Gulabkothari's Blog

December 17, 2019

साहसिक निर्णय

वैसे तो राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तीनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकारों ने पिछले वर्ष एक ही दिन शपथ ग्रहण की थी लेकिन कुण्डलियां सबकी भिन्न-भिन्न बनीं। लोकतंत्र जन आधारित शासन व्यवस्था है। अत: शासन से यह अपेक्षा रहती है कि वह देश के विकास के साथ-साथ जन समस्याओं का निवारण करता जाएगा। किसी सरकार से यदि जनता को वांछित लाभ नहीं मिल पाए तो वह अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए शासन में बदलाव लाने का प्रयास करती रही है। जनता यह मानकर चलती है कि यदि वह सरकार को बदल देती है तो वह नई सरकार के अपकृत्यों से जुड़े लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। मीडिया पिछली सरकार के सभी घोटालों एवं कारनामों को पूरे कार्यकाल में उठाता रहता है। अत: परिणाम केवल नई सरकार की इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करते हैं। पिछले कुछ सालों में यह देखा जा रहा है कि कोई भी सरकार पिछली सरकार के अपराधों-भ्रष्टाचारों की फाइलें नहीं खोलती हैं। इसका अर्थ है कि दल चाहे कोई भी हो, भीतर सब एक ही दल-दल में फंसे हुए हैं। तब सत्ताधारियों से कुछ आशा करना व्यर्थ होगा। उनको धिक्कारना भी व्यर्थ होगा क्योंकि वे तो नगाड़े बन चुके हैं। कितना भी मारो, उनका अपना ही संगीत सुनाई देता है। यदि पिछले दस वर्षों के पत्रिका के अंक भी निकालकर देखे जाएं तो कम से कम राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के इतने आपराधिक मामले प्रकाशित हुए हैं जिनमें सरकार के या लोकतंत्र के तीनों पायों के मुखौटे वर्णित हैं। ऐसे कुकृत्यों में सबसे बड़ी शर्म की बात तो यह रही है कि लिप्त व्यक्तियों में नेता और अधिकारी अधिक जान पड़ते हैं। और ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों पर कभी आंच नहीं आती। कई ऐसे मुद्दे भी सामने आए थे जिनमें बड़ी-बड़ी जांचें बिठाई गईं, न्यायिक जांचें भी बिठाई गईं किन्तु परिणाम नदारद रहे। उन मामलों में लिप्त बड़े-बड़े लोगों के नाम चर्चाओं में भी चलते रहे किन्तु बाद में दफन हो गए।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पिछले एक वर्ष में हर घर को सस्ती बिजली, किसानों की कर्जमाफी, और शुद्ध के लिए युद्ध के साथ औद्योगिक विकास के वादों पर तो काम किया ही, लेकिन उन्होंने एक साहस पूर्ण कदम उठाया है प्रदेश को माफिया मुक्त बनाने का। भू-माफिया के साथ, रेत माफिया, कोल माफिया, खनन माफिया और ड्रग माफिया के खिलाफ राज्य में जोर शोर से अभियान चल रहा है। कमलनाथ ने इंदौर से शुरू करके जबलपुर, ग्वालियर और भोपाल के माफिया जगत पर बड़ा प्रहार किया है। इंदौर के जीतू सोनी, अकेले का कद पहली बार लोगों की समझ में आया। हनीटै्रप में बीस से अधिक प्रभावी राजनेता और इतने ही वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के नाम सामने आए हैं। सुना है कि इनमें से कुछ के तो वीडियो भी वायरल होने लग गए। अकेले इंदौर में सोनी जैसे आधा दर्जन बड़े माफिया हैं। शेष शहर भी कमोबेश इसी प्रकार त्रस्त है। जनता कौतुहल भरी आंखों से सरकार की ओर देख रही है। कमलनाथ के लिए इन सारे नामों को सार्वजनिक करके सजा दिलवाने का प्रयास बड़ी इच्छाशक्ति की अपेक्षा रखता है। क्योंकि पहले भी भोपाल में शहला मसूद काण्ड जैसे सारे मामले दब चुके हैं।

इसमें दो राय नहीं कि राजस्थान में भी किसानों की कर्ज माफी, बेरोजगारी भत्ता, गरीब सवर्णों के आरक्षण में अचल संपत्ति का प्रावधान खत्म करने, नि:शुल्क दवा योजना का दायरा बढ़ाने व मोहल्ला क्लीनिक जैसे जनकल्याण के काम पिछले साल भर में शुरू हुए हैं। ये सब रफ्तार पकड़ेंगे तब जाकर नतीजे सामने आएंगे। अलबत्ता, पिछली भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार व गड़बडिय़ों को लेकर विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस जो आरोप लगाती थी उनको लेकर सरकार अब तक कोई ठोस खुलासा या कार्रवाई नहीं कर पाई है। भ्रष्ट तंत्र और माफिया पर मध्यप्रदेश की तरह ही शिकंजा कसने की जरूरत है। वैसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में जब से कांग्रेस पार्टी के जनघोषणा पत्र को नीतिगत दस्तावेज बनाने का फैसला किया है, तब से लोगों की उम्मीदें बढ़ीं हैं। राजस्थान की जनता इस फैसले को जल्दी से जल्दी परवान चढ़ता देखना चाहती है।

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि में किसानों का कर्ज माफ करना और 400 यूनिट तक के बिजली बिल को आधा करना शामिल है। प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने वाली नरवा, गरवा, घुरवा और बाड़ी योजनाओं की तारीफ नीति आयोग तक ने की है।

लेकिन जरूरत इनके क्रियान्वयन पर नजर रखने की है। पिछली भाजपा सरकार के कार्यकाल की जांच हुई तो कई विभागों में बड़े भ्रष्टाचार की पोल भी खुली, मामले तक दर्ज हुए। छत्तीसगढ़ की नौकरशाही में भय तब ही पैदा होगा जब जिम्मेदारों को जेल भेजा जाएगा। हां, माओवाद पर नकेल कसने की बघेल सरकार के सम्मुख बड़ी चुनौती है। क्योंकि पहले और आज के हालात में कोई ज्यादा अंतर नहीं है।

प्रश्न लोकतंत्र की सार्थकता का है। जहां रक्षक ही भक्षक बन गए। उनके चंगुल से जनता को मुक्त कराने का प्रश्न है। राजनीति की चौसर पर कुछ नामों को लेकर केन्द्र से टकराव भी हो सकता है। किन्तु कमलनाथ जितने आगे बढ़ चुके हैं उन्हें अन्तिम परिणाम तक अपने निर्णय पर डटे रहना चाहिए। भावी परिणाम इसका उत्तर स्वयं दे देंगे। केन्द्र की एक कार्रवाई तो वे चुनाव पूर्व देख चुके हैं। जिस तरह से केन्द्र मध्यप्रदेश पर आंखें लगाए बैठा है तब 1984 के दंगों की फाइल भी खुल सकती है। चर्चा तो हवा में है ही। सावधानी इतनी ही रहनी चाहिए कि, निर्णय राजनीति से ऊपर उठकर होने चाहिएं। वैसे तो अपराधी का न दल होता है, न धर्म।

हर प्रदेश के हर मुख्यमंत्री को चाहे वह किसी भी दल का क्यों न हो, समाज के ऐसे नासूर का इलाज करना ही चाहिए। नहीं तो यह संदेश स्पष्ट ही है कि, उनकी सरकारें भी उस भ्रष्टाचार से निकलने को राजी नहीं हैं। तब जनता के पास विकल्प क्या है? कितने प्रभावी लोगों के खिलाफ मुकदमे न्यायालयों में वर्षों से लम्बित हैं। यदि चुनाव से जुड़े मुकदमे भी पांच साल में तय नहीं होते तब बाकी मुद्दों की तो बात ही क्या करें? जिन मामलों में मध्यप्रदेश सरकार ने कार्रवाई की है, उनके पीछे भी कहीं ना कहीं बड़े राजनेता रहे हैं। किन्तु ‘बिल्ली के गले में घंटी’ कौन बांधे? मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जो नजीर सामने रखी है, उसी तरह की कार्रवाईयों के लिए हर प्रदेश की जनता अपने-अपने मुख्यमंत्रियों पर दबाव डाले और उस शुभ दिन का इंतजार करे जब उनके यहां भी ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ की गूंज सुनाई पडऩे लगे।

November 24, 2019

समय बड़ा बलवान

राजनीति स्पर्धा नहीं युद्ध बन गई। हमें श्रेष्ठ प्रमाणित करने की आवश्यकता भी नहीं रही। हमारा मोल ही हमारी श्रेष्ठता का आधार है। जड़ के बदले में अपनी चेतना को बेचना, राजनीति के बाजार में, अब कोई आश्चर्य की बात नहीं रही। हालांकि, महाराष्ट्र की राजनीति में जो कुछ घटित हुआ, उसे सुनकर पूरा देश चौंक गया। हवा में एक ही नाम तैर रहा है-अमित शाह। शतरंज में ढाई घर चलने वाले घोड़े ही प्रमाणित हुए।

शुक्रवार शाम को ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने घोषणा की थी कि गठबन्धन सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे होंगे और सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। सूर्योदय ने घोषणा कर दी कि राज्यपाल ने भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। यहां तक भी कोई आश्चर्य नहीं। आश्चर्य भाग दो में है। अजित पवार ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इनके चाचा और एन.सी.पी के अध्यक्ष शरद पवार ने ही तो शाम को गठबन्धन सरकार की घोषणा की थी। क्या अजित पवार चाचा शरद जी को इतने ही प्यारे थे? क्या इस निर्णय से शरद पवार और राष्ट्रवादी कांग्रेस की छवि धूमिल नहीं होगी? क्या कारण रहे होंगे इतने बड़े खतरे को मोल लेने के पीछे?

इतिहास साक्षी है कि सन् 2009 के चुनावों में भी शरद पवार को कांग्रेस के बाद अधिक सीटें मिली थीं, वे चाहते तो मुख्यमंत्री बन सकते थे किन्तु अपनी घोषणा के अनुरूप अजित पवार को ही बनाना पड़ता। किन्तु वे महाराष्ट्र की राजनीति में नहीं आना चाहते थे। और उन्होंने अजित को भी मुख्यमंत्री नहीं बनाया। समर्थन दिया कांग्रेस के अशोक चव्हाण को। क्यों आज उन्हीं अजित पवार को उपमुख्यमंत्री बनवाकर पार्टी की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया। भले संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने इससे इंकार किया हो। क्या पार्टी के भविष्य की किसी को चिन्ता नहीं?

शरद पवार स्वयं जीवन के अन्तिम पड़ाव से गुजर रहे जान पड़ते हैं। क्या वे पार्टी को अजित के भरोसे छोडऩा चाहेंगे, जिनको अवसर मिलने के बाद भी मुख्यमंत्री नहीं बनाया था। चुनाव पूर्व इन पर इडी ने मुकदमे भी दर्ज किये थे। उसका ही परिणाम भी माना जा रहा है इस ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ को। अब छवि बिगड़ेगी तो भविष्य में प्रभाव भी घटेगा। ऐसे में शरद जी की पुत्री सुप्रिया को उनके भविष्य के प्रति आश्वस्त करना आवश्यक है। यह सुरक्षा शिवसेना के साथ कतई संभव नहीं है। भाजपा के साथ है, यदि आने वाले समय में पूरी राष्ट्रवादी कांग्रेस ही भाजपा में शामिल हो जाए।

आज की स्थिति में मराठा बराबर की दो फाड़ हो गया। शिवसेना के पास 56 सीटें हैं, तो एन.सी.पी. के पास 54। यही शिवसेना की पराजय का मुख्य कारण भी कहा जा सकता है। शिवसेना की छवि से जुडऩे को कांग्रेस भी राजी नहीं होने वाली। अगले चुनावों में वर्तमान सौदेबाजी का प्रभाव यहां भी एन.सी.पी. की तरह दिखाई पड़ेगा। वही भावी महाराष्ट्र की तस्वीर होगी। आज उसकी नींव अमित शाह की दूरदर्शिता ने रख दी है। महाराष्ट्र सरकार का नया रूप सामने आएगा। इसमें विसर्जन होता दिखाई पड़ रहा है अजित पवार का। इसमें छवि धूमिल होगी, महामहिम राज्यपाल की। वे किस आधार पर आश्वस्त हो गए कि फडणवीस के पास बहुमत है। यदि वे सही हैं तो शरद पवार का प्रेस वार्ता में दिया गया बयान कितना अर्थपूर्ण रह जाएगा? क्या शरद और अजीत दो धड़े माने जाएंगे? तब फिर प्रश्न यही होगा कि महामहिम को क्या हर हाल में राष्ट्रपति शासन हटाना ही था? क्या शरद पवार पार्टी को भी समेट देना चाहते हैं। अजीत के सहयोग से फडणवीस यदि सदन में बहुमत सिद्ध कर देते हैं तो शरद जी के नेतृत्व का धुआं नहीं निकल जाएगा। किसी शायर ने कहा है-

‘हल्की-हल्की बढ़ रही हैं चेहरे की लकीरें।
नादानी और तजुर्बे का बंटवारा हो रहा है॥’

November 5, 2019

विज्ञान का ताण्डव

जीवन की अजीब विसंगति तो देखिए! एक ओर स्वास्थ्य सेवाओं के जरिए व्यक्ति की औसत आयु बढ़ाने के प्रयासों ने आयु को 25-30 साल तक बढ़ा दिया। दूसरी ओर यही कारण जनसंख्या वृद्धि का हेतु बन गया। परिवार नियोजन का नया नारा चल पड़ा। अब परिवार नियोजन की दवाओं के भी भयंकर परिणाम सामने आने लगे हैं। रविवार को केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेन्द्र तोमर ने कलोल (गुजरात) में कहा कि कृषि उत्पादन भी बढ़ाना है, लागत भी घटानी है और सन् 2022 तक किसानों की आय भी दुगुनी करनी है। इफको के संयंत्र में नैनो प्रौद्योगिकी से तैयार किए गए नैनो नाइट्रोजन, जिंक, कॉपर का क्षेत्र परीक्षण आरंभ किया गया। इफको का दावा है कि इन उर्वरकों के उपयोग से किसानों की लागत लगभग 50 प्रतिशत कम हो जाएगी तथा पैदावार में 15 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकेगी। स्वागत है!

देश गरीब है। आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। अभी तक के प्रयासों का भी आकलन कर लेना गलत नहीं होगा। आज दिल्ली में पराली का धुंआ अंधकार की ओर जा रहा है। क्या हजारों साल से जो धुंआ रसोई से उठता आ रहा है, उसके परिणाम ऐसे ही थे? कितनी महिलाओं का दम घुटा होगा। निश्चित ही यहां धुंआ विषाक्त है। पचास वर्ष पूर्व पराली जलाने से वहां के गांव वाले भी दु:खी नहीं होते थे। तब विकास नहीं था। आज का धुंआ विकास का धुंआ है। उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों का धुंआ है। वैसे धुंआ तो आग लगने की घटना का अन्तिम पड़ाव है। वही इतना खतरनाक साबित हो रहा है। किसी ने यह जानने का प्रयास भी किया कि इस आग में जला कौन? पराली? नहीं! इस आग में जलकर राख हुई, धुंआ-धुंआ हुई, किसान की जिन्दगी। किसान, किसान का परिवार तथा किसान की भावी पीढिय़ां।

कल ही खबर थी कि राजस्थान में कैंसर के मरीज दो गुना हो गए। यह खबर आ चुकी है कि बीकानेर आती कैंसर मरीजों की ‘कैंसर ट्रेन’ अपर्याप्त है। शीघ्र ही एक और ट्रेन अहमदाबाद के लिए शुरू होगी। यह ट्रेन भी पराली जलाने वाले किसानों से ही लदी होगी। कोई मानवीय-संवेदना से भरा व्यक्ति देख सकता है कि कौनसा जहर जला रहा है पंजाब-हरियाणा को और बढ़ रहा है शेष भारत में? जिसका धुंआ आक्रामक हो रहा है देश की राजधानी पर। इसके चलते किसी अन्य शत्रु की आवश्यकता ही क्या है?

असाध्य रोगों के दो ही कारण होते हैं। एक विषैला अन्न और विषैले विचार। वैसे तो विचार भी अन्न पर ही निर्भर है। जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। अन्न को ब्रह्म कहा जाता है। विषहीन अन्न लुप्त प्राय: हो चुका है। विकास के दो बड़े यमदूत-रासायनिक खाद और प्रभावी कीटनाशक-हर रोज दरवाजे पर दस्तक देते दिखाई पड़ रहे हैं। यही वह क्षेत्र है जहां से नहरी सिंचाई, बांध परियोजनाएं और विकसित खेती की मशाल आगे बढ़ी थी। आज इसी क्षेत्र से कैंसर का प्रकाश फैल रहा है। जिस खेत की पराली के धुंए से सैकड़ों मील दूर का व्यक्ति आंखों में जलन महसूस कर रहा है तब क्या उस खेत की फसल रासायनिक बम का आत्मघाती स्वरूप नहीं है? ऐसे खेत का अन्न रेलवे, कैंसर अस्पतालों के लिए वरदान हो सकता है। सम्पूर्ण विश्व में हो रहा है। दो पीढ़ी बाद कौन घर बचेगा, इस रोग से? कहां-कहां ट्रेनें जाएंगी, कहां-कहां अस्पताल खोलेंगे?

यही अन्न भ्रष्टाचार बनकर देश की संवेदना, मानवता और नैतिकता को भी लील रहा है। जो खाएगा, पछताएगा। अगली पीढ़ी को भी समेट देगा। लक्ष्मी जैसे आती है, वैसी ही जाती भी। यह धन भी कैंसर अस्पतालों की ही भेंट चढ़ेगा। इस अन्न के रहते न विचार शुद्ध हो सकते हैं, न ही भाव शुद्ध होंगे। विचार भी एक-दूसरे का अन्न होते हैं और भाव भी अन्न रूप होते हैं। मन-बुद्धि-आत्मा के अन्न भिन्न-भिन्न होते हैं। सीधे भीतर पहुंच जाते हैं। अन्त:स्रावी ग्रन्थियों (एंडोक्राइन ग्लैंड्स) पर आक्रमण कर देते हैं। हमें तो पता भी नहीं चलता।

आज विकास के जिस दौर से हम (विश्व) गुजर रहे हैं, वहां किसी युद्ध विराम को सफलता नहीं मिलेगी। न कोई मानवता के इस ह्रास को रोक पाएगा। धन भी मिट्टी दिखाई दे जाएगा। विष और संहार के एक ही देव हैं-शिव। आने वाला काल इनके ताण्डव का साक्षी होगा।

September 8, 2019

हांगकांग का संकट

सरकारें चाहे लोकतंत्र की हो अथवा राजतंत्र की, जनता से बड़ी नहीं हो सकतीं। आज सरकारें अपनी-अपनी हुकुमतों को कानूनी जामा पहनाकर स्थायी रूप देने का प्रयास कर रही हैं। कुछ वर्षों बाद यह भ्रम भी दूर हो जाता है। जनता ही जनार्दन है। सत्ता का अंहकार ही भ्रम दूर करने का माध्यम बनता है। क्योंकि जनता एक मर्यादित पद्धति के साथ जीती है। सत्ता मर्यादाओं को तोड़कर तनाव पैदा करती है। जनता सहन करना जानती है, सत्ता में धैर्य और सहनशीलता होती ही नहीं। समुद्र में जब आग लगती है तब कोई जल उसे नहीं बुझा पाता।

यदि ऐसा हो पाता तो रोमानिया के निकोलाई, इराक के सद्दाम हुसैन, लिबिया के कर्नल गद्दाफी और यूगांडा के इदी अमीन की कुर्सी नहीं जाती। एक बार चुन लिया जाना भी कार्यकाल पूरा करने की गारंटी नहीं है। ब्रिटेन का उदाहरण है जहां ब्रेग्जिट पर टेरीजा कों कुर्सी छोडऩी पड़ी और बोरिस जानसन की कुर्सी भी अधर झूल में हैं। जनता का मानस जब बदल जाए वह तख्ता पलट देती है। और अच्छा काम करों तो वह देश की राजधानी तक का नाम नेता के नाम पर बदल देती है। जैसा कजाकिस्तान में नूर सुल्तान।

राजस्थान भी गवाह है-जब वसुन्धरा सरकार ‘काला कानून’ लेकर आई, तब जनता का प्रतिरोध चरम पर पहुंच गया। सत्ता का नशा चूर-चूर हो गया। आज का जागरूक नागरिक अपनी आजादी नहीं खोना चाहता। अधिकारों के लिए लडऩे का जज्बा सबको एक कर देता है। इसका ताजा और बड़ा उदाहरण हांगकांग का आन्दोलन है। वहां के चीन समर्थक मुख्य कार्यकारी अधिकारी कैरीलेम ने अप्रेल 2019 में ‘प्रत्यर्पण बिल’ पेश किया। इस बिल के तहत किसी भी आपराधिक मामले की जांच के लिए अभियुक्तों को चीन को सौंपने का प्रावधान था। इसके विरोध में जन आन्दोलन शुरू हो गया। हांलाकि शुरुआती विरोध के बाद कैरीलेम ने इस बिल पर रोक लगा दी थी, किन्तु जनता इसकी पूरी वापसी मांग रही थी। उसको डर था कि यदि बिल कानून बन गया तो चीन की सरकार इसे अपने विरोधियों के खिलाफ उपयोग में लेगी। यह काला कानून बन जाएगा।

हांगकांग की स्थिति कुछ भिन्न सी है। कभी यह चीन का अंग था। सन् 1840 के अफीम युद्ध में चीन की हार के बाद यह इंग्लैण्ड के कब्जे में चला गया था। सन् 1898 में हुए समझौते के आधार पर सन् 1997 में इंग्लैण्ड ने कुछ शर्तों के साथ वापिस चीन को सौंप दिया। इनमें अगले 50 वर्षों तक विदेश और रक्षा मामलों के अलावा हांगकांग को पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक स्वतत्रंता दी गई थी। इस कारण वहां अपनी कानून व्यवस्था, प्रशासनिक क्षेत्र, राजनीतिक दल तथा बोलने की आजादी उपलब्ध थी। इस बीच चीन में राष्ट्रपति का कार्यकाल जीवन भर रहने का कानून बन गया। वैसे भी जनता के प्रति संवेदनहीनता की छवि तो चीन के सत्ताधीशों की विश्व में बनी हुई ही है। तब आशंकाएं प्रबल क्योंं न हो। वैसे भी चीन ने आन्दोलन को दबाने के प्रयास कम नहीं किए। सेना भेजना, सीधा सख्ती से निपटना, लाठियां, आंसू गैस, रबर की गोलियां, रंगीन पानी से पहचान कर पिटाई आदि कई रास्ते अपनाएं, लेकिन आन्दोलनकारी झुके नहीं। साथ ही पूरा आन्दोलन अनुशासनात्मक स्वरूप लिए था। कहीं आगजनी और तोडफ़ोड़ का नजारा नहीं था। कार्य का पूरा टाईम-टेबल उपलब्ध था। कहां-कहां आन्दोलन होगा, उसके स्थान निर्धारित थे। विशेष रूप से पुलिस मुख्यालय, हवाई अड्डा, संसद भवन और कैरीलेम का निवास घेरे गए। जो लोग आन्दोलन से दूर रहना चाहते हैं, वे अपना कार्य करते रहें अथवा दूर से देखते रहे। पुलिस उन्हें कुछ नहीं कहेगी।

अधिकारों की रक्षा के लिए इस क्षेत्र का अपना संविधान भी है। इस ‘बेसिक लॉ’ के तहत सार्वभौमिक मताधिकार के साथ लोकतांत्रिक ढंग से मुख्य कार्यकारी का चुनाव होता है। 1200 सदस्यों की समिति में अभी चीनी समर्थक अधिक हैं। मूल में यही आन्दोलन का लक्ष्य है। सन् 2014 में भी अपने नेता को चुनने की आजादी का आन्दोलन चलाया गया था। चीन तैयार नहीं हुआ तथा कुछ मुद्दों पर समझौता होकर रह गया था। इसीलिए आज विश्वास का बड़ा संकट है।

दूसरी और चीन आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। अमरीकी चेतावनी और आयात शुल्क की बढ़ोतरी ने ट्रेड वार का दृश्य उपस्थित कर दिया हैं। आन्दोलन और आन्दोलनकारियों के साथ हो रही सख्ती ने भी हांगकांग में नकारात्मक वातावरण बना दिया है। विशेष रूप से खुदरा व्यापार पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। पर्यटकों की संख्या घट गई है। ज्वैलरी और रंगीन रत्नों की मांग पर असर पड़ा है। होटल व्यवसाय पर भी संकट छा रहा है। चीनी मुद्रा भी संघर्ष कर रही है। हांगकांग ने पिछले वर्षों में विशेष विकास की गति तय करके चीन को सहारा दिया है। विदेशी निवेश भी आज हांगकांग के नाम से ही आता है। यहां की मुद्रा का भी विश्व में विशेष स्थान है। ऐसे में यहां का आन्दोलन चीनी अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दे सकता है।

अभी संघर्ष का एक बड़ा दौर बाकी है जब सन् 2047 में हांगकांग की 50 वर्षीय स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी। तब क्या हांगकांग चीन का एक प्रान्त बन जाएगा अथवा हर व्यक्ति हरी सिंह-भगत सिंह बनने को तैयार रहेगा। भविष्य इसी बात पर निर्भर करेगा कि नागरिक अधिकारों के लिए ‘हम और हमारी सन्तानें’ किस हद तक संघर्ष के लिए तैयार हैं। एक कहावत है कि ‘आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता’।

September 6, 2019

शिक्षा के कारखाने

इस देश का भविष्य कौन तय कर रहा है! सरकारें, मां-बाप अथवा शिक्षा व्यवस्था? एक बात और समझने की है कि बच्चे आज किसकी बात सुनकर फैसला करते हैं। न मां-बाप की, और न ही सरकार की। सरकार के पास तो कान होते ही नहीं, बस जवाब होता है या आश्वासन। मां-बाप बच्चों को सम्पत्ति मानते हैं। बच्चे तो मुक्त जीना चाहते हैं। साधन मां-बाप से ही मांगते हैं, किन्तु सलाह नहीं मानते। शिक्षा ही जीवन की सांत्वना है। नौकरी मिलना भाग्य की बात। फिर, मनचाही नौकरी!

शिक्षा का ढांचा सरकार तय करती है। नीतियां शिक्षाविद् बनाते नहीं। नौकरियां सरकार के हाथ मे हैं। सरकार कॉलेज तो खोलने का आतुर रहती है, न नौकरी देती है, न ही श्रम करना सिखाती है। हमारी त्रासदी यह भी है कि धर्म की तरह शिक्षा में भी राजनीति ने वोट बैंक तैयार कर करके इसको गहरी खाई में डाल दिया है। आज शिक्षा के नाम पर घर बेचकर जीवन के 15-20 वर्ष लगाना समझदारी नजर नहीं आती। शिक्षा, पहली बात तो यह है कि हमें समझदार ही नहीं बनाती। आगे चलकर ये ही लोग शिक्षा नीतियां तैयार करते हैं। इसीलिए आज भारतीय संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान शिक्षा से बाहर हो गए। हमारा साधारण अथवा उच्च शिक्षा प्राप्त कोई भी व्यक्ति भारतीय संस्कृति से परिचित नजर नहीं आता। आजादी के बाद भी हम अपने देशी बच्चों को शिक्षा के द्वारा विदेशी भी बना रहे हैं और उन्हें व्यक्तित्व निर्माण के मानवीय-नैसर्गिक मूल्यों से दूर भी कर रहे हैं। आज की शिक्षा का यही लक्ष्य रह गया है।

देश में उच्च शिक्षा का अलग मंत्रालय है। राज्यों में भी है। ठेका लेकिन यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्राण्ट कमीशन) को दे रखा है। इसमें कितने लोग हैं जो भारतीय संस्कृति के विकास के प्रति कटिबद्ध हैं? उच्च शिक्षा के माध्यम से कौनसा स्तर हम देश में शिक्षित वर्ग का पैदा कर सके? व्यक्ति आज जितना अधिक शिक्षित होता है, वह समाज के काम आने के स्थान पर स्वयं के लिए जीने लग जाता है। समाज के लिए विदेशी हो जाता है। हम एक ओर जातिवाद को समाज का नासूर मानते हैं, वहीं शिक्षित वर्ग की अपनी जातियां और पंचायतें खड़ी करवा दीं। डॉक्टर, वकील, सीए, अधिकारी हर वर्ग की राष्ट्रीय संगठनात्मक कार्यशैली जातियों की तरह ही कार्य कर रही हैं।

इससे भी बड़ा नुकसान उच्च शिक्षा को शैक्षणिक आधार देने के बजाए, गुणवत्ता को विस्मृत करके बाजारवाद की तरह चलाना है। स्नातक तो ऐसे निकल रहे हैं-हर साल, जैसे कारखानों से टीवी-फ्रीज निकल रहे हैं। सब के सब एक जैसे। ज्ञान में ‘अंगूठा छाप’ भी इसी गति से बढ़ रहे हैं। आगे पढऩे वालों के शोधग्रन्थ कोई पढ़ता है क्या? दस प्रतिशत भी पढऩे लायक नहीं मिलेंगे। यूरोप-अमरीका में शोध करने वालों को बरसों लग जाते हैं। यहां आप किसी से, धन देकर, लिखवा सकते हैं। वायवा भी हो जाता है। डिग्री भी मिल जाती है। नौकरी?

शिक्षा में राजनीति का आना और स्वार्थपूर्ति के आगे देश को अंधेरे में धकेलते जाना इसका एक प्रमुख कारण बन गया है। यूजीसी के नियम कायदों की भी धज्जियां इसीलिए उड़ती रहती हैं। जिसको चाहो, पर्ची भेजकर कुलपति बनवा दो, प्रोफेसर बनवा दो। परिणाम देने की न बाध्यता है, न प्रतिबद्धता। इसी का परिणाम है कि हमारे प्रोफेसर शिक्षा जगत् में भी देश के बाहर अपनी पहचान नहीं बना पाते। हमारे कितने शोध ग्रन्थों का हवाला विदेशी लोग देते हैं-अपने पेपर्स में? हमारे पास बजट होते हैं, गुणवत्ता नहीं होती। कोई हमारे विश्वविद्यालयों की विभागीय संगोष्ठियों का स्वरूप नजदीक जाकर देखे, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। इने-गिने चहेतों के बूते यह आयोजन शिक्षा के चेहरे की पुताई के लिए काफी है। देश एवं समाज के प्रति कहीं लेशमात्र दर्द दिखाई नहीं देगा। जिस तरह के पेपर पढ़े जाते हैं, उनका संकलन पढऩे से स्पष्ट हो जाएगा।

एक ओर यह चर्चा सुन रहे हैं कि यूजीसी के स्थान पर नई व्यवस्था तैयार की जा रही है। दूसरी ओर यूजीसी के नए फैसले भी दूरदृष्टि विहीन दिखाई पड़ते हैं। अब नया निर्णय आया है कि एक स्नातक (चार वर्षीय कोर्स करके) सीधा पीएचडी कर सकता है। तब शोधग्रन्थ कैसा होगा? जो आज एक निबन्ध अच्छा नहीं लिख पा रहा, उसे पीएचडी देकर, समकक्ष सरकारी नौकरी में लगाना विकास को कैसी गति देगा! कौन फिर स्नातकोत्तर (एम ए जैसी) पढ़ाई करना चाहेगा? डिग्री के लिए शोध लिखवाना, पास करवाना कितना बड़ा कारखाना बन जाएगा। आज तो ७५ प्रतिशत हाजरी के झूठे प्रमाण-पत्र ही बहुत बड़ा व्यापार हैं। ऐसे लोगों को नौकरी नहीं मिले तो क्या यह यूजीसी का अपमान नहीं?

प्रश्न यह है कि यूजीसी महत्वपूर्ण है, डिग्रियां बांटना महत्वपूर्ण है, आंकड़ों का संग्रह जनता को दिखाना महत्वपूर्ण है? जिस शिक्षा में गुरु का कोई दायित्व नहीं रह गया, उसके पढ़ाये छात्र-छात्रा दर-दर ठोकरें खाएं, प्रोफेसर दो लाख का वेतन पाए, तब क्या यह देश शर्मसार नहीं होना चाहिए? आज शिक्षा और मिड-डे-मील की सोच में अन्तर ही क्या रह गया है? अच्छे नागरिक पैदा करना शिक्षा विभाग का उद्देश्य नहीं रह गया है। शिक्षित व्यक्ति देश के काम आता है या नहीं, यह शिक्षा नीति का अंग ही नहीं है। हम तो जो हैं उसी के सहारे विश्व गुरु बन जाने के सपने देखते हैं। आज तक हमारा कोई भी संस्कृत या वैदिक संस्थान हमारे शास्त्रों के ज्ञान को विज्ञान की भाषा नहीं दे पाया। हम पाश्चात्य वैज्ञानिकों के प्रश्नों के उत्तर आज भी देने की स्थिति में नहीं हैं। तब क्योंकर संस्कृत सेवा के लिए प्रोफेसरों का सम्मान किया जाता है? यह सम्मान उन विदेशियों को जाना चाहिए जो अपनी शोध से हमारा मान बढ़ाते हैं।

आज उच्च शिक्षा ही हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा अपमान बन रही है। व्यावसायिक शिक्षा का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन और प्रकृति का स्वरूप, सामंजस्य और दायित्वबोध ही इस शिक्षा का लक्ष्य हो। आज जैसे-जैसे हम उच्च शिक्षा में आगे बढ़ते हैं, हम पर दुधारी तलवार की मार पड़ती है। एक, देश-धरती से हम दूर हो जाते हैं। अकेले अपने पेट के लिए जीने लगते हैं। दो, हमारा व्यक्तित्व अपूर्ण होता चला जाता है। आत्म-ज्ञान शून्य।

या तो हम मानवता का निर्माण करें, या शिक्षा के कारखाने बन्द कर दें। आज विदेशी सामान हमारे यहां बनने लगा-भारतीय हो गया। वैसे ही विदेशी शिक्षा भी भारतीय कहलाने लग गई।

August 26, 2019

शिक्षा ज्ञान-विज्ञान आधारित हो

एक शिक्षा का पहला लक्ष्य है-ज्ञानार्जन। ज्ञान और ब्रह्म पर्याय शब्द हैं। हम सब ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति हैं, अत: ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहते हैं। इसीलिए व्यक्ति निर्माण का आधार ‘तत् त्वं असि’ माना गया है। शिक्षा में इसीलिए तीनों धरातलों-आधिदैविक, आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक-का समावेश अनिवार्य कहा है। आज शरीर-बुद्धि शिक्षा में रह गए, मन-आत्मा धर्म के भरोसे छूट गए। धर्म व्यापार बनता जा रहा है। वहां भी ब्रह्म के स्थान पर माया रह गई है। योगक्षेम के टुकड़े हो गए, अभ्युदय की होड़ में नि:श्रेयस पूर्णत: लुप्त हो गया। व्यष्टि रह गया, समष्टि गया। संस्कृति की कृति रह गई, ‘सम’ की चर्चा ही नहीं। जो कुछ है बस शरीर है। शिक्षा से इसी का पोषण करना है।

हम सारी दुनिया को गीता का ज्ञान बांट रहे हैं, तब हमारे बच्चे क्यों इससे वंचित हैं? जब महाभारत का युद्ध हुआ, गीता का ज्ञान दिया, तब कौनसा धर्म था, जो आज गीता को साम्प्रदायिक कह सकता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए उपयोगी शिक्षा का चार्टर है। ‘ममैवांशो जीव लोके..’ कह रहे हैं कृष्ण। क्या इसमें किसी सम्प्रदाय विशेष की ओर इशारा है? हम राजनीति न करें। सबको निर्माण योग्य बनाना है। सबको हित-अहित का बोध रहना ही चाहिए। तन-मन-धन के साथ चेतना के स्तर पर भी जीना आना चाहिए। आज के बुद्धिजीवी तो शब्दों को पकड़ते हैं। भावों की समझ कहां है!

विचारों में और वाणी में एक तारतम्य है। वाणी वैखरी रूप में अल्पजीवी है। बोलते ही लुप्त हो जाती है। मंत्र रूप में शक्तिशाली साधन है निर्माण का। हम सब ध्वनि से बने हैं। जो बोलते हैं, स्वयं भी सुनते हैं। शुद्ध मन, शुद्ध वाणी, शुद्ध (स्वस्थ) शरीर। भाषा ज्ञान नहीं, माध्यम है।

शिक्षा से गुरु खो गया। व्यक्तिगत जो जुड़ाव या संवेदना का स्तर था, वह नहीं रहा। पढ़ाई के विषय गुरु नहीं बच्चे तय करते हैं। सारा ढांचा बौद्धिक स्तर का रह गया। लक्ष्य सुख है। कौन सिखाता है कि हमारा अस्तित्व पंचभूतों से निर्मित है और संचालित भी वहीं से होता है। हमारा पिता सूर्य है। हम शरीर नहीं आत्मा हैं। शरीर माता-पिता देते हैं। आत्मा आकर इसमें रहता है। माता-पिता स्थूल शरीर का निर्माण करते हैं। पंचाग्नि का पांचवां पड़ाव होते हैं।

गीता स्पष्ट कह रही है कि जो जन्म लेता है, वह मरता है। आपके सम्बन्धों का भी प्रकृति में कोई अर्थ नहीं है। अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं कि तू चाहे इनको मार या नहीं मार, मैं इनको पहले ही मरा हुआ देख रहा हूं। अत: मृत्यु का शोक करना उचित नहीं है। तू क्षत्रिय है। युद्ध करना तेरा धर्म है।

गीता ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक इकाई रूप में वर्णन किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पुरुष है, शेष प्रकृति है। सत-रज-तम तथा वर्णाश्रम में सम्पूर्ण प्रकृति बंटी हुई है। पुरुष वीर्य रूप वर्ण-अहंकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है-आकृति है। अन्न-कर्म, यज्ञ, दान, तप सभी तो त्रिगुणात्मक है। अर्थात्-हम प्रकृति के बाहर जी ही नहीं सकते। जन्म, कर्म, मृत्यु सब प्रकृति दत्त हैं।

वर्णाश्रम की ऐसी प्राकृतिक विवेचना भी अन्यत्र नहीं मिलती। देव-मनुष्य-पशु-पक्षी-वनस्पति और यहां तक कि असंज्ञ सृष्टि भी चारों वर्णों के बाहर नहीं है। यही 84 लाख योनिया हैं, जिनमें जीवात्मा भ्रमण करता है।

वर्णाश्रम की विचित्रता देखिए-तीन वर्ण द्विज हो सकते हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य किन्तु इन वर्णों की स्त्रियां, वैश्य और शूद्र तीनों को कृष्ण समकक्ष कह रहे हैं। (गीता-9/32)। इसकी वैज्ञानिकता पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए।

सृष्टि के तीनों धरातल-आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक-भी प्रकृति और वर्ण व्यवस्था में समाहित हैं। अज्ञान का कारण प्रकृति है। ‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य…’ इस सूत्र को हम कृष्ण का अंश बनकर सोचें तो गीता का लक्ष्य स्पष्ट है। प्रत्येक प्राणी कृष्ण है, प्रकृति से ढका है। आत्मा कर्ता नहीं है, प्रकृति के कारण कर्ता भाव की अनुभूति मात्र है। अत: शिक्षा को पुरुष-प्रकृति, चेतना-शरीर को केन्द्र में रखकर नया रूप दिया जाए। इसके लिए शिक्षा नीति-नियंत्रण शिक्षाविदों के हाथों में ही दिया जाना चाहिए। गीता के तीसरे अध्याय (14-15) में लिखा है-‘प्राणी अन्न से पैदा होते हैं। अन्न वृष्टि से, वृष्टि यज्ञ से, यज्ञ कर्म से, कर्म वेद से और वेद परमात्मा से पैदा होते हैं।’

क्या प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का यह सार शिक्षा में नहीं दिया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर अंश है। जो बात ईश्वर पर लागू होती है, व्यक्ति पर भी लागू होती है। वह पुरुष है। उसे कर्म लिप्त नहीं करते। मुझे क्यों करने चाहिएं। (4-13)

मेरा निवेदन है कि शिक्षा को समग्रता का साधन बनाना चाहिए। केवल अर्थार्जन से अधूरा मानव बनता है। मां ने भी गर्भ में अभिमन्यु बनाना बंद कर दिया। तब मानव शरीर में कहीं भी मानव नहीं दिखने वाला। जैविक देह अवश्य मानव की होगी, भीतर आत्मा के संस्कार तो मानव के नहीं हो सकते। तब मानव समाज का नया स्वरूप क्या बनेगा? शिक्षा का लक्ष्य इसी समाज के स्वरूप पर टिका होना चाहिए। आज जो कुछ परिदृश्य दिखाई दे रहा है, जो कुछ हिंसा, अतिक्रमण, अनुशासनहीनता या अनाचार दिखाई पड़ रहा है, उसका कारण अपूर्ण या आंशिक शिक्षा ही है। बौद्धिक क्षमता का विकास अहंकारग्रस्त कर रहा है, मानवता को। जो मन का प्रेम, जुड़ाव का मार्ग है, वह बंद होता जा रहा है। विकसित देशों में संवेदनहीनता सर्वत्र उपलब्ध है। कहीं बंधुत्व, सहिष्णुता, सह अस्तित्व अथवा वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा अस्तित्त्व में नहीं है। नई तकनीक में चर्चा अवश्य है इनकी।

शिक्षा का एक लक्ष्य जीवन में शान्ति की स्थापना भी है। शान्ति बाहर नहीं मिलती। वहां तो अशान्ति है। शान्ति को भीतर, आत्मा के धरातल पर खोजना पड़ता है। इसके बिना भी जीवन में कुछ न कुछ अभाव रह जाता है। इसकी पूर्ति वर्तमान शिक्षा से नहीं होती। बौद्धगया के एक मैत्रेय मिडिल स्कूल में आध्यात्मिक ज्ञान के सहारे इस कमी को पूरा किया जाता है। स्कूल के संस्थापक इतालवी हैं-वेलेण्टिनो जियाकोमिन। बच्चों को नर्सरी से ही ध्यान करना सिखाते हैं। वेलेण्टिनो का निश्चित मत है कि पतंजलि की शिक्षा के अभ्यास से स्वत: ही भाषायी, तार्किक गणितीय, अन्तवैक्तिय, अन्तराव्यक्तिक, प्राकृतिक तथा संवेगात्मक बुद्धिमत्ता का विकास होता है।

नवीन शिक्षा जो वातावरण के साथ शरीर के एकीकरण, शरीर के साथ मन के एकीकरण (सोच, संवेग, स्मृति, धार्मिक विश्वास आदि) मन के तत्त्वों का इसके अपने प्रकृति के साथ एकीकरण पर इस अनुभव के साथ आधारित हो कि जो भी प्रकट होता है असत्य है और मन की अभिव्यक्ति के अलावा कुछ भी नहीं है।

वेलेण्टिनो के शब्दों में योग की भूमिका शरीर और मन से परे है। योग व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास पर टिका हुआ है। अष्टांग योग में समस्त परम्परागत पद्धतियों का एकीकरण अध्यात्म से करते हैं। अध्यात्म का आयाम जैविक-मनो-अध्यात्म (तत्त्व-मन-आत्मा) से एकीकृत है। आज शिक्षा की सीमा यह है कि तार्किक मन (अहं-चेतना) के स्तर पर एकीकरण का अन्त हो जाता है। चित्त के आवश्यक तत्त्व, चित्त से परे (अहं) को अस्वीकार कर देते हैं। यह अस्वीकार्यता ही विश्व में शिक्षा के बड़े संकट का कारण है।

जीवन को समझने के लिए माया की अवधारणा को समझना आवश्यक है। इसके बिना तो जीवन मिथ्यात्व में ही गुजर जाएगा। भारत के शून्य की खोज ‘मायाभाव’ ही तो है। माया का अर्थ भी शून्यता ही है। शून्यता संख्यावाचक है, माया सत्यता से शून्य है। अर्थात् जो दिखाई देता हुआ भी मायाभाव से मिथ्या ही है। माया को समझे बिना हम किसी भी अवधारणा से, मत-मतान्तरों से लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते। जीवन की इस काल्पनिक विचारशैली अथवा पूर्वाग्रह को त्यागकर ही तो अद्वैत को समझ सकते हैं। चेतना का यही विकास शिक्षा में होना चाहिए।

भारत में मन की अवस्थाओं को ही चेतना का स्तर (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय) कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान इनको मस्तिष्क की चार तरंगों (बीटा, एल्फा, डेल्टा, थीटा) के रूप में स्वीकार करता है। एक अन्तर यही है कि पश्चिम के लोगों के लिए जो बिलकुल सत्य है, वह भारतीयों के लिए माया है, मिथ्या है। ध्यान में व्यक्ति अज्ञानता और अहंकार से निकलकर चेतना के गहनतम स्तर तक पहुंच सकता है। हमारा शरीर पंचकोशों से निर्मित है जो स्वयं पदार्थ (अन्नमय कोश या शरीर) से आत्मा (आनन्दमय कोश) की यात्रा है। अत: आधुनिक शिक्षा को अंधकार से प्रकाश की ओर लक्षित करना पड़ेगा। आज की शिक्षा तार्किक, विचारशील मन (अहं) की शक्ति से परे जाने से रोकती है। इस कारण अवसाद, भय, क्रोध, निराशा के परिणाम भी हैं। व्यक्ति जब अपने मन से आगे चलेगा, तब समझ सकेगा कि वह स्वयं ही अपना भाग्य-विधाता है। तब किसी भी परिस्थिति में अवसाद उसे घेर नहीं सकता। इस दृष्टि से एलिस प्रोजेक्ट के स्कूल भारतीय ज्ञान धारा के स्रोत प्रमाणित हो रहे हैं।

सोचकर ही सुखद आश्चर्य होता है कि कोई शिक्षण संस्थान बच्चों को ‘तत् त्वं असि’ की आवधारणा का ज्ञान दे रहा है। ‘यथाण्डे तथा पिण्डे’ का विज्ञान भाव समझा रहा है, ताकि वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अर्थ जान सके। व्यक्ति शरीर के बाहर स्वयं का विस्तार देख सकता है। बीज को वृक्ष और फलों से लदा भविष्य दिखाई दे जाएगा। पेड़ बनने को लालायित हो उठेगा। आज की शिक्षा स्वयं की भौतिक-आर्थिक सुरक्षा को अधिक महत्व देती है। ऐसा व्यक्ति न जमीन में गडऩे की सोचेगा, न ही कभी पेड़ बनेगा। बीज मरता है, तभी वृक्ष उत्पन्न होता है। स्त्री मृत्यु के अनुभव से गुजरकर ही मां बनती है। सन्तान को जन्म देना और मां बनना एक नहीं है।

माता-पिता देव हैं, प्राण हैं, शरीर में अदृश्य रूप में कार्य करते हैं। प्राण ईश्वर है। हर बीज के मूल में कोई अन्य बीज रहता है। पीछे जाएंगे तो पाएंगे कि सारे बीजों का मूल एक ही है। एक से ही सृष्टि के सारे बीज पैदा हुए हैं। अत: सूर्य को ही जगत् का पिता कहा है।

विज्ञान जगत् में दो ही तत्त्व मानता है-पदार्थ और ऊर्जा, मैटर और एनर्जी। हम भी इनको ब्रह्म और माया, अग्नि और सोम कहते हैं। विज्ञान में अधिदैव नहीं है। अधिभूत है और अध्यात्म है। हमारी आज की शिक्षा से भी अधिदैव बाहर हो गया। अपूर्णता आ गई। जितना हम शिक्षित होते हैं, उतने ही अपूर्ण होते जाते हैं। हम बात करते हैं योगी होने की, शिक्षा देते हैं उपयोगी होने की।

कृष्ण कह रहे हैं-‘अर्जुन! मुझमें और तुझमें कोई भेद नहीं है।’ जब कोई व्यक्ति इस भेद को पा जाता है, इसकी अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर जैसा ही हो जाता है। ईश्वर के सभी गुण भीतर देख लेता है। जैसे बीज विकसित होकर जीवन को सृष्टि के लिए समर्पित कर देता है। ‘परित्राणाय साधुनां, विनाशाय च दुष्कृताम्। ‘इसी को ‘तत् त्वं असि’ का स्वरूप कहते हैं।

August 17, 2019

कांग्रेस नहीं, विपक्ष की सोचो

कांग्रेस कार्य समिति ने दस अगस्त को श्रीमती सोनिया गांधी को पार्टी का अन्तरिम अध्यक्ष घोषित कर दिया। अर्थात् दस अगस्त कांग्रेस के लिए मजबूरी का दिन बन गया होगा। कांग्रेस पार्टी की 134 वर्षों की इस ऐतिहासिक उपलब्धि को क्या कहा जाए? क्या इस निर्णय में कांग्रेस के भविष्य के प्रति कोई संकेत है? इतनी पुरानी, इतनी बड़ी और इतने लम्बे शासनकाल वाली पार्टी के पास आज खाने को चने ही नहीं हैं! पूरे देश में एक व्यक्ति भी पार्टी को नेतृत्व देने लायक नहीं है? क्यों बार-बार एक ही परिवार के लोगों का नाम पुकारा जाता है? राहुल गांधी की घोषणा स्वागत योग्य है। उन्होंने समय की चाल को समय रहते पहचान लिया। जनता में वे अपना वर्चस्व अथवा नेतृत्व स्थापित नहीं कर सके। जैसे उन्होंने परिस्थिति को भांप लिया, अन्य लोग क्यों नहीं भांप सके? क्या डूबती नाव की पतवार गांधी परिवार के हाथ में सौंपकर स्वयं को मुक्त रख पाने का प्रयास है यह ? अथवा माना जा रहा है कि कांग्रेस की तरह देश आज भी उनके नेतृत्व से आश्वस्त हो सकेगा! क्या कांग्रेस के अन्य नेता सरकार की कार्रवाई के डर से आगे नहीं आना चाहते! पिछले लोकसभा चुनावों में क्यों कांग्रेसी नेता प्रचार अभियान से नदारद थे? दबी जुबान से कहते तो थे ही।

कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आज पुन: गांधी परिवार का प्रतिष्ठित होना, चाहे अन्तरिम ही क्यों न हो, शुभ संकेत नहीं है। इतने बड़े देश और इतनी बड़ी संसद में विपक्षी दल का जो स्वरूप होना चाहिए, तस्वीर ठीक विपरीत दिखाई पड़ रही है। जहां एक सशक्त व्यक्ति नहीं है, वहां सशक्त विपक्ष कैसे संभव हो सकेगा? हाल ही जम्मू-कश्मीर पर अनुच्छेद 370 पर बहस में जो भूमिका देश ने देखी, उससे तो देश में विपक्ष की दृष्टि से लोकतंत्र सुरक्षित हाथों में नहीं कहा जा सकता।

कांग्रेस वैसे भी सफेदपोश लोगों का दल रह गया। चापलूस रह गए। भाषण देने वाले रह गए। हर व्यक्ति स्वतंत्र सत्ता बन गया हो, ऐसा लगता है। यही आन्तरिक फूट एवं बिखराव का कारण है। किस प्रकार की छींटाकशी सुनाई दे रही है, आपस में! कांग्रेस के कर्णधार माने जाने वाले कितने ही नेता भाजपा के समर्थन में चले गए। क्या उनको बिकाऊ कहेंगे? नहीं! जब जड़ों में कीड़े लग जाते हैं, तो पत्ते भी झडऩे लगते हैं। वैसे भी पिछले दशकों में कांग्रेस ने पत्तों पर ही छिडक़ाव किया है। जड़ें पार्टी के बजाए एक ही परिवार के हाथ में रहीं। जमीन से बाहर आ गईं। कांग्रेस की गलतफहमी शीघ्र ही दूर हो जाएगी कि सोनिया गांधी अब संजीवनी नहीं दे सकतीं।

क्या कांग्रेस को देश के लोकतंत्र की जरा भी चिन्ता है? विपक्ष के रूप में, देश के सामने कोई विकल्प भी नहीं नजर आ रहा। यही देश की मजबूरी भी है। सारी क्षेत्रीय पार्टियां भी भ्रष्टाचार के रिकार्ड बना-बनाकर सिमटने लगी हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस का बेहोश हो जाना आत्मघाती स्थिति ही कही जाएगी। देश के लिए कांग्रेस का होना अनिवार्य है। सशक्त होना शान की बात होगी। आज पुन: सोनिया जी का आना गरीबी में आटा गीला होना ही है।

डर गांधी परिवार के मन में भी हो सकता है। पद छोड़ते ही अनेक तरह की कार्रवाईयां भी शुरू हो सकती हैं। राबर्ट वाड्रा के विरुद्ध चल ही रही हैं। नेशनल हेराल्ड का मुद्दा अभी बन्द नहीं हुआ है। राजनीति में इन सबकी तैयारी भी होनी चाहिए। आने वाला समय क्या करेगा, आज कौन कह सकता है? देशहित में सब कुछ स्वीकार होना चाहिए। कांग्रेस का होना और विपक्ष का सशक्त होना ही देशहित है। गांधी परिवार को पार्टी को सर्वोपरि मानकर इस बारे में शीघ्र ही देश को आश्वस्त करना चाहिए।

पार्टी को यहां तक किसने पहुंचाया, इसका ईमानदारी से, बिना पूर्वाग्रह के आकलन होना चाहिए। किन-किन कारणों से कहां-कहां हार खानी पड़ी। कौन आस्तीन के सांप रहे। सत्ता के दौरान किन-किन नेताओं, निर्णयों एवं आचरण के कारण नुकसान उठाना पड़ा। आज कहां खड़े हैं, कहां होना चाहिए। कौन दे सकता है यह नेतृत्व ? कम से कम प्रियंका एवं राहुल तो नहीं दे सकते। अनुभव, लीडरशिप, सत्तर के नीचे उम्र और स्वच्छ छवि वाला। कम से कम चार-पांच ऐसे नेता तैयार करें। कांग्रेस में इन्दिरा गांधी ने भी किसी को तैयार नहीं किया। न राजीव ने, न सोनिया गांधी ने। इसकी सजा आज कांग्रेस ही नहीं पूरा देश भोग रहा है। कांग्रेस आज भी इसको केवल पार्टी की समस्या ही मानकर चल रही है।

देश के सामने एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि क्यों सारे नेता गांधी परिवार को ही चाहते हैं? कितने नाम चर्चा में आए, नकार दिए गए। क्यों? क्या मल्लिकार्जुन खडग़े, श्रीमती मीराकुमार, वीरप्पा मोइली जैसे कोई नाम इस लायक नहीं माने गए? कोई लोकसभा अध्यक्ष, कोई सदन में विपक्ष का नेता, तो कोई-कोई, बड़े-बड़े अनुभव वाले भी इस दौड़ में ठहरने लायक नहीं हैं। एक बात तय है-नया अध्यक्ष जो भी होगा, स्वतंत्र निर्णय लेने वाला ही होना चाहिए। नहीं तो डूबती नाव में एक छेद और हो जाएगा।

August 15, 2019

बाढ़ में बहते रिश्ते

देशभर में बाढ़ की तबाही से हाहाकार मचा हुआ है। लोग मर रहे हैं। हजारों बेघर हो रहे हैं। हर प्रान्त में सरकारें सैकड़ों करोड़ रुपए के बजट जारी कर रही हैं, मानों बहुत बड़ा अहसान करने जा रही हों। किसको नहीं मालूम कि यह धन भी जनता का ही है। जितना धन लोगों को राहत पहुंचाने में खर्च होता है, उसका बड़ा हिस्सा तो नेताओं के हवाई सर्वे और अफसरों के प्रीतिभोज आयोजनों पर खर्च हो जाता है। बाड़मेर जिले का कवास गांव इसका जीता-जागता नमूना है, जहां 13 वर्ष बीत जाने पर भी न बाढ़ का पानी बाहर निकला और न ही लोग पुराने घरों में लौट पाए। बजट हर तरह से पूरा काम आ गया। कोई लेखा-जोखा मांगकर तो देखे! पाठकों को याद होगा कि इस क्षेत्र के लोगों को राहत पहुंचाने के लिए पत्रिका की पहल पर पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरोंसिंह शेखावत के हाथों सहायता राशि भी बांटी गई थी।

असल में तो बाढ़ कोई पहली बार नहीं आई। सालों-साल आ रही है। लोग हर वर्ष मरते भी हैं। इस कारण ही तो बजट बनता है। मरेंगे नहीं तो बजट जारी करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। हां, बजट की एक किश्त बाढ़ राहत के नाम पर अग्रिम खर्च हो जाती है। तब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे अधिकारी इतने नकारा हैं कि सत्तर वर्षों में नियमित बाढ़ पर और मौत के कारणों पर नियंत्रण नहीं कर पाए अथवा उनके दिलों में इन लोगों के प्रति कोई दर्द ही नहीं है। कैसे जनसेवक हैं ये?

बाढ़ का कारण हर शहर में एक ही है। पूरा देश भ्रमण करके देख लीजिए। अधिकारियों का निजी स्वार्थ और रिश्वतखोरी का नंगा नाच। इसका उदाहरण राजस्थान के रामगढ़ जैसे सैकड़ों बांध और जलाशय हैं, देशभर में। अधिकारियों के मगरमच्छी आंसुओं से ये भरने वाले नहीं हैं। क्या कोई भी बड़ा अतिक्रमण बिना अधिकारियों की मौन स्वीकृति के हो सकता है? क्यों अधिकारी जल के निकास के मार्ग पर अतिक्रमण होने पर आंख मूंद लेता है?

बाढ़ रोकने के लिए जल के प्रवाह एवं संग्रह की व्यवस्था करनी पड़ती है। पिछले बीस बरसों में क्या किसी बांध की मिट्टी खोदी गई? क्या सबका जल भराव कम नहीं हुआ? आज रामगढ़ में पानी नहीं आ रहा, किन्तु कहीं तो जा रहा है। क्या नदियों के बहाव को एनीकट से रोकना अतिक्रमण नहीं है? एक बार जब तेज वर्षा हुई थी तब कितने एनीकट टूटे थे? कितने गांव डूब में आए थे, किसको नहीं मालूम? एनीकट बनाने में भी कमीशन मिलता है। राजनीति भी होती है। तालाब खोदकर जल संग्रहण कठिन कार्य है।

प्रत्येक वर्षा के बाद अगली वर्षा के बीच 8-10 माह का समय मिलता है। क्या किसी सरकार में बाढ़ को सदा के लिए रोक देने का कार्य कहीं होता है? रामगढ़ को सूखा देखकर कितने लोग दावतें कर रहे होंगे। बाढ़ का बजट रुक जाए तो? यही हाल अकाल राहत का है। कैसे रिपोर्ट्स तैयार होती हैं, पास होती हैं, किसको पता? कई बार तो किसान जब सूचना देता है कि उसके यहां अकाल पड़ गया, तो पता चलता है कि रिपोर्ट भेजे ही एक माह हो गया।

अकाल हो या बाढ़ जो जाल बीमा कम्पनी बिछाकर चलती है, वैसा किसी विकसित देश में हो जाए तो व्यवसाय बंद करना पड़े। यह हाल भी कमोबेश सभी प्रदेशों में एक समान है। किसानों को मुआवजा कितना मिल पाता है इसकी जानकारी सभी सरकारों और मुख्यमंत्रियों तक को होती है। वे इस तथ्य को यदा-कदा स्वीकार भी करते हैं। किन्तु किसान के भाग्य में आत्म-हत्या ही लिखी है। दावतें कहीं और होती हैं।

राजस्थान सरकार ने इस बार घोषणा की है कि अगली बारिश (2020) के ऋतुचक्र के पहले राज्य के सभी बांधों के जल मार्गों को बाधा मुक्त कर देगी। बानगी तो दी भी है। हम सरकार के साथ हैं। जनता सरकार का साथ देगी। निरीक्षण-कमेटियां तथा न्यायालय भी अपने फैसलों को लागू करवाने को संकल्पित हों, तो प्रदेश को जीवन-यापन के मुख्य स्रोत ‘अमृतं जलम्’ का सुख प्राप्त होगा।

सरकार को उन अधिकारियों के नाम सार्वजनिक करने चाहिए, नेताओं तथा परिजनों को भी बेनकाब करना चाहिए, जो इस कार्य में बाधा बनते हैं। युवा शक्ति को इस अभियान को योजना बनाकर प्रदेश स्तर पर हाथ में लेना चाहिए। वर्षा का पूरा जल जनता के काम आए। जहां भराव होता है, वहां बोरिंग किए जाएं ताकि भूमिगत स्तर भी बढ़े, मार्ग भी खुले रहें।

केन्द्र सरकार को भी नदियों को जोडऩे का कार्य यथाशीघ्र हाथ में लेना चाहिए। विशेषकर ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों को, जो काल बनकर हर वर्ष सैंकड़ों जीवन लील जाती हैं। जिन क्षेत्रों में बाढ़ राहत की उचित तैयारियां वर्षभर में भी नहीं हो सकें, वहां केन्द्रीय मंत्री एवं सरकार को अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई भी करनी चाहिए। राज्य सरकारों का इन्हीं सांठ-गांठ तोडऩे में बस चलता ही नहीं। पिछली सरकार ने हिम्मत करके 19 अधिकारियों के विरुद्ध केस दर्ज कराए। अन्त में डरकर वापिस ले लिए। यह तथ्य सही है कि भय बिन होत न प्रीत। हमें तो उस दिन की प्रतीक्षा है जब बाढ़ को हम चुनौती दे सकेंगे। वरना यह निष्कर्ष ही रहेगा कि अफसर जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं।

August 6, 2019

अखण्डता पुनर्प्रतिष्ठित

आमतौर पर चुनाव घोषणा पत्र को गंभीरता से नहीं लिया जाता। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली अप्रत्याशित विजय के पीछे एक घोषणा यह भी रही होगी कि भाजपा अनुच्छेद 370 तथा 35 ए से कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हटा देगी। भाजपा सरकार ने देश का एक बड़ा सपना साकार कर दिया। राज्य सभा ने दो तिहाई मतों से जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल को भी पास कर दिया। मंगलवार को यह लोकसभा में आएगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह बधाई के पात्र हैं। उतनी ही बड़ी बधाई तथा मंगलकामना जम्मू-कश्मीर-लद्दाख के सभी नागरिकों को भी, जिनको आजादी के सत्तर साल बाद देश की मुख्यधारा से जुडऩे का अवसर प्राप्त होगा। आज उनके लिए सचमुच में चिर प्रतिक्षित ‘जन्नत’ का द्वार खुल गया है। अब तक अनुच्छेद 370 के कारण देश राहू-केतू की तरह छाया-ग्रस्त था। आज भारत की अखण्ड़ता पुन: प्रतिष्ठित हुई है। देशवासियों के लिए उत्सव का दिन है। पाठकों को याद होगा कि जनसंघ के निर्माता स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 23 जून 1953 को अनुच्छेद 370 को कश्मीर से हटाने के (एक प्रधान-एक विधान-एक निशान) अभियान में वहीं अपने प्राण आहूत किए थे। उनकी आत्मा भी शान्ति का अनुभव कर रही होगी।

कश्मीर मामले में अनुच्छेद 370 समाप्त करने का फैसला भले ही केन्द्रीय सरकार ने लिया हो, किन्तु यह राजनीति से बहुत ऊपर का फैसला है। सन् 2015 में मैंने तीनों क्षेत्रों का दौरा किया था। सन् 1947 में आए शरणार्थियों को आज भी भारतीय नागरिकता नहीं मिली। मैंने लगभग सभी कश्मीरी पंडि़तों के कैम्प देखे थे। अनुच्छेद 370 तथा 35 ए की चर्चा अपनी पुस्तक ‘जम्मू-कश्मीर; जन्नत का इंतजार’ में विस्तार से की है। समय-समय पर ‘पत्रिका’ के ‘सम्पादकीय’ के माध्यम से अनुच्छेद 370 के विरोध में भी खुलकर लिखता रहा हूं। मेरी दृष्टि में तो यह देश के माथे पर धब्बा ही नहीं, नासूर था। इसके कारण एक ओर साख हमेशा चर्चा में बनी रहती थी, दूसरी ओर पाकिस्तान को आतंकवाद फैलाने का खुलकर मौका मिलता रहा है। अब तो यह उसको बड़ी शिकस्त माननी पड़ेगी।

कश्मीर के लिए कहा जाता रहा है-
‘अगर फिरदौस बर-रुए ज़मी अस्त।
हमीनस्तो, हमीनस्तो, हमीनस्त ॥’

शीघ्र ही देशवासियों को लगेगा कि वास्तव में यदि स्वर्ग कहीं है, तो बस यहीं है। आज एक नए युग की शुरूआत हुई है। आजाद वातावरण, जहां युवा मुक्त पंछी की तरह अपना आसमान ढूंढ सकेंगे। देशवासी यहां बसेंगे, उद्योग-धंधे खुलेंगे, आर्थिक उन्नति भी होगी, अधिकार भी मिलेंगे। पहली बार पंचायतों के खातों में सीधा 35000 करोड़ रुपया पहुंचा। अब तक देश में उपलब्ध कई अधिकारों से वहां के नागरिक वंचित थे। उनका अपना संविधान, झण्ड़ा था। हमारे उच्चतम न्यायालय के फैसले लागू नहीं थे। आरक्षण कानून, शिक्षा एवं सूचना के अधिकार के अतिरिक्त संविधान का अनुच्छेद 73 एवं 74 लागू नहीं था। आर्थिक आपातकाल की अनुच्छेद 360 भी लागू नहीं था। यदि कश्मीर की बेटी किसी गैर-कश्मीरी बेटे से विवाह कर ले तो उसे सम्पत्ति का अधिकार छोडऩा पड़ेगा। जबकि पाकिस्तानी नागरिक को यह छूट थी। दोहरी नागरिकता का प्रावधान भी उपलब्ध था। अनुच्छेद 370 को लेकर मैं यहां संविधान निर्माताओं में से एक स्व. डॉ. भीम राव अम्बेडकर की बात का उल्लेख करना चाहूंगा।

‘आप यह चाहते हो कि, भारत कश्मीर की रक्षा करे। कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार हों पर भारत और भारतीयों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं देना चाहते। मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस तरह की धोखाधड़ी में शामिल नहीं हो सकता।’

पिछले 70 वर्षों से चल रहे दोगलेपन के इस वातावरण की विदाई रंग लाएगी। जैसाकि अमित शाह ने अपने वक्तव्य में रखा कि आतंकवाद का मूल ही अनुच्छेद 370 था। इसकी आड में चंद लोगों ने लाखों लोगों को गरीबी का जीवन जीने को मजबूर कर रखा था। केन्द्र की सहायता भी आम आदमी तक नहीं पहुंची। जैसा कि गृहमंत्री ने पांच साल का एक अवसर मांगा है और आश्वासन दिया है कि यदि कश्मीर मामले में अनुच्छेद 370 हटता है तो सरकार वहां पर विकास का एक नया वातावरण तैयार कर देगी। रक्तपात की घटनाएं तो ठहर चुकी हैं। पी.डी.पी. के साथ मिलकर सरकार बनाने का भाजपा के माथे का धब्बा भी धुल गया है। अत: देश को नए प्रभात, पाक को लात और विदेश में नई साख की ओर देखना चाहिए।

July 21, 2019

हर दिन हो नवरात्रा!

नवरात्रा पूजा के नौ दिन देश शक्ति की आराधना करता है। उसके आगे अपना सर्वस्व समर्पित कर समृद्धि और खुशहाली मांगता है। महिला को यह दर्जा शरीर के कारण नहीं, बल्कि स्त्रैण गुणों के कारण, नई पीढिय़ों को संस्कारित करने और समाज से असुरों का नाश करने की शक्ति के लिए दिया जाता है। घर-घर में कन्या पूजन किया जाता है। अभ्युदय के लिए उनसे आशीर्वाद लिया जाता है।

और उसके बाद…? नौ दिन बाद जैसे सब भुला दिया जाता है। फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है। रेप और गैंगरेप! पीडि़ताओं के प्रति पुलिस का अट्टाहास! अब तो थानों में भी होने लगे गैंगरेप। प्रतिदिन मीडिया सजा-धजाकर इन खबरों को परोस रहा है। सरकारें और पुलिस मगरमच्छी आंसू बहाते हैं, जनता का मन बहलाने के लिए। चारों ओर बेटियों के प्रति दरिन्दगी! अभी तो कलियुग बहुत बाकी है। लोग घरों में घुसकर गैंगरेप करने लगे। पति के हाथ से पत्नी को छीनकर रेप करने लगे। तब कौन मां-बाप ऐसी परिस्थितियों में बेटी पैदा करना चाहेंगे। स्कूल के मास्टर अबोध का शिकार करने लगे और सरकार का संगीत चलता है-‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’ किसके भरोसे? हो सकता है आने वाले समय में पुलिस अधिकारी भी बेटी पैदा करना न चाहें।

परिणाम भी देखते जाएं….

किसी समय गरीब घरों में बेटियां खर्च की दृष्टि से अभिशाप मानी जाती थीं। विशेषकर गांवों में। आज ठीक उल्टा हो रहा है। गांव से अधिक शहरी लोगों को, निर्धन से ज्यादा अमीरों को ‘पुत्र रत्न’ चाहिए। आज शहरी और समृद्ध व्यक्ति समर्थ भी है। मनचाही संतान पैदा कर लेता है। तकनीक उसकी पहुंच में है। ‘बेटी बचाओ’ का नारा कम से कम गरीबों में तो, जिनके लिए यह अभियान चलाया गया था, फेल हो गया। अधिकांश सरकारी अभियान विरुद्ध दिशा में सफल अधिक होते हैं। परिवार नियोजन भी समृद्ध परिवारों में ही अधिक सफल रहा। गरीबों की संख्या बढ़ती गई। आज उन्हीं समृद्ध, शिक्षित परिवारों में बेटियां कम हो रही हैं।

स्त्री-पुरुष का अनुपात तेजी से बदल रहा है। शहरों में गांवों से ज्यादा संख्या घट रही है स्त्रियों की। पिछले सात-आठ सालों में अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले नौ सौ से कम रह गया है। क्या यह आर्थिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है? इसका उत्तर इस बात में ढूंढना चाहिए कि देश में महिलाओं का अनुपात अतिशिक्षित एवं अति समृद्ध राज्यों-दिल्ली, केरल, तेलंगाना में सबसे कम है।

समय के साथ आबादी के नियंत्रण का प्रभाव भी दिखाई देगा। आज प्रति परिवार संतान का औसत लगभग दो रह गया है। लोग प्रसन्न तो हैं कि संतान का पालन-पोषण अब ठीक से होने लगा है। और यह भी सच है कि लड़कियों के मां-बाप दु:खी रहने लग गए। आशा की किरण किधर?

इसका एक कारण भौतिक विकास पर आधारित शिक्षा। शिक्षित व्यक्ति का बस एक ही सपना रह गया-पैसा। वह किसी भी व्यक्ति का अहित कर सकता है, स्वयं के हित के लिए। संस्कारों का देहान्त हो गया। शिक्षित व्यक्ति के जीवन में धन के प्रवेश के साथ ही संस्कार उठ जाते हैं। अपनी बुद्धिमानी की होशियारी में वह स्वयं के अहित से शुरू करता है। जीवन-दूसरों का-उसके लिए मात्र पदार्थ रह जाता है। स्वयं के लिए जीने लगता है। अपने किए का सुख भोगने में व्यस्त हो जाता है। इसी का एक पक्ष है ‘कन्या भ्रूण हत्या’ का बढ़ता अभिशाप। कोई विचार नहीं करता कि बिना स्त्री के पुरुष की प्रजाति भी लुप्त हो जाएगी। स्त्री भी गुणवान हो, ताकि समाज और देश संस्कारवान बन सके। यह कार्य भी पुरुष को ही करना पड़ेगा। नहीं तो इसकी कीमत उसी की अगली पीढिय़ां चुकाएंगी।

व्यक्ति स्वार्थी भी हो गया और भोगी भी। न बच्चों का दर्द, न मां-बाप का। न ही संबंध बच पा रहा बाप-बेटी का। न सरकार को शर्म, न समाज को।

शिक्षा ने सब को मानवता से शून्य कर दिया है। शरीर तो पशु देह है। जैविक संतानें पैदा हो रही हैं। जिस योनि से जीव आता है, वैसे ही इस देह में भी जीता है। इंसान कौन बनाए इसे?

यह विषय केवल बौद्धिक धरातल के आंकड़ों का नहीं रह गया है कि, लड़कियां कम हो रही हैं और लडक़े बढ़ रहे हैं। प्रश्न है-इंसान कम हो रहे हैं। मानव देह में पशु बढ़ रहे हैं। समाज में हिंसा, बलात्कार और आसुरी वृत्तियां हावी हो रही हैं। तब कौन बचाएगा अपनी बेटियों को और किसके लिए? क्या यह प्रलय की शुरुआत नहीं है?

इसका समाधान…?

सामाजिक संकल्प, शिव संकल्प। कन्या या स्त्री की महत्ता को केवल नौ दिन ही क्यों याद रखा जाए। जिस गांव से खबर आए कि वहां कन्या-भ्रूण की हत्या हुई है अथवा गैंगरेप हुआ है, उस गांव में तो हर दिन नवरात्रा मननी चाहिए। उस दौरान पूरे गांव या पूरी बस्ती को संकल्प लेना चाहिए कि वे आज के बाद फिर किसी स्त्री के मान को ठेस नही पहुंचने देंगे। अपराधियों को सजा काटने के बाद भी गांव में प्रवेश न दिया जाए।

हर घर से युवा क्रान्ति की अलख जगनी चाहिए। उनके स्वयं के भविष्य का प्रश्न है। क्या कन्याएं घर से बाहर निकलना बंद कर दें? घर में घुसने वालों को पुलिस नहीं रोक पाएगी। युवा शक्ति को ही यह उत्तरदायित्व अपने हाथ में लेना पड़ेगा। यदि कोई पुलिस कर्मी अपराध में लिप्त होता है तो उसे भी गांव से बाहर निकाल देना चाहिए। दूसरी ओर परिवारों में शिक्षा-संस्कारों का नया वातावरण बनना चाहिए। अभिभावक अपनी सन्तान को अच्छा नागरिक बनने के लिए नित्य प्रेरित करें। धर्म-ग्रंथों का नित्य पारायण शुरू होना चाहिए। टीवी तथा मोबाइल फोन का प्रभाव कुछ धीमा होगा। बच्चों को और अभिभावकों को भी समझना पड़ेगा कि शरीर नहीं जीता, आत्मा जीता है इस शरीर में। शिक्षा को आध्यात्मिक स्वरूप देना पहली आवश्यकता है। व्यावसायिक स्वरूप तो उच्च शिक्षा से पहले शुरू ही नहीं होना चाहिए। तब बच्चों को प्रकृति और पुरुष का स्वरूप समझने का अवसर भी मिलेगा। जीवन का अर्थ मानव के सम्मान में ही निहित है, यह सीख अनेक समस्याओं से मुक्त करा देगी। वरना कन्या पूजन करके भी हम ईश्वर से भी सदा झूठ बोलते रहेंगे। कन्या की हत्या करने वाली मां को तो फांसी होनी चाहिए।

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