता के नशे में डूबी हैं। आज की अर्थव्यवस्था पहले पेट भरे। ‘घर में नहीं हैं दाने, अम्मा चली भुनाने’। कानूनों पर भी पुनर्विचार करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बने। आधे से अधिक सदस्य भारतीय सांस्कृतिक-आर्थिक धरातल को जीने वाले हों।

हमें फिर से पुरानी जीवन शैली पर आना चाहिए। पांच दिन के स्थान पर पुन: छह दिवस के कार्य दिवस लागू होने चाहिए। धर्म-सम्प्रदायों से जुड़े सारे अवकाश ऐच्छिक हो जाने चाहिएं। केवल आठ-दस राष्ट्रीय अवकाश रहें बस! स्थानीय अवकाशों पर भी पुनर्विचार किया जाए। कोरोना ने देश में पहली बार एक नई कार्य संस्कृति घर से कार्य (वर्क फ्रॉम होम) करने की विकसित की है। इसे सही दिशा दी जाए तो भारत जैसे देश में यह पद्धति मितव्ययिता एवं विकास को बड़े आयाम दे सकती है। आज टेक्नोलॉजी ने यह संभव कर दिया है कि सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में बहुत से काम कर्मचारी घर बैठे-बैठे भी कर सकते हैं। उनके आकलन, नियंत्रण, समीक्षा के भी तरीके टेक्नोलॉजी में उपलब्ध हैं। टेक्नॉलोजी के माध्यम से होने वाले कार्यों में पारदर्शिता भी पूरी रहती है और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की तो स्वत: पालना हो जाती है। जरा सोच कर देखिये (वर्क फ्रॉम होम) के कारण कितनी बड़ी संख्या में सरकारी भवन खाली हो सकते हैं। इन भवनों का उपयोग अस्पताल, स्कूल और अन्य जनसुविधाओं के लिए किया जा सकता है। दफ्तर आना जाना कम हो जाएगा तो सडक़ों पर वाहनों की संख्या भी आधी से कम रह जाएगी जिसका सीधा लाभ प्रदूषण मुक्ति के रूप में मिलेगा। बिजली, ईंधन, जल जैसे आवश्यक संसाधनों की भी बचत होती है। इन सबसे प्रकृति की शुद्धता भी बनी रहती है। लॉकडाउन के दौरान देश भर में प्रदूषण के स्तर में आई गिरावट इसका प्रमाण है। ‘पत्रिका’ के देश भर में फैले दफ्तरों में भी पिछले लगभग एक महीने से (वर्क फ्रॉम होम) के माध्यम से अधिकांश कार्य सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं।

केन्द्र सरकार के सामने एक स्पष्ट उदाहरण आया कि नेतृत्व यदि नियमित रूप से जनता को सम्बोधित/प्रेरित करता है, तो मुर्दा भी बोलने लगता है। अफसरों को भारतीय बनाने के लिए श्रम और शक्ति बहुत लगानी पड़ेगी। तब जाकर भारत पुन: भारतीय स्वरूप को प्राप्त हो सकेगा। मोदी जी इस कोरोना को हरा सकते हैं।

लॉकडाउन खुलने का अर्थ होगा नया चिन्तन नई जीवनशैली तथा नई जागरूकता। खुलने की शुरूआत ही भीड़ भरे वातावरण में होने वाली है। मजदूरी, खेती, परिवहन, बाजार आदि सभी भीड़ के स्थान हैं। शहरी और ग्रामीण भीड़ में भी अन्तर होगा। बसों की भीड़ और मण्डियों की भीड़ में अन्तर होता है। मण्डियों में तो पशु भी होते हैं। ऐसा न हो लालफीताशाही सारे अरमानों पर पानी फेर दे। अभी तक न सब जगह राशन ही पहुंच पाया है, न ही मास्क। अत:आदेशों की अनुपालना व्यावहारिक होनी चाहिए।

राजनीति का दबाव जैसा चित्तौडगढ़ में नजर आया, विधायक विधुड़ी की कार का चालान किया तो मुहं पर तारीफ की और तुरन्त महिला अधिकारी का स्थानान्तरण। क्या ऐसे जनप्रतिनिधियों से समाज को कोई उम्मीद रखनी चाहिए जो लॉकडाउन में भी चार-चार गाडिय़ां साथ लेकर चलता हो और कानून को मुट्ठी में रखता हो। उसके खिलाफ कार्रवाई न होना भी जनता के विश्वास को तोडना ही है। जयपुर के कांग्रेसी विधायक अमीन कागजी पर क्या कार्रवाई हुई? क्यों सत्ताधारियों को असीमित पास देकर हम कानून की धज्जियां उड़ा देने को सहमत हो जाते हैं? प्रभावशाली लोग कार पास लेकर गलत कार्यों में दुरुपयोग कर रहे है। गरीबों को तो बिना पहचान राशन तक नहीं दिया जाता। भले ही भूखे मर जाएं।

अमरीका विशेषज्ञ माइकल ऑस्टहोम्ज ने तो यहां तक कहा है कि टीका आने में और कोरोना की प्रभावी रोकथाम में दो साल तक लग सकते हैं। इस बीच यह चीन, हांगकांग, सिंगापुर, ताईवान जैसे एशियाई देशों की तरह पुन:आक्रामक हो सकता है। यह तूफान, भूकम्प जैसी आपदा नहीं है कि एक बार में ही चली जाए। इस पर देश-काल का बन्धन लागू नहीं होता। अत: हमारी चिंता केवल यह होनी चाहिए कि हम बाहर कैसे निकलें। इस बारे में पुराना कोई अनुभव तो है नहीं। एक ही बात समझ में आती है कि भीड़ बेकाबू होगी। क्या टेस्ट करने और सभी चिन्हित रोगियों को अस्पताल/डॉक्टर्स उपलब्ध हो सकेंगे? कठिन तो है ही। वायरस स्वयं तो आक्रामक बना ही रहेगा। अपने आप मरने वाला तो है नहीं। अत: इस चुनौती का सामना करने के लिए कम से कम 6-10 माह आगे तक की स्वास्थ्य योजना तैयार रखनी चाहिए। निर्णय ठोक बजाकर ही लिए जाएं। पूरे देश को तब तक एकजुट रहना अनिवार्य है जब तक आश्वस्त न हो जाएं कि हां, अब कोरोना मर गया। स्वास्थ्य कर्मियों, वारियर्स का भी सबको मिलकर पूरा ध्यान रखना है।

विशेषज्ञों का कहना है कि भले ही यह वायरस बैक्टेरिया से कम हानिकारक है, किन्तु पकड़ में आने तक हमारी कोशिकाओं ‘सेल्स’ को बड़ा नुकसान पहुंचा देता है, जिनको पुन: ठीक नहीं किया जा सकता। इसके प्रतिफल में ‘Cyto Kine’ नामक अतिवेग से हानि पहुंचा देता है जो इंफेक्शन से भी अधिक होती है। जबकि सारी चिकित्सा इंफेक्शन को दूर करने के लिए ही की जाती है।

भारत में सार्वजनिक अनुशासन एवं शिक्षा का अभाव भी नकारा नहीं जा सकता। लॉकडाउन हटने की प्रक्रिया गंभीर प्रशासनिक हाथों में ही रहनी चाहिए। पद गंभीर हों आवश्यक नहीं हैं, राजनीति गंभीर हो, यह भी आवश्यक नहीं है, अनुभव के आधार पर निर्णय लिए जाएं, जीवन को बचाया जा सके, यह पहली आवश्यकता है।

April 17, 2020

आ, भारत लौट चलें

हमारे देश में सर्वश्रेष्ठ वायु पुरवाई मानी जाती है और आंथूणी (सूर्यास्त की दिशा) से आने वाली वायु विनाशकारी। पूर्व इन्द्र का, अग्नि का क्षेत्र है, पश्चिम वरुण का, सोम का क्षेत्र है। अग्नि सरस्वती का तथा सोम लक्ष्मी का क्षेत्र है। अग्नि आत्मा या अध्यात्म का केन्द्र है, वहीं सोम शरीर अथवा भौतिक-पदार्थों का क्षेत्र है। हम कभी जगतगुरु थे, आज नकल करके लक्ष्मी के वाहक बनने लगे।

आज कोरोना का जो संकट इतना व्यापक हो रहा है, उसका कारण हमारी घटती रोग-निरोधक क्षमता है। इसके पीछे हमारा उन्नत खानपान, विकसित डेयरी उत्पाद, उन्नत बीज जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियां रही हैं। हम जहर खा रहे हैं, विषपान कर रहे हैं। एक ओर चन्द्रमा और मंगल तक उड़ान भर रहे हैं, तो दूसरी ओर अपने-अपने घरों में कैद हो गए, क्योंकि हम विकास के नाम पर विदेशी हो गए।

आज हम न चाहते हुए भी बंद हैं। कोस रहे हैं कोरोना को। क्या यह भी संभव है कि न चाहते हुए भी हम दो सप्ताह के लिए भारत लौट चलें। तब आगे का जीवन भी तो तय हो जाएगा। हम एक अनुभूति के दौर से गुजरेंगे। विकास को कोरोना के साथ घर के बाहर छोडक़र, प्राकृतिक भारत के नागरिक होंगे। हवा, पानी, धूप, वृक्ष, पक्षी, पशु आदि सबकी जीवन में भूमिका को नजदीक से देख सकेंगे। समझ जाएंगे कि हम भी कभी इधर से गुजरे थे। आज तो मनुष्य हैं, पर हैं सब एक ही बिरादरी के।

एक ही नियम होगा-प्रकृति के साथ जीना है। सोना-जागना है। अनावश्यक कुछ नहीं करना है-ताकि जीवन मूल्यवान बना रहे। न कोई अति हो। मन-प्राण-वाक् (शरीर) को हृष्ट-पुष्ट-तुष्ट रखना है। सात्विक अन्न, सात्विक विचार, देव अराधना, सूर्य नमस्कार, संध्या आरती, सब करने हैं-अपने-अपने धर्म-सम्प्रदायों के अनुसार। खाना वही खाना है जो आपकी भूमि (जन्म स्थान) पर पैदा होता है। न रासायनिक खाद, न कीटनाशक। बाजरा, मक्का, जौ और ज्वार ही खाना है। न गेहूं, न मैदा। न दवा छिडक़ी सब्जियां। सूखे साग, दालें, दही-छाछ, राब आदि बस।

जो सामग्री आज से 50 वर्ष पूर्व रसोई (रसायन शाला) में नहीं जाती थी, वह इन दो सप्ताह में भी बाहर ही रहे। आप भोजन भी, व्यंजन भी वैसे ही पकाएं, जैसे उस काल में, आपके क्षेत्र में पकाए जाते थे। रासायनिक-चीनी, नमक, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से तैयार अनाज, सब्जियां, फल, दूध एवं दूध के पनीर-मक्खन, मैदा सब बाहर।

अन्न के साथ मन के प्रयोग भी करें। जो यह भोजन खाएगा, वह विनम्र होगा, आस्थावान होगा वगैरह-वगैरह। हर व्यक्ति हमारे लिए ईश्वर का प्रसाद है, ईश्वर भी है। तब खाना-खिलाना क्या पूजा-कर्म नहीं है? हम सब एक-दूसरे के भक्त बन जाएं। सबके हित की बात करें। स्वयं की बात स्वयं से ही करें, प्रशंसा न करें तो अच्छा। व्यक्तित्व के विकास पर, भावी जीवन निर्माण पर चर्चा हो। बुद्धि में प्रेम नहीं होता। इन दिनों उसे बाहर खूंटी पर टांग दें। स्नेह, वात्सल्य, करुणा, दया, सुख-दु:ख, सपने, स्मृति आदि मन के ही विषय हैं। मन का पोषण करें, संकल्पवान बनाएं, चर्चा करें।

वस्त्र देशी, ढीले पहनें-कुर्ता पायजामा जैसे। तंग वस्त्रों में त्वचा के, श्वांस लेने, विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालने में तथा सूक्ष्म ऊर्जाओं के आकाश-वायु तत्त्वों के साथ आदान-प्रदान में बाधा पहुंचती है। हमारा देश गर्म क्षेत्र है। यहां पतलून (पेंट) कमीज, कोट जैसे कपड़े स्वास्थ्यवर्धक नहीं हैं, जैसे सीमेंट-कॉन्क्रीट के मकान। गर्मी में गरम, सर्दी में ठण्डे। इन दो सप्ताह में कोशिश तो हम यह भी करें कि फ्रीज, माइक्रोवेव, एयरकंडीशनर जैसे विलासिता के उपकरणों का उपयोग भी न करें। सिर्फ बिजली और पंखे के सहारे दिन गुजारें। जैसा कि पचास साल पहले करते थे।

शाम को भोजन के बाद कहानियों का एक नियमित सत्र हो। ब्यालु जल्दी करें, ताकि सोने से पूर्व दो-तीन बार जल पी सकें। हर व्यस्क बच्चों को एक कहानी सुनाए। हर बच्चा कोई कविता या संस्मरण सुने। अनावश्यक मनोरंजन इस जीवन का अपमान है। ईश्वर ने हमें एक प्रयोजन से भेजा है। उसे समझ सकें और तप सकें तो चमक जाएंगे-प्रकाश फैलाएंगे।

स्वयं को ईश्वर (सूक्ष्म प्रकृति) के साथ जोडऩा सीखें। बाहर जीने में सार्थकता तब ही पैदा कर पाओगे, जब भीतर-बाहर जुड़ जाएंगे। आप स्वयं अपने ईश्वर हैं। बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। जब हर प्राणी ईश्वर है, मेरी तरह, तब क्यों न जीवन को उसे ही समर्पित किया जाए! सब मेरा ही विस्तार है, अलग रह ही नहीं सकते। कोई जड़ है, कोई पत्ता-फूल-या फल। जो अलग हुआ-समझो मर गया। यही भारत की देन है-वसुधैव कुटुम्बकम्!

April 16, 2020

पुण्य कमाएं

संसार सागर में देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन एक सतत प्रक्रिया है। सृष्टि में देवता तैंतीस तथा असुर 99 होते हैं। असुर देवताओं से अधिक बलवान भी होते हैं। आज कलयुग में तो नित्य ही आपात स्थिति बनी रहती है। देवता त्राहि-त्राहि करते हुए विष्णु-महेश को ढूंढ़ते रहते हैं, रक्षा के लिए। किन्तु देश आस्थावान है और कृष्ण के उस आश्वासन पर जिंदा है, जो उसने गीता में दिया था-

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्’॥ (गीता 4/7)

तथा आगे कहा था-

‘परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्। 
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे’॥ (गीता 4/8)

इसका एक अर्थ यह भी है कि ईश्वर हर युग में उपलब्ध रहता है। नाम, रूप स्थान कुछ भी हो सकते हैं। वैसे तो वह सबके हृदय में ही प्रतिष्ठित है, किन्तु समय के प्रभाव में प्रकट कहीं-कहीं हो सकता है। आपातकाल के अधंकार में तो असुरों (कालाबाजारियों) का ही बोलबाला रहता है। किन्तु इस बार कोरोना वायरस के आपातकाल में ईश्वर के दोनों आश्वासन खरे उतर रहे जान पड़ते हैं। विश्व स्तर पर बड़े-बड़े दानदाताओं ने दोनों मुट्ठियां खोल दी।

भारत में दानदाताओं के नाम तो शास्त्रों तक में उद्धृत हैं। राजा बलि से लेकर, राजा कर्ण और भामाशाह तक अनगिनत नाम इतिहास में दर्ज हैं। इतिहास लेने वालों को याद नहीं करता। धर्म के रूपों में यज्ञ और तप के साथ दान को ही प्रतिष्ठा मिली है। इस दु:खद स्थिति में भारत के उन कालजयी दानदाताओं का देशवासियों को मुक्त कण्ठ से आभार व्यक्त करना चाहिए, अभिनन्दन करना चाहिए, जिन्होंने देश की ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इनके भीतर का कृष्ण जाग्रत हुआ है। देश के भले लोगों में आस्था का संचार होगा।

राजस्थान के इतिहास के पन्ने भी भामाशाहों के नामों से रंगे पड़े हैं। शेखावाटी के सेठों ने भी खजाना खोला है। आदित्य बिड़ला ने 500 करोड़ रुपए सहायता राशि दी है। इसी प्रकार एल.एन मित्तल, पीरामल, सिंघानिया, डालमिया, बजाज, वेदान्ता गु्रप भी आगे आए हैं। राजस्थान के इन उद्योगपतियों की समग्र राशि लगभग एक हजार करोड़ है।

अब तक टाटा ग्रुप ने 1,500 करोड़ रुपए की सहायता राशि घोषित की है। विप्रो के अजीम प्रेमजी भी 1,125 करोड़़ दे चुके हैं। रिलायंस ग्रुप ने 510 करोड़, आईटीसी ने 150 करोड़, अडाणी फाउण्डेशन-एक सौ करोड़ तथा अक्षय कुमार (एक्टर) भी 25 करोड़ रुपए की सहायता कर चुके हैं। राष्ट्र इनके सहयोग के लिए इनका आभारी है। इन्होंने सरकार के हाथ मजबूत किए हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि देश के अन्य काले/सफेद समृद्ध जन भी इनसे प्रेरित होकर पुण्य कमाने पर चिन्तन करेंगे।

कोरोना महामारी से निपटने के लिए कई राजकीय कोष बन गए हैं। इनको लेकर भी कुछ विवाद सामने आ रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां जब पीएम केयर फंड में दान देती हैं तो यह राशि सीएसआर की श्रेणी में मान ली जाती है, जबकि राज्यों के कोषों में जमा कराने पर ऐसा नहीं होता। बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस दान दे रहे हैं, लेकिन देश के कई बड़े धार्मिक ट्रस्ट इसमें ज्यादा रुचि नहीं दिखा रहे। सैकड़ों धर्मस्थल देश में ऐसे हैं जिनमें प्रतिवर्ष अरबों रुपए चढ़ावे के रूप में आता है। विश्व में आए इतने बड़े संकट के समय उन्हें भी जनता की मदद खुद करनी चाहिए। चढ़ावे में आई कमी पूरी करने में श्रद्धालु देर नहीं लगाएंगे। इसी तरह देश के राजनीतिक दलों के पास भी चंदे के रूप में बड़ी-बड़ी रकम जमा है। उन्हें भी अपने कोष में से कुछ राशि इस महामारी से निपटने के लिए दान करनी चाहिए।

दान का ही एक स्वरूप है-परोपकार या परहित। गोस्वामी तुलसीदास भी कह गए हैं-परहित सरसी धरम नहीं भाई। जिसके पास धन है, वह दान स्वरूप धन देता है, पर यह आवश्यक नहीं कि दान धन का ही हो। तन-मन-धन दान किसी भी रूप में दिया जा सकता है। तन से सेवा करना, मनोयोग से सेवा करना या परोपकार के लिए अपना समय देना भी दान ही है। धन का दान देना कई बार हर किसी के लिए संभव नहीं हो सकता लेकिन सेवा और समय का दान हर व्यक्ति कर सकता है। आज के संकट के समय ऐसे दान की सर्वाधिक आवश्यकता है। संकल्प कर लें तो हममें से हर एक दानी बन जाएगा।

April 10, 2020

प्रयासों पर पत्थर

आज संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी को हराने के लिए युद्धरत है। विश्वभर में हम लापरवाही के दुष्प्रभावों को भी देख रहे हैं। साधनों की कमी का असर भी देख रहे हैं। कहीं राजनीति भी हो रही है, तो कहीं सांप्रदायिकता का चोला भी दिखाई दे रहा है। कोरोना का हमला इतना भारी पड़ेगा, किसने सोचा था। धारा-144 से शुरू हुई निषेधात्मक कार्रवाई आज कर्फ्यू और महाकर्फ्यू तक पहुंच गई। क्या यह प्रशासन की हार है अथवा मानवता स्वयं को लज्जित कर रही है?

कोरोना के ज्यादा प्रभाव वाले शहरों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा जहां भी कानून तोड़ा जा रहा है, वहां महामारी का फैलाव भी ज्यादा हो रहा है। जयपुर में कर्फ्यू तोड़ कर राशन बांटने का मामला हो या इंदौर में स्वास्थ्यकर्मियों से दुव्र्यवहार का-कुछ स्थानीय नेताओं की मनमानी की सजा आम नागरिकों को भुगतनी पड़ रही है। कल जयपुर के परकोटे में महाकर्फ्यू के दौरान कुछ लोग कर्फ्यू तोड़ कर राशन बांटने किशनपोल बाजार की नमक-मण्डी क्षेत्र में पहुंचे। ये सत्तादल के कार्यकर्ता थे जिनका समर्थन विधायक अमीन कागजी ने किया। क्या सत्ता पक्ष के लिए कर्फ्यू का उल्लंघन न्यायोचित था? कैसे 300-400 लोगों का इकठ्ठा होना उनको रास आया! पुलिस, सरकार ने क्या कार्रवाई की। पुलिस ने लाठियां भांजी और बस! लोगों को मार खानी पड़ी क्योंकि सत्ता के नशे में, निडर होकर लोगों ने कर्फ्यू की, लॉकडाउन की या सरकार के आदेशों की धज्जियां उड़ाईं? विधायक के समर्थन से छुटभैय्ये नेता कार्यकर्ताओं सहित खुले आम कानून का उल्लंघन करें, फिर भी किसी पर कोई कार्रवाई न हो? क्या विधायक एक कौम का प्रतिनिधि होता है? क्या उसका देश के कानून को तोडऩे वालों का समर्थन करना उचित था? सरकार चुप क्यों है?

यह नजारा जयपुर में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। यह राष्ट्रव्यापी एक विशेष चिन्तनधारा का हिस्सा ही माना जाएगा। घटना हो जाना, अनजाने में लापरवाही या चूक हो जाना एक बात है और सोच-विचार कर कानून से खिलवाड़ करना अपराध है। निजामुद्दीन की आग अभी भी विश्वपटल पर सुलग रही है। देश में भी कोने-कोने में उसकी चिंगारियां उछल रही हैं। उसके साथ स्थानीय लोगों का विरोध करना, कोरोना के विरुद्ध जूझ रहे योद्धाओं पर पत्थर बरसाना वैसा ही नजारा है, जैसा हम जम्मू और कश्मीर में देख चुके हैं। कानून की बंदिश क्यों स्वीकार्य नहीं हो पा रही है? क्यों सवाईमाधोपुर में पुलिसकर्मियों पर पथराव किया गया? क्यों धौलपुर में पुलिस पर पथराव किया गया?

पिछले सप्ताह भर से क्यों इंदौर सुलग रहा है? पहले जांच करने गई दो महिला चिकित्सकों पर पथराव करके उनको भगाया। अगले दिन सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। कल फिर पथराव पर उतर आए। चार लोगों पर तो रासुका लगाना पड़ा। आश्चर्य तो यह है कि पथराव की सारी घटनाएं एक ही समुदाय विशेष से जुड़ी हैं। मानो पुलिस को देखते ही उनके दिलों में चिंगारियां सुलगने लगती हों। जयपुर का रामगंज हो, मुंबई की धारावी झुग्गी हो या अहमदाबाद का दरियापुर और दाणी लीमड़ा क्षेत्र-कहीं न कहीं बीमारी के तथ्य को छुपाने, लॉकडाउन या कर्फ्यू का उल्लंघन करने या स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दुर्व्यहार करने की बात सामने आ रही है।

यही सही है कि पार्टी कोई भी हो, सत्ता पक्ष वोटों की राजनीति को जनहित से ऊपर मानने लगा है। जनता से बड़ा पार्टी हित और पार्टी से बड़ा निजी हित। सब मौन हैं। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे! एक ही समाधान है-जो सरकार कानून लागू नहीं करवा पाए, कुर्सी छोड़ दे या यह मान ले कि वह भी कानून तोडऩे और पत्थर बरसाने वालों के साथ है। संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका का मौन लोकहित के विरुद्ध ही जाएगा। क्यों नहीं वह स्वप्रेरणा से कुछ गंभीर मामलों में प्रसंज्ञान ले। जनप्रतिनिधियों की तो सदस्यता तक समाप्त की जा सकती है। सत्ता का यह नंगा नाच जनता कब तक देख पाएगी, कोरोना के बाद स्पष्ट होगा।

April 8, 2020

कोरोना मरे, लोकतंत्र नहीं

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच अप्रेल को विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं से टेलीफोन पर बात करके सुझाव मांगे थे-कोरोना वायरस से निपटने के लिए। आज कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष (कार्यवाहक) ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पांच विशेष सुझाव भेजें हैं। साथ ही यह भी लिखा है कि सरकार के मंत्रियों/ सांसदों के वेतन-भत्तों से 30 प्रतिशत कटौती का कांग्रेस समर्थन करती है।

सोनिया गांधी के पांच में से तीन सुझाव तो साधारण हैं-

1. केन्द्रीय बजट के खर्चों में 30 प्रतिशत कटौती की जाए।
2. राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-मंत्रियों के विदेशी दौरों पर रोक लगाई जाए।
3. नए संसद भवन के निर्माण का कार्य बीच में ही रोककर आगे के लिए स्थगित किया जाए।

शेष दो सुझावों में एक तो यह है कि प्रधानमंत्री स्थापित ‘पी.एम. केयर्स’ फण्ड की राशि ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ में स्थानान्तरित कर दी जाए। वहां पारदर्शिता अधिक होगी, कार्य की दक्षता और गुणवत्ता भी ज्यादा है।

इस सुझाव में तो कोई गंभीरता या विवेक, चिन्तन या दूरदर्शिता दिखाई नहीं देती। दोनों ही कोष प्रधानमंत्री के नियंत्रण में ही हैं। क्या एक में पारदर्शिता कम एवं दूसरे में अधिक संभव है? अथवा ‘प्रधानमंत्री केयर्स’ कोष के संचालन पर अंगुली उठाकर राजनीति की है? यदि ऐसा है तो पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है।

पांचवां सुझाव, जो पत्र में एक नम्बर पर दिया गया है, वह मीडिया से जुड़ा है।

‘सम्पूर्ण मीडिया (टी.वी., प्रिंट, ऑनलाइन) के सरकारी तथा राजकीय उपक्रमों के विज्ञापनों पर पूर्णरूपेण निषेधाज्ञा जारी करें-दो वर्ष की अवधि के लिए। केवल ‘कोविद-19’ अथवा स्वास्थ्य से जुड़े विज्ञापन पर छूट दी जा सकती है। मेरा मानना है कि सरकार 1250 करोड़ रुपए सालाना इन विज्ञापनों पर खर्च करती है। शायद इतना ही खर्च सार्वजनिक उपक्रमों के द्वारा जारी विज्ञापनों पर भी होता होगा। यह बहुत बड़ी राशि है, जो कोरोना के संघर्ष में प्रभावी तरीके से काम आ सकती है।

मुझे तो लगता है कि श्रीमती गांधी ने केन्द्र सरकार को मीडिया की निगरानी से बचाने की ठान ली है।

त्रेतायुग में धोबी ने जो टिप्पणी की थी-राम के व्यवहार के लिए, वैसी ही बिना विचारे यह टिप्पणी की है सोनिया गांधी ने। यह भी मानना कठिन है कि वे इटली जैसे विकसित देश की नागरिक रह चुकी हैं।

क्या कोई भी प्रधानमंत्री आज के हालात में देशवासियों से पूरी तरह कटकर रह सकता है? सच पूछें तो आज अफवाहों के बीच तो देश को विश्वसनीय मीडिया की ज्यादा जरूरत है। वैसे भी कांग्रेस की राज्य सरकारें मीडिया पर कितनी न्यौछावर हैं, यह देश के सामने है। क्या आप नहीं मानती कि मीडिया के बिना देश ठहर जाएगा। सूचनाओं के अभाव में कोरोना देश को लील जाएगा। सरकारी विज्ञापन तो आए दिन बंद होते ही रहते हैं। मीडिया इसका अभ्यस्त हो चुका है। नुकसान तो देशवासियों को होता है, क्योंकि सरकार की सूचनाएं उन तक नहीं पहुंच पातीं। मीडिया की सरकार और जनता के बीच सेतु की भूमिका खत्म हो जाती है।

भारत ही ऐसा देश है जहां अखबार कीमत (लागत के अनुपात में) से कम पर बिकता है। उसकी जीवन रेखा विज्ञापन ही है। इस संकट में सारे अखबार विज्ञापनों से शून्य होकर निकल रहे हैं। देश की सेवा में तन-मन से जुटे हुए हैं। हालात तो ऐसे बन ही चुके हैं कि अन्य उद्योगों की तरह मीडिया को भी बंद हो जाना चाहिए था। सरकारी धन बचना एक काल्पनिक बात ही है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, विज्ञापन तो लगभग बंद ही हैं। यह तो हमारा ही कोई संकल्प है, सोनिया जी! जो हम घर फंूककर अपनी भूमिका निभा रहे हैं। हम जनता हैं, जनता का अंग बनकर जनता की नाव में चल रहे हैं। जनता के साथ जीने-मरने का वादा है हमारा।

यदि आपकी सलाह मानकर सरकार विज्ञापन बंद कर दे, मीडिया बंद करा दे, तो लोकतंत्र का प्रहरी कहां बचेगा? आप चाहती हैं कि देश में विपक्ष तो पहले ही खत्म हो रहा है और अब मीडिया भी नहीं रहे? आपने कभी सोचा कि अगर मीडिया ही खत्म हो गया तो आपको (विपक्ष को) कौन कवर करेगा। सरकार की मनमर्जी को रोकने वाला भी नहीं रहे? आपका सपना क्या है?

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