सरकारों में आत्मा तक पहुंचने की प्रज्ञा नहीं होती। अत: लगता भी नहीं है कि आरक्षण पर गहन चिन्तन होगा।
आरक्षण का प्रश्न शरीर और बुद्धि मात्र का नहीं है। आत्मा का है तथा मन को साथ लेकर समझना पड़ेगा। वरना, कितने भी बदलाव कर लें कानूनों में, हम भारतीय आत्मा को छू भी नहीं पाएंगे। केवल अपने राष्ट्र प्रेम की दुहाई देने से भी काम नहीं चलेगा। प्रयासों की चर्चा न करके परिणाम लाने के प्रयास होने चाहिए।
भारतीय दर्शन का लक्ष्य है अभ्युदय और नि:श्रेयस । अभ्युदय शरीर का विषय है, जिसके पीछे पूरा विश्व आंखें मूंदकर भाग रहा है। लक्ष्मी चेतना शून्य जड सम्पत्ति है । प्रकृति अथवा माया का विषय है। अर्थ और काम का क्षेत्र है। नि:श्रेयस आत्मा से जुड़ा धर्म और मोक्ष का विषय है। हमारी संस्कृति की परिभाषा में दो शब्द हैं-सम और कृति अर्थात ईश्वर की सृष्टि। नि:श्रेयस इसी के साथ जुड़ा है। इसी के अनुरूप प्रकृति कार्य करती है। शरीर-मन-बुद्धि का संचालन करती है। इसी के साथ समाज व्यवस्था, सम्प्रदाय आदि जुड़ जाते हैं। यह हमारी सभ्यता का निर्माण करते हैं। आरक्षण का मुद्दा सभ्यता का नहीं है, संस्कृति का है। हमारी आत्मा को कचोटता ही रहेगा। राजनीति में संवेदना होती ही नहीं। सत्ता के लिए लोग हर युग में मां-बाप तक को मारते रहे हैं। प्रजा की तो बात ही क्या है? इतिहास साक्षी है- लोकतंत्र में भी सत्ता पक्ष बहुमत के अनुपात में अधिनायकवादी होता ही है। विपक्ष को गालियां देते-देते पांच साल पूरे कर जाता है। कुछ नया होने की, देशहित के मुद्दों पर दूरदर्शी निर्णयों की उम्मीद अब भी नहीं है। घोषणा-पत्र दफन किया जा चुका है। जिस प्रकार की नियुक्तियां हो रही हैं, वह एक नया ही आरक्षण है। आने वाले समय में केवल तीन जातियां ही पैदा होंगी इस देश में। आरक्षित, गैर-आरक्षित और अल्पसंख्यक। तब ब्राह्मण के घर ब्राह्मण अथवा जाट के घर जाट कैसे पैदा होगा। सरकार में तो मात्र तीन श्रेणियां रहेंगी।
अच्छी योग्यता वाले युवा सरकारी नौकरियों से परहेज क्यों करने लग गए? जब उनका पलायन भी होने लगेगा तो सरकार और देश के पास सिवाय “ब्रेन ड्रेन” का रोना रोने के क्या रह जाएगा? फिर आरक्षित वर्ग में भी सभी को इसका लाभ भी नहीं मिल पा रहा।
सरकारों में आत्मा तक पहुंचने की प्रज्ञा नहीं होती। अत: लगता भी नहीं है कि आरक्षण पर गहन चिन्तन होगा। अधिकांश मंत्री भी गहन भारतीय धरातल पर जीते ही नहीं। अफसर भारतीयता को छूना तक नहीं चाहते। वे तो लिव-इन-रिलेशन और समलैंगिकता के कानूनों को पास कराने में रस लेते प्रतीत होते हैं। संस्कृति को जानते तक नहीं है। उनका अधिकार भी सभ्यता तक ठहरा हुआ है। आम जन के प्रति संवेदना वहां भी शून्य है। फिर आधे तो आरक्षण वाले ही हैं। कौन साथ देगा आरक्षण हटाने में? केन्द्र सरकार के पास समय नहीं है। उसे भूमि अधिग्रहण बिल और जी. एस.टी. के मुद्दे अपने अहंकार की तुष्टि के लिए सर्वोपरि लगते हैं। पिछले डेढ़ साल में उसने उल्लेखनीय कुछ किया नहीं। नीचे देखने की जरूरत किसी को नहीं लगती। कोई नहीं देख रहा कि, हमेशा गुणवत्ता की बात करने वाला यह देश कदम-कदम पर गुणवत्ता से समझौता क्यों कर रहा है? अच्छी योग्यता वाले युवा सरकारी नौकरियों से परहेज क्यों करने लग गए? जब उनका पलायन भी होने लगेगा तो सरकार और देश के पास सिवाय ‘ब्रेन ड्रेन’ का रोना रोने के क्या रह जाएगा? फिर आरक्षित वर्ग में भी सभी को इसका लाभ भी नहीं मिल पा रहा। उसमें भी कुछ ही परिवार होते हैं जो मलाई समेटते हैं। अन्य तो उसे देख मिलने का इंतजार ही कर रहे हैं। क्यों आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के दो व्यक्तियों के मध्य होनेे वाली मामूली सी कहा-सुनी कानूनों की आड़ में कोर्ट-कचहरी तक पहुंच जाती है? जब पड़ौस में रहने वाले दो व्यक्ति इस तरह लड़ेंगे तो समाज जुड़ेगा या टूटेगा? इसमें तो जुड़ाव की संभावना दूर-दूर तक नहीं होगी। सब अपना अलग-अलग घेरा बना लेंगे। जबकि प्रकृति में कोई छोटा-बड़ा अथवा अच्छा-बुरा नहीं है। जो जैसा है, वैसा है। हमारी समाज व्यवस्था ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं, जो देश-काल के अनुरूप बदलती रहती हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह हुआ कि हमारे ज्ञान का माध्यम जो भाषाएं थीं, उनमें समय के साथ न जाने कितने परिवर्तन आ गए। मौर्य आए, मुगल आए, अंग्रेज आए और हमारे ज्ञान समर्थक शास्त्रों का भाव भी बदलता गया।
स्वतंत्रता के बाद हमारे ही प्रतिनिधियों ने हमारे ज्ञान की जमकर धज्जियां उड़ाई। संविधान को धर्मनिरपेक्ष कहकर हमारी संस्कृति के साथ भौंडा मजाक ही किया। शासन में धर्म का प्रवेश वर्जित हो गया। हमारी संस्कृति का आधार आश्रम व्यवस्था तथा इसी के साथ वर्ण व्यवस्था रही है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु एवं प्राणी में वर्ण रहते हैं। चाहें पेड़-पौधे हों, पत्थर हों, या जीव जगत। आकृ ति का आधार पृथ्वी है, मन का आधार चन्द्रमा है। यह रजोगुण प्रधान है। इसी चन्द्रमा के देव प्राण से मानव के वर्ण का विकास हुआ। शरीर कर्म प्रधान है। प्रकृतियुक्त देवप्राण के प्रभाव को जन्ममूला कहा गया है- “प्रकृतिविशिष्टं चातुर्वण्र्य संस्कारविशेषाच्च।” प्रकृतिमूला वर्ण अवर्ण आठ भागों में विभक्त है।
सूर्य के “धियो यो न: प्रचोदयात्” से मानव के बुद्धि तंत्र का विकास हुआ। सत्वगुण प्रधान तथा अहंकृति भाव से समन्वित है। इससे गोत्र भाव का विकास होता है। क्योंकि सौर प्राण ऋषि रूप हैं। अर्थात् वर्ण प्रकृति सिद्घ हैं, गोत्र अहंकृति सिद्घ हैं तथा समदर्शन आत्मसिद्घ है। अन्न प्राशन संस्कार के समय बालक के सामने पुस्तक, कलम, चाकू एवं झाड़ू रखा जाता है। बच्चा पहले किस वस्तु को छूता है, उसी से उसके वर्ण का निर्धारण किया जाता है। अर्थात् वर्ण किसी वर्ग या जाति से नहीं जुड़ा होता। किसी भी वर्ण के व्यक्ति के घर में किसी भी वर्ण की संतान उत्पन्न हो सक ती है । ब्राह्मण-पुत्र भी ब्राह्मण वर्ण का हो, यह आवश्यक नहीं है। अत: कोई मानव एक-दूसरे से भिन्न नहीं हो सकता।
आज समाज में शूद्र शब्द को अपमानजनक माना जाता है- जबकि शास्त्र कहते हैं- “जन्मना जायते शूद्र: संस्काराद् द्विज उच्यते।” जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है, चाहे किसी कुल में क्यों न पैदा हुआ हो। तब शूद्र अपमान सूचक कैसे हो सकता है? कैसे ये भेद-भाव का आधार हो सकता है? शास्त्रों के निर्माण के बाद तो सब कुछ बदल चुका है। धर्म और छुआछूत की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका है। अन्तर्जातीय विवाहों का सिलसिला तक चल पड़ा है। आने वाले समय में तो समाज व्यवस्था भी लुप्त हो चुकी होगी। एकल परिवार-मुक्त व्यवहार होगा। तब इस समाज व्यवस्था को तो बदला ही जा सकता है। आज तो अनेक जातियां ही लुप्त हो चुकी हैं। शेष भी तेजी से लुप्त हो रही हैं। अब नई जातियां-डाक्टर, इंजीनियर, सीए, एमबीए आदि पैदा हो रही है। इसी तरह अल्पसंख्यक के घर में अल्पसंख्यक पैदा होगा। आरक्षित परिवार का बच्चा आरक्षित होगा। उनको मनुष्य धारा में जीने का अधिकार नहीं होगा। उनका अपना-अपना कोटा होगा। यह हमारी पिछले अड़सठ सालों की कमाई है। जो काम 700 सालों में मुगल नहीं कर पाए, 200 सालों में अंग्रेज नहीं कर पाए, वही उजाड़ मात्र पांच मिनट में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह कर गए। यह कांटा कोई बौद्धिक तर्क से निकलने वाला कांटा नहीं है। देश को बांटने का इतना सहज उपक्रम शायद इतिहास में अन्यत्र नहीं होगा। आरक्षण!!
आरक्षण! देश भर में पिछले साठ सालों में इसके विरोध में कितनी आवाजें उठीं, जुलूस निकले, गोलियां चलीं और सैकड़ों मर चुके। क्या किसी नेता, अफसर या न्यायाधीश की पेशानी पर पसीना दिखाई पड़ा? आज तो किसान हत्या के जुमले चल रहे हैं जिनके बीच आरक्षण की आवाजें दब चुकी हैं। गुजरात में अहमदाबाद की यह हार्दिक पटेल की रैली जिसमें आरक्षण को पूरी तरह समाप्त करने या फिर पाटीदारों को भी आरक्षण देने की जो मांग की गई वह क्रान्ति का बिगुल जैसी है। हर प्रांत में बजना चाहिए। कोई सुने या न सुने।
देश में समय-समय पर हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन अब तक लगभग 500 जानें ले चुके। सरकार की गोलियों से। समानता लाने के स्थान पर इतनी असमानता छा गई कि हम स्वयं अपने ही लोगों के लिए शत्रु बन बैठे। पहले तो अल्पसंख्यकों के नाम पर हिन्दू-मुसलमानों के दो धड़े बन गए। आरक्षण चूंकि केवल हिन्दुओं पर ही लागू है, अत: इनको भी 50-50 कर दिया। किया सब विकास के नाम पर, बिना समाज को शिक्षित किए। आज केवल इस एक कारण से देश साठ साल आगे जाने के बजाए साठ साल पीछे चला गया। राजनेता इसी पर छाती फ ुलाते हैं। आम जन इसी की मार से कराह रहा है। उसके काम होने बंद हो गए, अपशब्द और झूठी शिकायतों की भरमार हो गई। आरक्षण का सीधा प्रभाव बदले की भावना में बदल गया और व्यक्ति काम करना छोड़कर इसी में व्यस्त हो गया। सरकारी काम भी लगभग खड़ा सा हो गया। भ्रष्टाचार कई गुना हो गया। उच्च शिक्षा निम्न कोटि में बदल गई। जो नेता देश के विकास के जुमले कहते हैं, वे हमारी आंखों में धूल झौंकते हैं। आरक्षित वर्ग के लोग आरक्षित वर्ग के डाक्टरों तक से इलाज कराने को तैयार नहीं। सरकारी अफसर निजी अस्पतालों में जाने लगे। एक ओर गुणवत्ता का ह्रास, दूसरी ओर काम में कमी, अपमान का वातावरण हमारे विकास की सीढ़ी हो गई । अल्पसंख्यक तथा दो बराबर भागों में हिन्दू तीनों एक-दूसरे के आमने-सामने हो गए एक ही देश में । अंग्रेजों ने भी देश का इतना नुकसान तो नहीं किया था। कोई आश्चर्य नहीं 80-100 सालों में गुलामी फिर इस देश को जकड़ ले।
विवेकानन्द ने कहा था “गाली देना काम नहीं आएगा। तुम भी पढ़ो और इनके बराबर हो जाओ।” किन्तु आरक्षण ने भेद-भाव का आधार भी बढ़ा दिया और उसको दृढ़ भी कर दिया। आज समृद्घ व्यक्ति को यह कहकर भगा दिया जाता है कि “….”, “तुमने ही हमको सताया है। भाग यहां से।” गरीब के लिए मनरेगा। इतिहास गवाह है कि पहली शताब्दी से 350 वर्ष तक देश में शूद्रों ने ही राज किया है। किन्तु जिस प्रकार सरकारी मन्दिरों में चैन्नई सरकार ने शूद्रों को पुजारी बना दिया था, मंत्र संस्कृत के स्थान पर तमिल में बोलने के निर्देश दिए गए थे, उससे तो आग भड़कनी ही थी। यह वैसा ही रवैया था जैसा हिन्दी के विरोध में दिखाया था। इन राजनीतिक कार्यो से व्यक्ति की चेतना में भेद और भी दृढ़ हो जाता है। तब मन में शत्रुता घर कर जाती है। हर व्यक्ति के भीतर उसका शिव तत्व (परमात्मा) रहता है। उसकी चेतना स्वतंत्र होती है।
हमने एक बात नहीं समझी। व्यक्ति की प्रकृति, बौद्धिक क्षमता, आकृति, अहंकृति कुदरत देती है। पद के कारण प्रतिभा नहीं आ जाती। जाति और वर्ण भी एक नहीं है। जातियां लुप्त हो रही हैं। हम पढ़ाना चाहते हैं, किंतु नौकरियां दे नहीं पाते। दसवीं पास बच्चा कुम्हार या खाती बनने को तैयार नहीं। आरक्षण से एक ओर अक्षम को नौकरी मिल रही हैं, क्षमतावान बेरोजगार रहता है। फिर भी साठ साल में क्या आरक्षण ने आरक्षित जातियों के विकास के मार्ग खोले? जरा भी नहीं खुले। क्या उन जातियों में विकास के समान अवसर उपलब्ध हुए? क्या इस कारण देश में धर्म परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हुआ? न कोई सरकार यह कह पाई कि हिन्दुओं में ही ऎसा क्या है कि वहां आरक्षण अनिवार्य है। क्या तीनों वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के घरों में शूद्र पैदा नहीं होते? हम शब्दों को पकड़ते हैं। व्यंजना नहीं करते। प्रकृति में विषमता है ही नहीं। केवल कर्मफल है। भारतीय दर्शन भी समता आधारित है। कालक्रम का प्रभाव अवश्य पड़ता है। तब हम सब भारतीय क्यों नहीं हैं?
भारत सम्पन्न देश था। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद यूरोप दरिद्र हो चुका था। अंग्रेजों ने हमारे संसाधनों पर अतिक्रमण कर लिया और हम दरिद्र हो गए। फिर अंग्रेजी के बीज बो गए, तो हमारा ज्ञान से सम्पर्क ही टूट गया। कोरा विज्ञान रह गया। चेतना सुप्त हो गई। पंचवर्षीय योजनाएं कृषि और पशुधन पर आधारित नहीं रही। संविधान का भी भारतीयकरण नहीं हो पाया। विकास के लिए अब समान अवसर नहीं रहे। तब हमें तो कंगाल ही होना है। भ्रष्टाचार हमको और भिखारी बना रहा है। सभी नेता मांगने की भाषा बोलने लगे। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में स्वयं दलाली खाने लग गए। चुनावी घोषणा-पत्रों को लाल बस्ते में बंद कर देते हैं। इन सभी विनाशकारी दृश्यों के मूल में आरक्षण है।
जब संविधान में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई, उस वक्त देश के हालात कुछ अलग थे। आरक्षण का सीधा फायदा सरकारी नौकरियों में मिलना था। सरकारी नौकरियां सीमित थी। शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी इन दशकों में अधिक नहीं हुआ था। केंद्र और राज्यों के सरकारी विभागों का विस्तार और नए विभागों का गठन पूरी तरह नहीं हुआ था। समाज के बड़े और गैर-आरक्षित वर्ग के लिए भी सरकारी भर्तियों में ज्यादा संभावना नहीं थी। आजादी के प्रारम्भिक दो दशक तक इसका देश और समाज पर व्यापक असर नहीं पड़ा। वर्ष 1980 के दशक के बाद आरक्षण ने गैर-आरक्षित वर्ग को प्रभावित करना शुरू किया। इस दौर तक एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो चुकी थी। संविधान में आरक्षण का जो विष बीज बोया गया था, वह अब वट वृक्ष बनकर पनपने लगा। एक तरफ उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक अंक लाने से भी कम अंकों पर सरकारी नौकरियां मिलने लगी तो दूसरी तरफ अच्छे-खासे अंकों के बाद भी नौकरी सपने सरीखी रही। इस अदृश्य सामाजिक अंतर से देश में वर्ग विभाजन की दरार उभरने लगी। यहां तक भी समाज का गैरआरक्षित वर्ग आरक्षण के विषपान को हलाहल करता रहा। नब्बे के दशक के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के दायरे में शामिल करके तो मानो देश की सामाजिक समरसता-सौहार्द के साथ एकता- अखंडता को रौंद डाला गया। दलितों को आरक्षण देने से देश में उभरी विभाजन रेखा ओबीसी को आरक्षण देने के बाद खाई में बदल गई। एक ऎसी खाई जिसका फैलाव आज तक जारी है। समाज के अन्य वर्ग भी जाति, धर्म, लिंग और भौगोलिक आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे। राजनीतिक दलों ने जिस खेल को अपने निहित स्वार्थो के लिए शुरू किया। उससे देश की शिराओं में जातिवाद विष बन कर बहने लगा। मांग पूरी नहीं करने पर हिंसा, तोड़फोड़ और कानून-व्यवस्था चौपट कर दी गई। हरियाणा में जाटों, राजस्थान में गुर्जरों और अब गुजरात में पटेलों के आरक्षण की मांग को लेकर आई कर्फ्यू की नौबत से समूचा देश स्तब्ध है। राजनीतिक दल सत्ता की खातिर इनकी मांगों के सामने झुकते गए और मजबूत देश का ख्वाब टुकड़ों में बदलता गया। इससे देश की भौगोलिक सीमाएं भले ही अपरिवर्तित रही हों पर हकीकत में देश एक ऎसे ढांचे में बदलता जा रहा है, जिसकी ऊपरी परत बेशक सुदृढ़ नजर आए पर अन्दरूनी हिस्से लगातार जर्जर हो रहे हैं।
आश्चर्य की बात है कि न्यायपालिका ने भी देश के इस दर्द को नहीं समझा। न्यायपालिका भी शब्द जाल में ही अटककर मानो रह गई अथवा सत्ता पक्ष से प्रभावित हो गई थी। सत्ता पक्ष का अहंकार तो शाश्वत है। पिछली सरकारें हों या वर्तमान सरकार, देश हित के प्रति गंभीर नहीं रहे। हिन्दुओं को तोड़कर कोई अपने को हिन्दुवादी कह सकता है? पिछली सरकार जीवनशैली से जुड़े कितने कानून लाने चली थी। क्या देशवासियों की राय जानना कतई आवश्यक नहीं रह गया है? आरक्षण के विरोध में तो आज पूरा देश एकमत है। देश पीछे जा रहा है। सामाजिक वातावरण विषाक्त हो रहा है। विकास के स्थान पर विनाश हो रहा है और सत्ताधीश मतदाता की ओर देखकर अट्टहास करते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। बेरोजगारी, विषमता, भारतीय संसाधनों में विदेशी निवेश आरक्षण आन्दोलन को हवा ही देंगे। सरकारें तो अपना ही सोचने लगी हैं, देश का भविष्य समय ही तय करेगा।