Gulabkothari's Blog

May 25, 2015

एक म्यान : दो तलवार

दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच जो प्रशासनिक टकराव हुआ है उसमें भारतीय संविधान और संस्कृति दोनों का ही अपमान हुआ है। एक ओर जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है, वहीं दूसरी ओर छिछली और संकुचित राजनीतिक मानसिकता। जो आम आदमी की समझ के बाहर है, वह यह कि राष्ट्रपति और केन्द्रीय सरकारों ने आज एक म्यान में दो तलवारें कैसे डाल रखी हैं और क्यों? जब देश के सभी केन्द्र शासित प्रदेशों में अनुच्छेद 239 और 239 (2 ) लागू हैं तब दिल्ली के लिए अनुच्छेद 239 A (A) जोड़ने की क्या जरूरत थी? नेशनल टेरेटरी ऑफ दिल्ली को यदि यही रूप देना था, तब दिल्ली में विधानसभा के गठन की क्या आवश्यकता थी? क्यों अन्य राज्यों की तरह मुख्यमंत्री का पद स्थापित किया? यदि यह भी करना था, तब अन्य राज्यों की तर्ज पर यहां भी उपराज्यपाल के स्थान पर राज्यपाल को ही नियुक्त करने का संशोधन भी करना चाहिए था।

गोवा और पुडुचेरी भी पहले केन्द्र शासित क्षेत्र थे। उन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा देते वक्त जो व्यवस्था की गई वही दिल्ली में की जानी चाहिए थी। आज जब दिल्ली के उपराज्यपाल संवैधानिक अधिकारों के हवाले से आदेश जारी करते हैं और केन्द्र सरकार भी उसी नियम की दुहाई देकर समर्थन करती है, तब दोनों ही का व्यवहार बचकाना लगता है। उनको देश का सम्मान, विशेष रूप से दिल्ली के मतदाता का, अपनी क्षुद्र राजनीति के आगे छोटा लगता है।

जनता के साथ यह कितना बड़ा मजाक है। बाईस साल पहले जब दिल्ली में फिर से विधानसभा बनाने और चुनाव कराने का कानून बना, उसी दिन उपराज्यपाल के पद के बारे में निर्णय क्यों नहीं हुआ? चुने हुए मुख्यमंत्री के आगे एक मनोनीत पद? वाह रे राजनीति। कहते हैं कि केन्द्र सरकार के पास कोई विकल्प ही नहीं था। नई दिल्ली का एक क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी का होने से मुख्यमंत्री के अधीन नहीं छोड़ा जा सकता। तब या तो स्वतंत्र मुख्यमंत्री बनाना ही नहीं था। अन्य केन्द्र शासित प्रदेशों की तरह यहां भी वैसी ही व्यवस्था बनी रहती।

दूसरा विकल्प है कि नई दिल्ली के लुटियंस क्षेत्र को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक सीमित कर दें। शेष दिल्ली को पूर्ण प्रदेश का दर्जा दे दिया जाए। यहां स्वतंत्र राज्यपाल नियुक्त कर सकते हैं। जंग सा. नए क्षेत्र के उपराज्यपाल बने रह सकते हैं। यदि यह विकल्प स्वीकार नहीं, तो फिर दिल्ली में वर्ष 1993 से पहले की जैसे विधानसभा के चुनाव महानगर परिषद जैसे ही हों, ताकि मुख्यमंत्री पद का तथा जनता का अपमान न हो पाए। आज तो उपराज्यपाल जंग की जंग केजरीवाल से नहीं, बल्कि दिल्ली की जनता के साथ दिखाई पड़ती है। उनको अपने अधिकार दिल्ली की जनता के निर्णय से भी अधिक ताकतवर नजर आते हैं। यह सत्ता का ही अहंकार है। इसमें संवेदना नहीं है। दिल्ली में उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के विवाद पहले भी होते रहे हैं। फिर चाहे वह मदन लाल खुराना हों या शीला दीक्षित। मुद्दा चाहे पुलिस का कन्ट्रोल हो या राष्ट्रमण्डल खेल। कई सामने आ जाते हैं। कई दबे रह जाते हैं। इस बार जंग के तेवर तो ऎसे लग रहे हैं मानो छात्र संघ अध्यक्ष से व्यवहार कर रहे हैं। कानून, व्यवहार, शालीनता, बड़प्पन सब अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। जहां समझ की कमी होती है, अथवा क्षुद्र स्वार्थ टकराते हैं, वहां कानून का डण्डा ही राष्ट्रहित बन जाता है। अब तो फैसला राष्ट्रपति के हाथ में ही दिखाई देता है।

लगभग सभी राजनीतिक दल तो इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए। फिर इस बात को कानूनी जामा पहनाने में कहां दिक्कत आ रही है। इस बारे में अपने विचार और सुझाव केन्द्रीय मंत्रिमण्डल को पहुंचा देना समय की मांग है। केन्द्र को भी यह रूख तो अभी नहीं लेना चाहिए कि कानून का डंडा हर प्रश्न का उत्तर दे सकता है। देश में अनेको कानून राजनीतिक गलियारों में ठोकरें खा रहे हैं। प्रभावशाली लोग सरेराह कानूनों की फुटबाल खेलते हैं। सच पूछा जाए तो इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि वह कौन सा संवैधानिक कारण था जिसको केन्द्र में रखकर जंग को जंग छेड़नी पड़ी या फिर वह पद का अहंकार ही था। पर क्या बिना गृह मंत्रालय के आश्रय के वह इतना बड़ा जुआ खेल सकते थे। यही वो प्रश्न है जिसका उत्तर पाने के लिए जनता राष्ट्रपति की ओर देख रही है क्योंकि अभी तक भी राष्ट्रपति इस प्रकरण पर मौन हैं। और जंग उनके प्रशासन का अंग है। महामहिम से आशा करनी चाहिए कि वे किसी एक तलवार को बाहर निकालने का मार्ग प्रशस्त करेंगे।

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