भगवान गणपति की स्तुति में ऋग्वेद में दो मंत्र (ऋचाएं) महत्वपूर्ण हैं। उनकी विवेचना से यह समझ में आ जाता है कि जीवन में गणपति का महत्व क्यों है। हो सकता है कुछ लोगों का मत भिन्न हो, किन्तु गणपति प्राण की भू-पिण्ड पर भूमिका को देखते हुए यह सही लग रहा है। गणेश प्राण परमेष्ठी, सूर्य और चन्द्र लोक में रूपान्तरित होता हुआ यहां पहुंचता है। अमृत लोक से चलकर मत्र्य प्राणों के साथ कार्य करता है और जीवन का प्राण द्वार भी है। नाद से होने वाली सृष्टि का प्रथम वायु अवतार भी है। यही यजु: प्राण है। अत: इसके बिना कोई क्रिया ही संभव नहीं है।
जगृंभा तो दक्षिणमिन्द्र हस्तं
वसूयवो वसुपते वसूनाम्।
विkा हित्वा गोपतिं शूरगोना
मस्म˜यं चित्रं वृषणं रयि दा:।।
ऋग् 10/47/1
हे इन्द्र! हमने आपका दाहिना हाथ पकड़ा है। धन की आशा रखते हैं। आपको हम गायों का स्वामी जानते हैं। आप हमें बढ़ती हुई सम्पदा दीजिये।
दाहिना : अर्द्धनारीश्वर में पुरूष का।
अगिA : विकास एवं विस्तार सूचक।
धन : गौ।
गायें : विद्युत : गोलोक, विष्णु लोक, लक्ष्मी लोक ही सम्पदा लोक है। इन्द्र नाम सूर्य का है। देवराज। वही परमेष्ठी लोक से सम्पर्क में है। परमेष्ठी के सोम से ही उसकी अगिA प्रज्वलित रहती है। वह आहुत सोम पदार्थ (वाक्) रूप में पृथ्वी तक पहुंचता है। हमारी पहुंच इन्द्र तक ही होती है। क्योंकि वही हमारा पिता है। आगे का सारा क्रम इन्द्र के ही हाथ में रहता है। हमारे ह्वदय से निकला हुआ इन्द्र (आगAप्राण) तैंतीस स्तोम (परमेष्ठी लोक) तक जाता है। सूर्य की स्थिति इक्कीसवें स्तोम पर है। पृथ्वी से सूर्य तक का क्षेत्र अगिA प्रधान है। इसमें भूमण्डल के पास आठ वसु (अगिA घन), अन्तरिक्ष में ग्यारह रूद्र (तरल अगिA) तथा सूर्य के चारों ओर विरल अगिA (आदित्य) के बारह स्तोम होते हैं। इस स्थान तक आते-आते पृथ्वी की अगिA विरल भाव में आ जाती है। आगे सारा क्षेत्र सोम का है।
इन्द्र प्राण 33 वें स्तोम तक शुद्ध सोम में रूपान्तरित हो जाता है। यही विष्णु प्राण बनकर, अन्न रूप में ब्रह्मा प्राण (केन्द्र प्रतिष्ठा) तक लौटता है। प्रार्थना का इशारा है कि ए इन्द्र तुम भरपूर अन्न (भोग्य पदार्थ) लेकर आओ। तुम्हीं हमारे देव हो। गाएं यानी विद्युत रूप धन, जो गोलोक की सम्पदा है, वह हमें उपलब्ध कराएं। विष्णु लोक ही गोलोक का पर्यायवाची है। प्रार्थना में गणपति को भी विष्णु-इन्द्र रूप माना जा रहा है।
निषुसीद गणपते गणेषु
त्वामाहुर्वि प्रतमं कवीनाम्।
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे
महामर्क मघवन चित्रम च।।
ऋग.10/112/9
आप अपने समूह में विराजें। कवि आपको अग्रगण्य (आहु:) कहते हैं। नाना प्रकार के दिव्य प्रकाश (ज्ञान) को प्रकाशित कीजिए। आपके बिना कोई भी काम, कहीं भी नहीं किया जाता है।
गणपति को गणों का ईश कहते हैं। गणेश की मारूत संज्ञा है। इनकी संख्या 49 है। गणेश प्रथम मारूत हैं और हनुमान 49 वें मारूत हैं। प्रथम यानी अग्र गण्य। इनका स्थान क्षीर सागर (परमेष्ठी लोक) के उस छोर पर माना गया है-तीरं क्षीर पयोधि… इसका अर्थ समझने के लिए स्वयं भू लोक पर दृष्टि डालनी चाहिए जहां आकाश तो है, किन्तु वायु नहीं है। सप्त ऋषि प्राण हैं और उनका स्पन्दन मात्र गति है।
परमेषी और स्वयं भू के मध्य तप: लोक है। अन्तरिक्ष है। यहां पवन का स्वरूप बनने लगता है। ऋषि प्राण यहां पितृ प्राण का रूप लेता हुआ परमेष्ठी लोक में प्रवेश करता है। इसी संधि स्थल को गणपति की प्रतिष्ठा कहा गया है।
सप्तऋषि ज्ञान स्वरूप तो हैं, किन्तु गणपति प्राण के बिना गतिमान नहीं हो पाते। ऋषि प्राण ही परमेष्ठी में पितृ प्राण बनते हैं। बिना गणपति के पितृ सृष्टि आगे बढ़ ही नहीं सकती। यही सृष्टि का विघA है। गणपति प्राण की सहायता से ऋषि प्राणों का ज्ञान आगे प्रवाहित हो पाता है। इसी से परमेष्ठी लोक आनन्द और विज्ञान के सहारे प्रथम अव्यय की सृष्टि करता है। विष्णु लोक में ब्रह्मा की उत्पत्ति (नाभि कमल से) इसी का संकेत कर रहे हैं। विज्ञान ही ज्ञान का भाव है। ज्ञान ही आत्मा का, ईश्वर का स्वरूप है। अत: कोई भी सृष्टिगत यज्ञ बिना गणपति प्राण के पूर्ण नहीं होता। ऋग्वेद इसी का संकेत कर रहा है।
गुलाब कोठारी