जब भी सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की बात आती है, तब व्यवहार के कुछ न कुछ नियम बनाए जाते हैं। समय के साथ इन नियमों में इतना परिवर्तन आ जाता है कि सिद्धान्त दिखाई भी नहीं पडते। तब हम इनको रूढि मानने लग जाते हैं। व्यवहार में सिद्धान्त से ज्यादा रूढियों का महत्व अधिक होता है। इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण विवाह है। विवाह में कितनी तरह के रीति-रिवाज देखे जा सकते हैं। विश्व भर में, हर समाज में विवाह एक आवश्यक सामाजिक परम्परा है। हर देश और समाज में इसके विभिन्न रूप बन गए। विवाह की परम्पराओं का महत्व इतना अधिक हो गया कि व्यक्ति गौण हो गया। हर लडके-लडकी को यह मालूम है कि बडे होकर विवाह करना है। लडकी जानती है कि उसे लडके के साथ रहना है। यह सोच भी रूपान्तरित इतना हो गया कि विवाह का मूल भी भूल गए। सिद्धान्त पक्ष की चर्चा ही नहीं होती। मैंने अनेक लडकियों से यह प्रश्न किया है कि तुम विवाह की तैयारी तो कर रही हो, जानती भी हो कि विवाह करना भी है और लडके के साथ जाना है, पीहर छोडना है, अकेले जाना है, जो अब तक सीखा, उसमें से बहुत कुछ छोडना है, कुछ नया सीखकर जीना है, जीवन से समझौता भी करना है, पर यह सारा क्यों करना है क्या सोचकर तुम विवाह कर रही हो जीवन की कौनसी सार्थकता प्राप्त करना चाहती हो क्या परम्परा मानकर ही विवाह की तैयारी होती है। सब को करना पडता है, मुझे भी करना है। इस प्रश्न पर हर एक के चेहरे पर गंभीरता आते देखा। किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था।
दोनो तरफ से “अच्छा खानदान” देखा जाता है, किन्तु खानदान की परिभाषा आज केवल धन से आंकी जाती है। संस्कारों की मांग लुप्त हो गई। वैभव की चमक के आगे सब छोटा हो गया। विवाह को इतना नकारात्मक धरातल दे दिया कि व्यापारिक लेन-देन में बदलकर रह गया। जीवन की पवित्रता का स्वरूप ही खो गया। लडकों की बोलियां लगने लग गई जैसे बिकाऊ माल हो। उन्हें निर्जीव पदार्थ मान लिया गया। लडकी के गुण भी महžवहीन हो गए। यह भी कोई अर्थ नहीं रखता कि वह मां-बाप को छोडकर आएगी। तलाक हो गया तो उसे ही वापिस लौटना पडेगा। वही इस घर को स्वरूप देगी। संतान को भी संस्कारवान बनाएगी। लडके को पूर्णता देगी। लडका तो उसके बिना ही स्वयं को परिपूर्ण मानकर चलता है। समर्पण नहीं चाहिए उसे।
हम कुछ पीछे चलते हैं, जब समाज व्यवस्था ही नहीं थी। तब क्या संतान पैदा नहीं होती थी विवाह शब्द पैदा ही नहीं हुआ था। विवाह और सारे सामाजिक सम्बन्ध विकसित समाज व्यवस्था के साथ पैदा हुए। पहले केवल प्रकृति थी। नर था, नारी थी। इनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप थे। केवल प्रारब्ध को भोगकर चले जाते थे। अन्य पशुओं की तरह।
जीवन में जितने भी परिवर्तन दिखाई पडते हैं, उनका मूल कारण भाषा है। शब्दावली है। सारे जीवन व्यवहार भाषा पर टिके हैं। भाषा ने ही ज्ञान का स्वरूप धारण किया। पुराने ज्ञान के आधार पर नया ज्ञान विकसित होता गया। इसी के साथ समाज व्यवस्था बदलती चली गई। इसी व्यवस्था में से विवाह संस्था का जन्म हुआ। मानव मन की चंचलता और व्यवहार की स्वच्छंदता को मर्यादित करने का सूत्रपात हुआ। सृष्टि के नियमों को मानव जीवन में लागू करने के लिए अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हुए। फिर भी कोई समाज प्रारब्ध को रोक पाने में समर्थ नहीं हो सका। पिछले कर्मो के फल तो हर मानव को भोगने ही पडते हैं। विवाह संस्था में इसके परिणाम स्वरूप अनेक व्यवधान भी बने रहते हैं। मानव तो शरीर के स्वरूप का नाम है। जीव का कोई नाम-रूप नहीं होता। समाज के नियम-कायदों को वह आसानी से नहीं समझ सकता। उसे मानव बनाने की प्रक्रिया लम्बी भी है और जटिल भी। आज की विकसित समाज व्यवस्था में, विशेषकर विकसित देशों में तो यह प्रक्रिया ही लुप्त हो गई। उनकी जीवन शैली फिर से आदि मानव की तरह स्वच्छंद हो गई है। मानव देह रह गया, भीतर जीने वाला मानव नहीं बन पाता। इने-गिने दिखाई पडते हैं। निजी जीवन को यदि नजदीक से देखा जाए, तो स्पष्ट चित्र दिखाई दे जाएगा। विकास, सुविधाएं और समृद्धि तो है, किन्तु निजी जीवन में सभी त्रस्त हैं। मानवीय संवेदनाएं भोग तक आकर ठहर गई हैं। सभी एक दूसरे का उपभोग करना चाहते हैं। उसके बाद साथ रहने को भी तैयार नहीं। जिस तेजी से मिलते हैं, उसी तेजी से अलग भी हो जाते हैं। साथी बदलते जाते हैं। हर बार जीवन को नए सिरे से शुरू करते हैं और आधे रास्ते चलकर बिछुड जाते हैं। कहीं कोई दर्द नहीं होता। न किसी को संतानों की चिन्ता होती है। चिडिया के बच्चे के पंख आते ही उड जाता है। मां-बाप स्वतंत्र हो जाते हैं। वहां केवल भोग संस्कृति होती है। मानव सम्पूर्ण विकास के बाद फिर उधर ही अग्रसर हो रहा है। जब कि केवल मानव ही कर्म कर सकता है। अपना भाग्य बदलने की क्षमता रखता है। समृद्धि भाग्य या कर्म का लक्ष्य नहीं है। साधन मात्र है।
इस भोग संस्कृति को योग में बदलने और भविष्य निर्माण से जोडने के लिए केवल एक सूत्र चाहिए संकल्प। इस संकल्प का नाम ही विवाह पड गया। बिना संकल्प के विवाह का स्वरूप टिक ही नहीं सकता। संकल्प भी नर और नारी दोनों का। पूरक बनने के लिए हो, स्पर्द्धा करने के लिए नहीं। इस संकल्प के कारण ही नर-नारी में पति-पत्नी के भाव जाग्रत होते हैं। संकल्प टूटते ही फिर से नर और नारी बन जाते हैं।
बिना संस्कार के संकल्प करना भी संभव नहीं होता। संकल्प की दिशा तो संस्कार ही तय कर सकते हैं। मात्र संतान पैदा करने के लिए संकल्प की आवश्यकता नहीं होती। समय के साथ इन संस्कारों के क्षेत्रों का विकास भी हुआ। ज्ञान का, विज्ञान का विकास भी हुआ। संस्कारों की भी विस्तार से व्याख्याएं होने लगीं। संस्कार तो सदा ज्ञान के साथ रहे। शुद्ध विज्ञान, हर काल में, हर रूप में भौतिक विश्व का अंग ही रहा। ज्ञान और विज्ञान आज पूरक न होकर विरोधाभासी बन गए। ज्ञान भीतर चलता है, विज्ञान बाहर। सृष्टि के नियम दोनों पर एक जैसे लागू होते हैं। फिर भी इतना विरोधाभास आश्चर्यजनक ही है।
गुलाब कोठारी
May 5, 2009
विवाह-1
6 Comments »
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vivaha ka shehi matlab bathaya hai aaj ke manav ko eski bahut jarurat hai. thanks
Comment by ganesh marge — June 13, 2009 @ 7:00 |
आभार!
Comment by gulabkothari — June 16, 2009 @ 7:00 |
very inspiring as well as useful for new generation.
Comment by Sakshi goyal — May 10, 2009 @ 7:00 |
धन्यवाद
Comment by gulabkothari — May 19, 2009 @ 7:00 |
मैंने भी प्रयास किया है हिंदी मैं ब्लॉगबाजी का. कृपया नीचे लिखे लिंक पर क्लिक करें और अपने विचार बताएं…
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राहुल कात्यायन
Comment by Rahul Katyayan — May 7, 2009 @ 7:00 |
बाजी में हार-जीत होती है। द्वैत के बाहर जीओ।
Comment by gulabkothari — May 19, 2009 @ 7:00 |