Gulabkothari's Blog

January 4, 2016

बेहोश लोकतंत्र

लोकतंत्र करवटें बदल रहा है। जनता का धन, सरकार के द्वारा, सरकार के लिए। सारी देवतुल्य जनसेवकों की सेना आसुरी होती जा रही है। रसातल में पहुंच चुकी है। पाताल दूर नहीं है। मोदी जी का नारा ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ अब बदल गया लगता है। अब लगता है ‘अकेले नहीं खाने दूंगा’ जैसा बन रहा है।

कैसे-कैसे चौंकाने वाले तथ्य उजागर होते जा रहे हैं। रिफाइनरी द्रोपदी के चीर सी खिंच रही है। अब तो छोटी लगने की चर्चा भी सुनाई पड़ रही है। रिसर्जेंट होते हैं पर एमओयू जमीन पर नहीं आते। रीको के औद्योगिक क्षेत्रों में आवास बन रहे हैं। उसके बाद भी सरकार उद्योगों के लिए नई जमीन अवाप्त कर रही है। बंद उद्योगों से जमीन वापस लेने की इच्छाशक्ति दिखती ही नहीं। बेतहाशा नित नई सड़कों का निर्माण, चौड़ीकरण जैसे कार्यों में जितनी जमीन मौत के मुंह में जा रही है और जितनी खेती उजड़ रही है, मानो बच्चों का खेल है। फिर जरूरत पड़ी तो किसी भी बस्ती को उजाड़कर सड़कें निकाली जा सकती हैं। उसी सरकार के कुछ चहेते नेता राष्ट्रीय राजमार्गों पर अतिक्रमण के लिए कुख्यात हैं। अब रिसर्जेंट  राजस्थान के एमओयू नई जमीन के आवंटन की कतार में खड़े हैं।

लोकायुक्त लिख रहे हैं कि बड़े-बड़े पदों पर बैठे अधिकारी प्रथम दृष्टया खुलेआम भ्रष्टाचार में लिप्त जान पड़ रहे हैं। उनको तो जेल में होना चाहिए। उधर उद्योग सचिव कह रहे हैं कि ये अफसर तो कानून से भी बड़े हैं। सरकार तो उपहार स्वरूप मुख्य सचिव का कार्यकाल तक बढ़ा चुकी है। कार्यपालिका को धिक्कार है। न्यायपालिका मौन है। जब पूर्व मुख्यमंत्री भी सरकार पर सीधे आरोप लगा रहे हैं, मुख्यमंत्री के विरुद्ध भी नामजद भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं, कह रहे हैं कि उनको तो जेल में होना चाहिए, तब क्या लोकतंत्र नंगा नहीं हो रहा? क्या पूर्व मुख्यमंत्री की बात को अनसुना करना लोकतंत्र को गौरवान्वित करेगा?

गहलोत जी तो यहां तक कह गए कि दो साल में यदि कहीं कोई विकास हुआ तो केवल धौलपुर पैलेस का। माना कि धौलपुर पैलेस का मुद्दा संसद के हवाले हो गया। प्रधानमंत्री कार्यालय की फाइलों में दब गया। ललित मोदी को लाने के लिए गलीचे बिछाए जा रहे हैं, जयपुर के राजमहल होटल का मुद्दा भी स्वयं पूर्व मुख्यमंत्री उठा रहे हैं। हर तरफ की चुप्पी से क्या कानून और लोकतंत्र खतरे में दिखाई नहीं देता? जो कार्य सर्वोच्च न्यायालय और संसद के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, वह जिले की अदालतों से हो रहे हैं। वाह रे कानून के रक्षक नुमाइंदों! पहले भी सरकार ने बड़े-बड़े अधिकारियों के विरुद्ध चलाए गए मामले वापस लिए थे। अब फिर ले लिए लेकिन सब मौन हैं। महामहिम राज्यपाल तक।

आजकल रोज फसल बीमा के मुद्दे मीडिया में छाए हुए हैं। न किसानों की आत्महत्याएं रुकने का नाम ले रही हैं, न ही बीमा कम्पनियों का ताण्डव। यह बात मैंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को भी बताई थी। सरकार, चाहे राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ या कहीं की भी हो, हालात सभी प्रदेशों में एक से हैं। न्याय करने का दम भरने वाले भी किसान के साथ न्याय नहीं कर रहे? सम्पूर्ण लोकतंत्र (तीनों पाये) किसान के जीवन को नकार ही नहीं रहा, उससे खिलवाड़ कर रहा है।

बीमा कम्पनियां फसलों का बीमा करती हैं। पिछले 5-10 सालों के मुआवजे के आंकड़े देखें। शर्तें रोज बदल जाती हैं, ताकि मुआवजा देना ही नहीं पड़े। अभी हाल ही में तापमान की शर्त बदलने का समाचार छपा था। अब तापमान यदि -2.6 डिग्री से नीचे जाएगा, तब ही मुआवजा मिलेगा क्योंकि फतेहपुर में पहुंच चुका है अब तक -1.0 डिग्री ही आधार था।

दूसरी बड़ी बात, नियम शर्तें सब अंग्रेजी में, छोटे अक्षरों में छपी रहती हैं। साधारणतया किसान तो अनपढ़ होता है। आप कोई भी नियम दिखाकर उसका मुआवजा रद्द कर सकते हैं। मध्यप्रदेश में तो आतंक यहां तक भी है कि बीमा करवाना ही पड़ेगा। विभाग खुद दबाव बनाता है। बैंक की किस्तों में से पहले बीमा की किस्तें भरी जाती हैं। बैंक में उधार का और ब्याज का आंकड़ा बढ़ता जाता है। परिस्थितियां तो सब जगह एक ही हैं। बीमा कम्पनियां राष्ट्रीय स्तर की भी और कुछ सरकारी भी होती हैं। आज तो लगता है कि विष्णु के कल्कि अवतार आने तक किसान मरते ही रहेंगे।

चाहे राजस्थान की तकदीर बदलने का भरोसा जगाने वाली रिफाइनरी को लगाने में देरी की बात हो या बिना विचारे तेजी से आगे बढ़ विरासत को बर्बाद कर रही मेट्रो का मुद्दा। या फिर खनन का खेल, अतिक्रमण, आबकारी, भू-माफिया, अपराध, हथियार और मादक पदार्थों का आतंक, सभी कुछ तो धृतराष्ट्र की सरकार के आश्रय में आने वाली पीढिय़ों को ध्वस्त कर रहे हैं। क्या मुगल या अंग्रेज ज्यादा खराब थे? वन्य जीवों के साथ खिलवाड़, वनों में निर्माण, स्थानीय निकायों से उठता विश्वास, सभी को एक ही आस-न्यायपालिका से। ईश्वर से यह प्रार्थना है कि यह आस न टूट जाए। सरकारें टूटती जाएं, बदलती जाएं।

September 14, 2015

धर्म को धर्म रहने दें-2

जैन धर्म का मूल अहिंसा है। यहां यह ध्यातव्य है कि अहिंसा के पालन के लिए अथवा धर्म के किसी भी सिद्धान्त के पालन के लिए बल का प्रयोग स्वयं में एक हिंसा है। धर्म स्वैच्छिक है, उसे किसी पर लादना नहीं चाहिए। यह सभी जैन आचार्यो का मत है।

जो यह चाहे कि मांसाहार का प्रयोग न किया जाए क्योंकि इसमें पशु के प्रति क्रूरता होती है वे पशु के प्रति संवेदनशीलता जगाने के लिए अधिकाधिक प्रेरणा दें-यह धर्मसम्मत मार्ग है किन्तु किसी को मांस न खाने के लिए कानून बनाकर मजबूर किया जाए यह धर्म का मार्ग नहीं क्योंकि इसमें बल का प्रयोग किया जा रहा है।

वस्तुत: जैनों को मांसाहार के विरूद्ध सारे तर्क देकर लोगों को मांस छोड़ने की प्रेरणा देनी चाहिए। यह उनका मौलिक अधिकार है कि वे अपनी धार्मिक मान्यता का प्रचार करें किन्तु इसके लिए किसी कानून का सहारा लेना धर्म की दृष्टि से उचित नहीं।

जहां तक मांसाहारियों का प्रश्न है उन्हें मांसाहार के विरोधियों की भावना का सम्मान करते हुए स्वेच्छा से पर्यूषण के दिनों में मांसाहार का त्याग करने की घोषणा कर देनी चाहिए। इस छोटे से त्याग के बदले उन्हें न केवल जैन प्रत्युत अजैन शाकाहारियों की भी सद्भावना का अमूल्य उपहार प्राप्त होगा। जैसा कि सदियों से होता रहा है।

चाहे मांसाहार विरोधी हों अथवा मांसाहारी हों-दोनों को ही एक-दूसरे के प्रति सद्भावना स्थापित करनी चाहिए। दुर्भावना तो किसी भी स्थिति में देश के लिए इष्ट नहीं है।

महावीर ने कहा कि जीव भारी होता है प्रणतिपात से, हिंसा करने से। जीव भारी होता है हिंसा की स्मृति से। हिंसा की स्मृति ही वास्तविक हिंसा है। क्रियमाण हिंसा उतनी बड़ी नहीं है। हिंसा के संस्कार की स्मृति बड़ी हिंसा है। वही हमें भारी बनाती है। हमारी हिंसा उस स्मृति को और भारी बना देती है। यदि मन में हिंसा का संस्कार न हो और हिंसा का संस्कार स्मृति रूप में जाग्रत न हो तो वर्तमान की हिंसा संभव ही नहीं है। जो भी वर्तमान में हिंसा कर रहा है, उसके मन में हिंसा का संस्कार है। उस हिंसा के संस्कार की स्मृति जाग्रत हो रही है। अत: हिंसा का मूल वर्तमान घटना से ज्यादा हिंसा की स्मृति है। घटना तो परिणाम है।

हमारी चेतना जैसे-जैसे जाग्रत होगी, ऊपर उठेगी, हिंसा स्वत: समाप्त हो जाएगी। महाप्रज्ञ ने लिखा था कि हिंसा छोड़ने से समाप्त नहीं होती, करने से समाप्त नहीं होती, केवल चेतना के जागरण से समाप्त होती है। उससे हिंसा का संस्कार समाप्त हो जाता है। न स्मृति रहती है, न ही घटना। हमारी भौतिकता के तल में छिपी हुई कोई ऎसी प्रखर ज्योति है जो निर्णय ले रही है और वह निर्णय हमारे बाहर तक पहुंच रहा है। भीतर हमारा अस्तित्व होता है- मैं हूं। बाहर हमारा व्यक्तित्व रहता है-“मैं” विशिष्ट हूं। “मैं” सदा बाहर देखता है। “हूं” भीतर देखता है।

शास्त्र की भाषा में कहें तो भाव-हिंसा मुख्य है, द्रव्य हिंसा नहीं। बलपूर्वक यदि द्रव्य हिंसा रोक भी दी जाए तो भाव-हिंसा तो प्रज्ञा के जागरण से ही रूकती है, न कि किसी कानून के द्वारा। सच्ची अहिंसा तो तब है जब भाव हिंसा अर्थात् मान, माया, क्रोध, लोभ की कषाय मन्द हो। स्पष्ट है कि यह समझ पैदा होने पर ही सम्भव है, कानून के बनाने से नहीं और यही सच्चा अहिंसा धर्म है।

September 13, 2015

धर्म को धर्म रहने दें-1

इस देश में धर्म तो सनातन है। हजारों वर्षो से चला आ रहा है। उसको ही आज हिन्दू धर्म का जामा पहना दिया गया। नया शब्द चल पड़ा-हिन्दुत्व। धर्म की आड़ में हिन्दुत्व राजनीति का अखाड़ा बन गया। धीरे-धीरे प्रत्येक धर्म-समुदाय में राजनीति प्रवेश कर गई। जहां हजारों वर्षो में धार्मिक पर्वो-परम्पराओं को लेकर कभी राजनीति नहीं हुई, वहीं आज जैन पर्व पर लगी मांस की बिक्री पर रोक में राजनीति घुस गई। कुछ लोग तो इतने आक्रामक हो गए मानो स्वयं हिंसक हों। मांस के प्रति उनके मन में इतना राग, कि सभी धार्मिक सहिष्णुता द्वेष में बदल गई। मुम्बई में तो मानो कोहराम ही मच गया।

क्या इस कोहराम के पीछे जैन समुदाय था? क्या सरकार का आदेश सत्तर वर्षो में पहली बार आया? क्या आदेश जारी करने वाली पार्टी-भाजपा-के साथ शिवसेना भागीदार नहीं थी? तब क्या उद्धव ठाकरे का ऎलान राजनीति नहीं थी? क्यों एक-एक करके भाजपा शासित प्रदेशों में ही मांस-ब्रिकी पर निषेध लागू होने के समाचार टीवी पर चलाए जा रहे हैं? क्या गैर-भाजपा शासित राज्यों में ऎसे आदेश जारी नहीं हुए अथवा वहां कोई राजनीति नहीं हुई? ऎसा लगता है कि बिहार चुनाव के मद्देनजर यह एक जैन कार्ड हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को गहरा करने की नीयत से फैंका गया। बिहार के बाद आगे के महीनों में बंगाल, केरल, तमिलनाडु और असम में विधानसभा चुनाव होने हैं। शिवसेना वहां होगी ही नहीं। उसने अपने ही निर्णय को अपने पांव पर दे मारा।

पर्व कोई नया नहीं, निषेध कोई नया नहीं। प्रतिवर्ष पर्व आते हैं, निर्देश जारी होते हैं। दुकानें भी बन्द होती हैं। किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं होती। इस बार सब कुछ उल्टा हो रहा है। कुछ माह पहले केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने गौ-मांस के विरूद्ध आवाज उठाई। उन्हीं के साथी केन्द्रीय मंत्री किरण रिजिजू विरोध में खडे हो गए। रिजिजू ने तो यहां तक कह डाला कि कोई रोककर तो दिखाए। तब उद्धव कहां थे? अब कश्मीर भी इसी मुद्दे पर सुलग गया। एक तरफ भाजपा मांस बिक्री पर रोक लगाकर हिन्दू मतदाताओं को रिझाना चाहती है, दूसरी ओर वही भाजपा इसका भी विरोध शिवसेना से करवाती है। गौ-मांस बिक्री का समर्थन करती है उत्तर-पूर्व में और निषेध जारी करती है महाराष्ट्र और कश्मीर में? ऎसी स्थिति में न्यायालय क्या कर सकता है? किसी की निजी आस्था पर रोक तो वह भी नहीं लगा सकता।

इसे सामाजिक पहलू ही मानना चाहिए। यदि कोई राजनीति करता है तो समाज को ही आगे आकर संवाद कर लेना चाहिए। वैसे भी दो या चार दिन की जो बात है, वह एक-एक दिन की ही है। एक साथ चार दिन तो बिक्री बंद होती भी नहीं है। एक दिन की बिक्री बरसों से बन्द रहती रही है, जब रेफ्रीजरेटर नहीं होते थे तब भी। जीवन धार्मिक सोहार्द्र से ही चलता है। यही मांस बिक्री निषेध के आदेश राजस्थान-एम.पी.-छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित प्रदेशों में भी जारी हुए हैं। वहां पर शिवसेना जैसी प्रतिक्रिया क्यों नहीं हुई? वहां पर राजनीति न करने का भी तो कोई सोचा-समझा कारण होगा!

देशहित में है कि धर्म को धर्म ही रहने दिया जाए। राजनेता और राजनीति अवसरवादी होते हैं। इनको न हिन्दुओं से कोई मोह है, न मुस्लिमों से, न ही आदिवासियों से। ये तो सत्ता में रहना चाहते हैं-जनता को बांट-बांटकर। एक ही तरीका रह गया है कि जनता भी अपने कानों में अंगुली डाल ले। नेताओं की भाषा से प्रभावित होने के बजाए भाईचारे के रास्ते शान्ति से जीते चले जाएं। – क्रमश:

September 10, 2015

हिन्दी ही असली स्वतंत्रता

सत्तर सालों से तो हमारे नेता संस्कृति के नाम पर थूकते हैं-चाटते हैं, थूकते हैं-चाटते हैं। यही मजाक हिन्दी के साथ भी हो रहा है। वरना हम से बाद में आजाद हुए देश हमसे आगे कैसे निकल जाते?

आज से भोपाल में दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन शुरू हो रहा है। देश-विदेश से आए मनीषी हिन्दी के माध्यम से शब्द ब्रह्म पर चर्चा करेंगे। भाषा और आत्मा के सम्बंधों पर मंथन होगा। केवल मातृभाषा ही भीतर बैठे पिता के स्वरूप को समझ सकती है। यह सम्बंध ही हमारी स्वतंत्रता की जड़ है, अन्यथा हम परतंत्र हैं। हम इन सब विद्वतजनों का हार्दिक स्वागत-अभिनंदन करते हैं।

विभिन्न सरकारों द्वारा प्रायोजित जितने भी सम्मेलन होते हैं, वे लगभग सभी हाथी के दिखावटी दांत ही साबित होते हैं। यहां तक कि निवेशकों के नाम पर किए जानेे वाले सम्मेलन और यात्राएं भी परिणाम शून्य कही जा सकती हैं। जनता के धन के सहारे सरकारी दौर-दौरे का क्रम बन जाता है। भोपाल के विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए विदेशी हिन्दी लेखकों को निमंत्रित करने के लिए विदेश विभाग से अधिकारी भेजे जाने की चर्चाएं भी खूब हैं। लेकिन जिन लेखकों को भारत सरकार अथवा विभिन्न सरकारें सम्मानित कर चुकी हैं, उनको बुलाने के लिए तो कोई चपरासी भी नहीं भेजा गया। अधिकांश प्रतिष्ठित हिन्दी लेखकों को तो डाक से भी निमंत्रण-पत्र नहीं मिला होगा। तब अन्य भाषाओं के सम्मानित लेखकों की तो चर्चा ही क्यों की जाए?

पिछले सत्तर साल में विभिन्न सरकारों ने हिन्दी भाषा तथा हिन्दी शिक्षा की जो दुर्दशा की है, उससे यह तो प्रमाणित हो गया है कि देश के शीर्ष पदों पर बैठे अंग्रेजों को तो हमने हटा दिया, उनकी जगह हम बैठ गए, किन्तु उनके तंत्र को ही हमने हमारा “तंत्र” घोषित कर दिया। उस संस्कृति और सभ्यता को आधार बनाकर आज हम नीतियां बना रहे हैं। भले ही ये नीतियां हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाएं। यही हाल हिन्दी और सनातन परम्परा का हुआ है। सत्तर सालों से तो हमारे नेता संस्कृति के नाम पर थूकते हैं-चाटते हैं, थूकते हैं-चाटते हैं। यही मजाक हिन्दी के साथ भी हो रहा है। वरना हम से बाद में आजाद हुए देश हमसे आगे कैसे निकल जाते? हमारे देश के नेताओं का कद भी समय के साथ बौना होता जा रहा है। इसका कारण भी विदेशी संस्कृति की नकल ही है। जिसका आधार है, अंग्रेजी। हमें संस्कृति और भाषा को जोड़कर चलना होगा।

हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है। कितने गौरव की बात है! जैसे कि वेद हमारे ज्ञान के भण्डार हैं। इतने पवित्र हैं कि इनके आगे अगरबत्ती जलाते हैं, लेकिन काम में नहीं लेते। उसी तरह हिन्दी भी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन राज भाषा नहीं है।

सरकारी कामकाज एवं न्यायपालिका कहां हिन्दी में कार्य कर रहे हैं? इसीलिए इन तक आम आदमी की पहुंच नहीं बन पाई है। क्यों बीच में दलालों की जरूरत हो? क्यों अधिकारियों के शिक्षण-प्रशिक्षण आज भी अंग्रेजी में हो रहे हैं? क्यों उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम हिन्दी भाषा में नहीं हैं? हम विदेश यात्राओं में (सरकारी) हिन्दी क्यों नहीं बोलते? चीन-जर्मनी-जापान में तो अंग्रेजी बोलेंगे तब भी वे नहीं समझेंगे। यूं तो सम्पूर्ण दक्षिण और पूर्वी भारत हिन्दी सिनेमा देखता ही है। कहने का अर्थ है कि हम चाहें तो हिन्दी को आसानी से अनिवार्य कर सकते हैं। अंग्रेजी में झूठी शान के अलावा बड़ा नुकसान संस्कृति के ह्रास का है। पिछले 70 सालों में इसी बड़े नुकसान को ये देश झेलता आ रहा है। हिन्दी के आते ही विदेशी संस्कृति छू-मंतर हो जाएगी। आम आदमी का फिर कभी अपमान नहीं होगा।

सरकार यदि मन से हिन्दी के पक्ष में है, तो इस सम्मेलन में उसे घोषणा के साथ संकल्प करना चाहिए कि दस साल बाद देश में हिन्दी पूर्ण राज-काज की भाषा हो जाएगी। उसके बाद न अंग्रेजी रहेगी न “इण्डिया”! रहेगा तो केवल “भारत”। इस बीच शिक्षण-प्रशिक्षण की सम्पूर्ण तैयारियां हो जाएंगी। अफसर हिन्दी बोलेंगे, प्रार्थी न्यायालय में स्वयं अपनी बात हिंदी में रख सकेगा। विकास का स्वरूप और गति बदल जाएंगे। आम आदमी विकास में भागीदार होने लगेगा। आज तो कानून भी विदेशों की तर्ज पर अंग्रेजी में बनते हैं। इसलिए तो हाथी के बाहरी दांत ही साबित हुए हैं। भला आम आदमी इन कानूनों को कहां समझ पाएगा? हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि अतिशीघ्र हिन्दी राज-काज और जीवन से जुड़े ताकि यह देश अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी से भी मुक्त हो सके । अब हमारा अंग्रेजों की मातृभाषा में कौन सा स्वार्थ रह गया है, जिसके आगे हम अपनी मातृभाषा को दुत्कार रहे हैं?

September 8, 2015

वादे हैं वादों का क्या!

हमारे देश का लोकतंत्र आज रहस्यमय चौराहे पर खड़ा है। सांस्कृतिक रूपान्तरण हो रहा है हमारे लोकतंत्र का। बेटा घर के संस्कारों को स्वीकार करने को राजी नहीं है। हर अपने संकल्प को तोड़ देना चाहता है जो उसने ईश्वर के सामने किया हो। राजनीतिक दलों का भी यही हाल है। वे भी सवा सौ करोड़ जनता के सामने किए हर वादे को भूल जाना चाहते हैं। पहले कांग्रेस ने हमेशा यही किया और अब भारतीय जनता पार्टी का चुनावी घोषणा-पत्र भी राजनीतिक मुखौटा बनकर रह गया। संविधान मौन है, कानून लाचार है, चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त शून्य में चले जाते हैं परिणाम घोषित करके। रह जाते हैं एकमात्र शीर्ष पुरूष-महामहिम राष्ट्रपति। वे केवल सलाह दे सकते हैं सरकार को। मानें न मानें!

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं भाजपा की हाल ही दिल्ली में हुई समन्वय बैठक में यह तो स्पष्ट हो गया कि केन्द्र सरकार के एजेण्डे में धारा 370 तथा अयोध्या के राम मंदिर निर्माण का मुद्दा शामिल नहीं है। समान नागरिक संहिता की अब कहीं बात भी नहीं होती और काले धन को वापस लाने की बात को तो सरकार ने राजनीतिक झुनझुना कहकर दाखिल दफ्तर कर दिया है। रही बात “न खाऊंगा, न खाने दूंगा” की, तो खुलेआम अपने भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे नेताओं को बचाते रहना स्वत: प्रमाण है। यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि घोषणा-पत्र के मुद्दों से मुकर कर सरकार फिर से चुनाव जीतने के सपने देख रही है। हम को तो साल भर में ही लोकप्रियता का ग्राफ गिरता जान पड़ रहा है। उनको यह लग रहा है कि सरकार जो कुछ कर रही है, वह ही एक मात्र सही मार्ग है विकास का। इतने सारे मंत्री, अफसर, न्यायाधीश भी कुछ बोझ दिखाई पड़ रहे हैं। इनकी भी छंटनी हो जाने की चर्चा है।

प्रश्न मूल में यह रह गया है कि जिन वादों को जन-जन के सामने रखकर भाजपा ने वोट मांगे थे, चाहे घोषणा-पत्र में लिखकर अथवा फिर चुनाव सभाओं में बोलकर, क्या वे सब ही मात्र “लॉलीपॉप” थे? मान भी लें तो जनता यह तो अवश्य जानना चाहेगी कि अपने काल में भाजपा सरकार देश और देशवासियों के लिए क्या करना चाहती है, जो इन वादों से भी मूल्यावान हों। जिस संघ से भाजपा की उत्पत्ति हुई, उसके प्रमुख मोहन भागवत को जेड सुरक्षा की बेडियों में बांध दिया। उनकी स्वतंत्रता छिन गई। जनता से लोकतंत्र छिन गया। तब अपने को इतिहास में दर्ज कराने के लिए सरकार ऎसा क्या करना चाहती है? उसे अपना यह मानचित्र या रोड मैप जनता के सामने रखना चाहिए। वरना तो यही माना जाएगा कि कांग्रेस के नकारापन एवं अल्पमत में होने के कारण भाजपा एक पक्षीय निर्णय करने लगी है। भले ही लोकतंत्र खतरे में पड़ जाए। वैसे भी अब तक विपक्ष को समानता का दर्जा दिया ही कहां है? केवल कोसा ही है, आलोचना क रके ही अपना बड़प्पन देश को दिखाया है। कैसे मानें कि कमल पानी से ऊपर रहता है।

प्रश्न यह भी है कि संघ प्रमुख को कैसा लग रहा है। संघ के पदाधिकारी सत्ता भोग में डूब चुके या अभी योग का प्रभाव शेष है। भाजपा को सरकार में लाने के पीछे मुख्य भूमिका (स्वीकृति सहित) संघ की ही थी। चुनावी घोषणा-पत्र के जिन मुद्दों से भाजपा ने किनारा कर दिखाया, वास्तव में वे संघ के ही मुद्दे थे। भाजपा संघ की पकड़ से बाहर हो गई। हां, संघ के कुछ लोगों को सरकारी नियुक्तियां भले ही दे दे। क्या मोहन भागवत इस परिस्थिति को सिद्धांतत: स्वीकार करेंगे? तब क्या यह देश संघ पर अपना विश्वास बना पाएगा? अथवा, संघ और भाजपा बीच की दीवार हटाकर एक हो जाएंगे?

कांग्रेस मौन है। मानो केवल एक परिवार की पार्टी रह गई हो। किंकर्तव्यविमूढ़ है। नीचे के छुटभैया नेताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। सबके पेट भरे हुए हैं। उनकी चेतना भी लोकतंत्र के मुद्दे पर सुप्त है। मां-बेटे जानें और उनकी कांग्रेस जाने। वे मानकर बैठे हैं कि अगले चुनावों में जनता फिर भाजपा के विरोध में मतदान करेगी और कांग्रेस का राज लौट आएगा यह तो लोक तंत्र नहीं हुआ। आज देश को विपक्ष की अत्यन्त आवश्यकता लग रही है। विपक्ष मौन क्यों है? जिस प्रकार संसद में भूमि अधिग्रहण पर एकजुट होकर प्रहार किया था, आज क्या घोषणा-पत्र से मुंह फेरने का मुद्दा छोटा है?

सच तो यह है कि आज सत्ता और विपक्ष दोनों ही लोकतंत्र को अपमानित कर रहे हैं। जनता विकल्पहीन है। शून्य में ताक रही है। अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार चारों ओर अभिवृद्धि पा रहे हैं। तीसरे मोर्चे के दलों का इतिहास भी देखते ही बनता है। ऎसे में पहली आशा तो सदा सत्ता पक्ष से रहेगी। उसने हाथ झाड़ने शुरू कर दिए हैं, तब विपक्ष की बारी आई। अब देश के युवा को ही उठना पड़ेगा। वह आधे से ज्यादा हिस्सा है देश का। उसके सामने तीन साल से कुछ अधिक समय है। भविष्य की नई रूपरेखा बनानी ही पड़ेगी। आज का लोकतंत्र भी किसी गुलामी से कम नहीं। युवाओं के लिए भविष्य नहीं है इसमें। जनता के प्रति वचनबद्धता नहीं है इसमें। भारतीय संस्कृति की आत्मा कहीं गहरे में सिमट गई है। भारतीय शरीरों में बैठा “इण्डिया” ही राज कर रहा है । इससे बड़ा अपमान इस सोने की चिडिया का क्या हो सकता है। जरूरत है इसे अपने पंखों को फड़फड़ाने की। देश के तमाम राजनीतिक दलों पर यह कानूनी बंदिश तो लगनी ही चाहिए कि वे जनता से जो वादे करके सरकार बनाएं वे सौ प्रतिशत पूरे हों। फिर ये वादे चाहे लिखे हों या बोले। तभी जनता जीत पाएगी। नहीं तो जैसे पिछले 68 सालों से हार रही है, आगे भी हारती रहेगी।

September 5, 2015

पढ़े सो पढ़ावे

शिक्षक और अध्यापक का अर्थ पढ़ने वाला भी होता है और पढ़ाने वाला भी। इसका एक ही अर्थ है कि जो पढ़ नहीं सकता, वह पढ़ा भी नहीं सकता। किन्तु कुर्सी का अहंकार ही ऎसा होता है कि उस पर बैठते ही व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। एक तो आज डिग्रियां प्राप्त करने के लिए पसीना ही नहीं बहाना पड़ता, कुछ छात्रों को शायद पढ़ना भी नहीं पड़ता। कुछ कॉलेजों में तो कक्षाएं लगती ही नहीं। एक विश्वविद्यालय ने 25,000 फर्जी डिग्रियां दे डालीं, उनकी खेप को नौकरियां भी मिल गई। शिक्षा विभाग ने कार्रवाई न करके अपने असली स्वरूप की सार्वजनिक अभिव्यक्ति भी कर दी। नौकरी से सरकार के आका भी निकाल नहीं सकते। तब पढ़े कौन और क्यों?

मेरे गुरू स्व. देवीदत्त चतुर्वेदी नित्य रात को तीन-चार घण्टे तैयारी करते थे। मेरे संभावित प्रश्नों का चिंतन-मनन करते थे। अपने गुरू से विषय को पढ़ाने की आज्ञा लेते थे। आचार्य महाप्रज्ञ को बहुत पास से देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। उनके बारे में मेरा मत था कि वे स्वयं अपने लिए नहीं जीया करते थे। उनके आधे दाएं भाग में आचार्य तुलसी का स्थान था और बाएं आधे भाग में महाश्रमण का। अपने गुरू से लेते जाते और शिष्य को देते जाते। पितृ सिद्धांत की तरह ही गुरू परम्परा में भी सात पीढ़ी तक ज्ञान का प्रवाह बना रहता है। ऎसा मनीषियों का कहना है। उनका कहना था कि शिष्य ही गुरू को तैयार करता है। शिष्य नई पीढ़ी का होने से उसके अनुभव और उसकी जीवन-शैली भिन्न होती है। आवश्यकताएं भी बहुत कुछ नई होती हैं। ज्ञान की सार्थकता इसी में है कि वह हर देश-काल में उपयोगी हो सके। शिक्षक को इसी के नवीनीकरण का प्रयास करना पड़ता है, जो एक दुरूह कार्य है। इसके लिए समाज में होते रहने वाले परिवर्तनों का आकलन आवश्यक है। आज बिना कुछ किए ही शिक्षा इतना बड़ा व्यापार बन गई है, कि शिक्षा में ज्ञान की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। पिछले साठ सालों में ज्ञान का स्थान लगभग अज्ञान ने ले लिया है। साहित्य बस रटाया जा रहा है। अनुवाद भी रटाया जा रहा है। वेद भी कंठस्थ कराए जा रहे हैं। इनमें ज्ञान क्या है, कैसे व्यक्ति के जीवन में उपयोगी हो सकता है, कोई नहीं जानता। सायण, उवर-महिधर ने भी अनुवाद ही किए हैं। उन्हीं को हम भी रटा रहे हैं। शोध, नयापन, विज्ञान से आगे उठने जैसी इच्छा किसी के मन में पैदा ही नहीं होती।

इसका एक कारण यह भी है मूल्य परक शिक्षा का लोप हो गया। कम से कम शिक्षक तो पढ़ता। उसको ही अपने आचरण और उत्तरदायित्वों का बोध तो होता। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा नेे प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से धर्म को बाहर निकाल फेंका। स्वयं शिक्षक छात्र-छात्राओं से मर्यादाहीन व्यवहार करने लग गए। ऎसे शिक्षक ही ज्ञान में “घुण” का कार्य कर रहे हैं। अज्ञान के गर्त में समाज को ले जा रहे हैं।

प्राणवान् शिक्षा के लिए पहले शिक्षक को ही राष्ट्र चिंतन के साथ संकल्पित होना पड़ेगा। त्याग के मार्ग पर चलकर आदर्श प्रस्तुत करना पड़ेगा। तब प्रत्येक नागरिक (अभिभावक हो या नेता-अभिनेता) कर्म को धर्म मानकर व्यवहार करेंगे। शिक्षा विभाग, शिक्षण संस्थान तथा शिक्षक आज जिस तरह का व्यापार कर रहे हैं, वे अपनी ही भावी सात पीढियों को “ज्ञान-मुक्त” कर रहे हैं।

August 30, 2015

हमें तो मरना है

सरकारों में आत्मा तक पहुंचने की प्रज्ञा नहीं होती। अत: लगता भी नहीं है कि आरक्षण पर गहन चिन्तन होगा।

आरक्षण का प्रश्न शरीर और बुद्धि मात्र का नहीं है। आत्मा का है तथा मन को साथ लेकर समझना पड़ेगा। वरना, कितने भी बदलाव कर लें कानूनों में, हम भारतीय आत्मा को छू भी नहीं पाएंगे। केवल अपने राष्ट्र प्रेम की दुहाई देने से भी काम नहीं चलेगा। प्रयासों की चर्चा न करके परिणाम लाने के प्रयास होने चाहिए।

भारतीय दर्शन का लक्ष्य है अभ्युदय और नि:श्रेयस । अभ्युदय शरीर का विषय है, जिसके पीछे पूरा विश्व आंखें मूंदकर भाग रहा है। लक्ष्मी चेतना शून्य जड सम्पत्ति है । प्रकृति अथवा माया का विषय है। अर्थ और काम का क्षेत्र है। नि:श्रेयस आत्मा से जुड़ा धर्म और मोक्ष का विषय है। हमारी संस्कृति की परिभाषा में दो शब्द हैं-सम और कृति अर्थात ईश्वर की सृष्टि। नि:श्रेयस इसी के साथ जुड़ा है। इसी के अनुरूप प्रकृति कार्य करती है। शरीर-मन-बुद्धि का संचालन करती है। इसी के साथ समाज व्यवस्था, सम्प्रदाय आदि जुड़ जाते हैं। यह हमारी सभ्यता का निर्माण करते हैं। आरक्षण का मुद्दा सभ्यता का नहीं है, संस्कृति का है। हमारी आत्मा को कचोटता ही रहेगा। राजनीति में संवेदना होती ही नहीं। सत्ता के लिए लोग हर युग में मां-बाप तक को मारते रहे हैं। प्रजा की तो बात ही क्या है? इतिहास साक्षी है- लोकतंत्र में भी सत्ता पक्ष बहुमत के अनुपात में अधिनायकवादी होता ही है। विपक्ष को गालियां देते-देते पांच साल पूरे कर जाता है। कुछ नया होने की, देशहित के मुद्दों पर दूरदर्शी निर्णयों की उम्मीद अब भी नहीं है। घोषणा-पत्र दफन किया जा चुका है। जिस प्रकार की नियुक्तियां हो रही हैं, वह एक नया ही आरक्षण है। आने वाले समय में केवल तीन जातियां ही पैदा होंगी इस देश में। आरक्षित, गैर-आरक्षित और अल्पसंख्यक। तब ब्राह्मण के घर ब्राह्मण अथवा जाट के घर जाट कैसे पैदा होगा। सरकार में तो मात्र तीन श्रेणियां रहेंगी।

अच्छी योग्यता वाले युवा सरकारी नौकरियों से परहेज क्यों करने लग गए? जब उनका पलायन भी होने लगेगा तो सरकार और देश के पास सिवाय “ब्रेन ड्रेन” का रोना रोने के क्या रह जाएगा? फिर आरक्षित वर्ग में भी सभी को इसका लाभ भी नहीं मिल पा रहा।

सरकारों में आत्मा तक पहुंचने की प्रज्ञा नहीं होती। अत: लगता भी नहीं है कि आरक्षण पर गहन चिन्तन होगा। अधिकांश मंत्री भी गहन भारतीय धरातल पर जीते ही नहीं। अफसर भारतीयता को छूना तक नहीं चाहते। वे तो लिव-इन-रिलेशन और समलैंगिकता के कानूनों को पास कराने में रस लेते प्रतीत होते हैं। संस्कृति को जानते तक नहीं है। उनका अधिकार भी सभ्यता तक ठहरा हुआ है। आम जन के प्रति संवेदना वहां भी शून्य है। फिर आधे तो आरक्षण वाले ही हैं। कौन साथ देगा आरक्षण हटाने में? केन्द्र सरकार के पास समय नहीं है। उसे भूमि अधिग्रहण बिल और जी. एस.टी. के मुद्दे अपने अहंकार की तुष्टि के लिए सर्वोपरि लगते हैं। पिछले डेढ़ साल में उसने उल्लेखनीय कुछ किया नहीं। नीचे देखने की जरूरत किसी को नहीं लगती। कोई नहीं देख रहा कि, हमेशा गुणवत्ता की बात करने वाला यह देश कदम-कदम पर गुणवत्ता से समझौता क्यों कर रहा है? अच्छी योग्यता वाले युवा सरकारी नौकरियों से परहेज क्यों करने लग गए? जब उनका पलायन भी होने लगेगा तो सरकार और देश के पास सिवाय ‘ब्रेन ड्रेन’ का रोना रोने के क्या रह जाएगा? फिर आरक्षित वर्ग में भी सभी को इसका लाभ भी नहीं मिल पा रहा। उसमें भी कुछ ही परिवार होते हैं जो मलाई समेटते हैं। अन्य तो उसे देख मिलने का इंतजार ही कर रहे हैं। क्यों आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के दो व्यक्तियों के मध्य होनेे वाली मामूली सी कहा-सुनी कानूनों की आड़ में कोर्ट-कचहरी तक पहुंच जाती है? जब पड़ौस में रहने वाले दो व्यक्ति इस तरह लड़ेंगे तो समाज जुड़ेगा या टूटेगा? इसमें तो जुड़ाव की संभावना दूर-दूर तक नहीं होगी। सब अपना अलग-अलग घेरा बना लेंगे। जबकि प्रकृति में कोई छोटा-बड़ा अथवा अच्छा-बुरा नहीं है। जो जैसा है, वैसा है। हमारी समाज व्यवस्था ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं, जो देश-काल के अनुरूप बदलती रहती हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह हुआ कि हमारे ज्ञान का माध्यम जो भाषाएं थीं, उनमें समय के साथ न जाने कितने परिवर्तन आ गए। मौर्य आए, मुगल आए, अंग्रेज आए और हमारे ज्ञान समर्थक शास्त्रों का भाव भी बदलता गया।

स्वतंत्रता के बाद हमारे ही प्रतिनिधियों ने हमारे ज्ञान की जमकर धज्जियां उड़ाई। संविधान को धर्मनिरपेक्ष कहकर हमारी संस्कृति के साथ भौंडा मजाक ही किया। शासन में धर्म का प्रवेश वर्जित हो गया। हमारी संस्कृति का आधार आश्रम व्यवस्था तथा इसी के साथ वर्ण व्यवस्था रही है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु एवं प्राणी में वर्ण रहते हैं। चाहें पेड़-पौधे हों, पत्थर हों, या जीव जगत। आकृ ति का आधार पृथ्वी है, मन का आधार चन्द्रमा है। यह रजोगुण प्रधान है। इसी चन्द्रमा के देव प्राण से मानव के वर्ण का विकास हुआ। शरीर कर्म प्रधान है। प्रकृतियुक्त देवप्राण के प्रभाव को जन्ममूला कहा गया है- “प्रकृतिविशिष्टं चातुर्वण्र्य संस्कारविशेषाच्च।” प्रकृतिमूला वर्ण अवर्ण आठ भागों में विभक्त है।

सूर्य के “धियो यो न: प्रचोदयात्” से मानव के बुद्धि तंत्र का विकास हुआ। सत्वगुण प्रधान तथा अहंकृति भाव से समन्वित है। इससे गोत्र भाव का विकास होता है। क्योंकि सौर प्राण ऋषि रूप हैं। अर्थात् वर्ण प्रकृति सिद्घ हैं, गोत्र अहंकृति सिद्घ हैं तथा समदर्शन आत्मसिद्घ है। अन्न प्राशन संस्कार के समय बालक के सामने पुस्तक, कलम, चाकू एवं झाड़ू रखा जाता है। बच्चा पहले किस वस्तु को छूता है, उसी से उसके वर्ण का निर्धारण किया जाता है। अर्थात् वर्ण किसी वर्ग या जाति से नहीं जुड़ा होता। किसी भी वर्ण के व्यक्ति के घर में किसी भी वर्ण की संतान उत्पन्न हो सक ती है । ब्राह्मण-पुत्र भी ब्राह्मण वर्ण का हो, यह आवश्यक नहीं है। अत: कोई मानव एक-दूसरे से भिन्न नहीं हो सकता।

आज समाज में शूद्र शब्द को अपमानजनक माना जाता है- जबकि शास्त्र कहते हैं- “जन्मना जायते शूद्र: संस्काराद् द्विज उच्यते।” जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है, चाहे किसी कुल में क्यों न पैदा हुआ हो। तब शूद्र अपमान सूचक कैसे हो सकता है? कैसे ये भेद-भाव का आधार हो सकता है? शास्त्रों के निर्माण के बाद तो सब कुछ बदल चुका है। धर्म और छुआछूत की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका है। अन्तर्जातीय विवाहों का सिलसिला तक चल पड़ा है। आने वाले समय में तो समाज व्यवस्था भी लुप्त हो चुकी होगी। एकल परिवार-मुक्त व्यवहार होगा। तब इस समाज व्यवस्था को तो बदला ही जा सकता है। आज तो अनेक जातियां ही लुप्त हो चुकी हैं। शेष भी तेजी से लुप्त हो रही हैं। अब नई जातियां-डाक्टर, इंजीनियर, सीए, एमबीए आदि पैदा हो रही है। इसी तरह अल्पसंख्यक के घर में अल्पसंख्यक पैदा होगा। आरक्षित परिवार का बच्चा आरक्षित होगा। उनको मनुष्य धारा में जीने का अधिकार नहीं होगा। उनका अपना-अपना कोटा होगा। यह हमारी पिछले अड़सठ सालों की कमाई है। जो काम 700 सालों में मुगल नहीं कर पाए, 200 सालों में अंग्रेज नहीं कर पाए, वही उजाड़ मात्र पांच मिनट में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह कर गए। यह कांटा कोई बौद्धिक तर्क से निकलने वाला कांटा नहीं है। देश को बांटने का इतना सहज उपक्रम शायद इतिहास में अन्यत्र नहीं होगा। आरक्षण!!

आरक्षण! देश भर में पिछले साठ सालों में इसके विरोध में कितनी आवाजें उठीं, जुलूस निकले, गोलियां चलीं और सैकड़ों मर चुके। क्या किसी नेता, अफसर या न्यायाधीश की पेशानी पर पसीना दिखाई पड़ा? आज तो किसान हत्या के जुमले चल रहे हैं जिनके बीच आरक्षण की आवाजें दब चुकी हैं। गुजरात में अहमदाबाद की यह हार्दिक पटेल की रैली जिसमें आरक्षण को पूरी तरह समाप्त करने या फिर पाटीदारों को भी आरक्षण देने की जो मांग की गई वह क्रान्ति का बिगुल जैसी है। हर प्रांत में बजना चाहिए। कोई सुने या न सुने।

देश में समय-समय पर हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन अब तक लगभग 500 जानें ले चुके। सरकार की गोलियों से। समानता लाने के स्थान पर इतनी असमानता छा गई कि हम स्वयं अपने ही लोगों के लिए शत्रु बन बैठे। पहले तो अल्पसंख्यकों के नाम पर हिन्दू-मुसलमानों के दो धड़े बन गए। आरक्षण चूंकि केवल हिन्दुओं पर ही लागू है, अत: इनको भी 50-50 कर दिया। किया सब विकास के नाम पर, बिना समाज को शिक्षित किए। आज केवल इस एक कारण से देश साठ साल आगे जाने के बजाए साठ साल पीछे चला गया। राजनेता इसी पर छाती फ ुलाते हैं। आम जन इसी की मार से कराह रहा है। उसके काम होने बंद हो गए, अपशब्द और झूठी शिकायतों की भरमार हो गई। आरक्षण का सीधा प्रभाव बदले की भावना में बदल गया और व्यक्ति काम करना छोड़कर इसी में व्यस्त हो गया। सरकारी काम भी लगभग खड़ा सा हो गया। भ्रष्टाचार कई गुना हो गया। उच्च शिक्षा निम्न कोटि में बदल गई। जो नेता देश के विकास के जुमले कहते हैं, वे हमारी आंखों में धूल झौंकते हैं। आरक्षित वर्ग के लोग आरक्षित वर्ग के डाक्टरों तक से इलाज कराने को तैयार नहीं। सरकारी अफसर निजी अस्पतालों में जाने लगे। एक ओर गुणवत्ता का ह्रास, दूसरी ओर काम में कमी, अपमान का वातावरण हमारे विकास की सीढ़ी हो गई । अल्पसंख्यक तथा दो बराबर भागों में हिन्दू तीनों एक-दूसरे के आमने-सामने हो गए एक ही देश में । अंग्रेजों ने भी देश का इतना नुकसान तो नहीं किया था। कोई आश्चर्य नहीं 80-100 सालों में गुलामी फिर इस देश को जकड़ ले।

विवेकानन्द ने कहा था “गाली देना काम नहीं आएगा। तुम भी पढ़ो और इनके बराबर हो जाओ।” किन्तु आरक्षण ने भेद-भाव का आधार भी बढ़ा दिया और उसको दृढ़ भी कर दिया। आज समृद्घ व्यक्ति को यह कहकर भगा दिया जाता है कि “….”, “तुमने ही हमको सताया है। भाग यहां से।” गरीब के लिए मनरेगा। इतिहास गवाह है कि पहली शताब्दी से 350 वर्ष तक देश में शूद्रों ने ही राज किया है। किन्तु जिस प्रकार सरकारी मन्दिरों में चैन्नई सरकार ने शूद्रों को पुजारी बना दिया था, मंत्र संस्कृत के स्थान पर तमिल में बोलने के निर्देश दिए गए थे, उससे तो आग भड़कनी ही थी। यह वैसा ही रवैया था जैसा हिन्दी के विरोध में दिखाया था। इन राजनीतिक कार्यो से व्यक्ति की चेतना में भेद और भी दृढ़ हो जाता है। तब मन में शत्रुता घर कर जाती है। हर व्यक्ति के भीतर उसका शिव तत्व (परमात्मा) रहता है। उसकी चेतना स्वतंत्र होती है।

हमने एक बात नहीं समझी। व्यक्ति की प्रकृति, बौद्धिक क्षमता, आकृति, अहंकृति कुदरत देती है। पद के कारण प्रतिभा नहीं आ जाती। जाति और वर्ण भी एक नहीं है। जातियां लुप्त हो रही हैं। हम पढ़ाना चाहते हैं, किंतु नौकरियां दे नहीं पाते। दसवीं पास बच्चा कुम्हार या खाती बनने को तैयार नहीं। आरक्षण से एक ओर अक्षम को नौकरी मिल रही हैं, क्षमतावान बेरोजगार रहता है। फिर भी साठ साल में क्या आरक्षण ने आरक्षित जातियों के विकास के मार्ग खोले? जरा भी नहीं खुले। क्या उन जातियों में विकास के समान अवसर उपलब्ध हुए? क्या इस कारण देश में धर्म परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हुआ? न कोई सरकार यह कह पाई कि हिन्दुओं में ही ऎसा क्या है कि वहां आरक्षण अनिवार्य है। क्या तीनों वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के घरों में शूद्र पैदा नहीं होते? हम शब्दों को पकड़ते हैं। व्यंजना नहीं करते। प्रकृति में विषमता है ही नहीं। केवल कर्मफल है। भारतीय दर्शन भी समता आधारित है। कालक्रम का प्रभाव अवश्य पड़ता है। तब हम सब भारतीय क्यों नहीं हैं?

भारत सम्पन्न देश था। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद यूरोप दरिद्र हो चुका था। अंग्रेजों ने हमारे संसाधनों पर अतिक्रमण कर लिया और हम दरिद्र हो गए। फिर अंग्रेजी के बीज बो गए, तो हमारा ज्ञान से सम्पर्क ही टूट गया। कोरा विज्ञान रह गया। चेतना सुप्त हो गई। पंचवर्षीय योजनाएं कृषि और पशुधन पर आधारित नहीं रही। संविधान का भी भारतीयकरण नहीं हो पाया। विकास के लिए अब समान अवसर नहीं रहे। तब हमें तो कंगाल ही होना है। भ्रष्टाचार हमको और भिखारी बना रहा है। सभी नेता मांगने की भाषा बोलने लगे। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में स्वयं दलाली खाने लग गए। चुनावी घोषणा-पत्रों को लाल बस्ते में बंद कर देते हैं। इन सभी विनाशकारी दृश्यों के मूल में आरक्षण है।

जब संविधान में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई, उस वक्त देश के हालात कुछ अलग थे। आरक्षण का सीधा फायदा सरकारी नौकरियों में मिलना था। सरकारी नौकरियां सीमित थी। शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी इन दशकों में अधिक नहीं हुआ था। केंद्र और राज्यों के सरकारी विभागों का विस्तार और नए विभागों का गठन पूरी तरह नहीं हुआ था। समाज के बड़े और गैर-आरक्षित वर्ग के लिए भी सरकारी भर्तियों में ज्यादा संभावना नहीं थी। आजादी के प्रारम्भिक दो दशक तक इसका देश और समाज पर व्यापक असर नहीं पड़ा। वर्ष 1980 के दशक के बाद आरक्षण ने गैर-आरक्षित वर्ग को प्रभावित करना शुरू किया। इस दौर तक एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो चुकी थी। संविधान में आरक्षण का जो विष बीज बोया गया था, वह अब वट वृक्ष बनकर पनपने लगा। एक तरफ उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक अंक लाने से भी कम अंकों पर सरकारी नौकरियां मिलने लगी तो दूसरी तरफ अच्छे-खासे अंकों के बाद भी नौकरी सपने सरीखी रही। इस अदृश्य सामाजिक अंतर से देश में वर्ग विभाजन की दरार उभरने लगी। यहां तक भी समाज का गैरआरक्षित वर्ग आरक्षण के विषपान को हलाहल करता रहा। नब्बे के दशक के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के दायरे में शामिल करके तो मानो देश की सामाजिक समरसता-सौहार्द के साथ एकता- अखंडता को रौंद डाला गया। दलितों को आरक्षण देने से देश में उभरी विभाजन रेखा ओबीसी को आरक्षण देने के बाद खाई में बदल गई। एक ऎसी खाई जिसका फैलाव आज तक जारी है। समाज के अन्य वर्ग भी जाति, धर्म, लिंग और भौगोलिक आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे। राजनीतिक दलों ने जिस खेल को अपने निहित स्वार्थो के लिए शुरू किया। उससे देश की शिराओं में जातिवाद विष बन कर बहने लगा। मांग पूरी नहीं करने पर हिंसा, तोड़फोड़ और कानून-व्यवस्था चौपट कर दी गई। हरियाणा में जाटों, राजस्थान में गुर्जरों और अब गुजरात में पटेलों के आरक्षण की मांग को लेकर आई कर्फ्यू की नौबत से समूचा देश स्तब्ध है। राजनीतिक दल सत्ता की खातिर इनकी मांगों के सामने झुकते गए और मजबूत देश का ख्वाब टुकड़ों में बदलता गया। इससे देश की भौगोलिक सीमाएं भले ही अपरिवर्तित रही हों पर हकीकत में देश एक ऎसे ढांचे में बदलता जा रहा है, जिसकी ऊपरी परत बेशक सुदृढ़ नजर आए पर अन्दरूनी हिस्से लगातार जर्जर हो रहे हैं।

आश्चर्य की बात है कि न्यायपालिका ने भी देश के इस दर्द को नहीं समझा। न्यायपालिका भी शब्द जाल में ही अटककर मानो रह गई अथवा सत्ता पक्ष से प्रभावित हो गई थी। सत्ता पक्ष का अहंकार तो शाश्वत है। पिछली सरकारें हों या वर्तमान सरकार, देश हित के प्रति गंभीर नहीं रहे। हिन्दुओं को तोड़कर कोई अपने को हिन्दुवादी कह सकता है? पिछली सरकार जीवनशैली से जुड़े कितने कानून लाने चली थी। क्या देशवासियों की राय जानना कतई आवश्यक नहीं रह गया है? आरक्षण के विरोध में तो आज पूरा देश एकमत है। देश पीछे जा रहा है। सामाजिक वातावरण विषाक्त हो रहा है। विकास के स्थान पर विनाश हो रहा है और सत्ताधीश मतदाता की ओर देखकर अट्टहास करते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। बेरोजगारी, विषमता, भारतीय संसाधनों में विदेशी निवेश आरक्षण आन्दोलन को हवा ही देंगे। सरकारें तो अपना ही सोचने लगी हैं, देश का भविष्य समय ही तय करेगा।

August 20, 2015

संथारा/सल्लेखना

जैन धर्म मूल में त्याग और तपस्या के मार्ग पर चलकर जीने का मार्ग है। शरीर को साधन मानकर आत्मकल्याण इसकी प्राथमिकता है। हर वर्ष भाद्रपद माह में हजारों जैन मासखमण (एक माह के निर्जल उपवास) करते हैं। वेद भी शरीर को साधन मात्र ही मानता है। कालिदास ने “कुमारसंभव” में लिखा है-“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।” पुरूषार्थ का लक्ष्य भी मोक्ष प्राप्ति (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) ही है। यह भी सच है कि भौतिक सुख की अवधारणा के बीच आत्मा मर चुकी है, मात्र शरीर जीवन का प्रतीक रह गया है। शिक्षा ने हमारे कर्म, कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्घांतों को ताले में बंद ही कर दिया। सारे धर्म और दर्शनों के अर्थ ही बदल गए।

राजस्थान हाईकोर्ट ने दस अगस्त 2015 को दिए अपने एक निर्णय में जैन धर्म की संथारा/सल्लेखना की पद्घति को आत्महत्या की परिभाषा में सम्मिलित कर दिया। कोर्ट ने कहा कि “जैन धर्म के शास्त्रों में, अभ्यास अथवा प्रवचनों में कहीं भी संथारा/सल्लेखना का उल्लेख नहीं पाया गया। न ही यह पाया कि मोक्ष प्राप्ति के लिए संथारा एक अनिवार्यता है। न ही किसी ऋषि-मुनि ने यह लिखा कि संथारे के अभाव में मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती। न ही इसके प्रमाण ही सामने आए कि जैन धर्म के अनुयायियों में यह सिद्घान्त प्रचुरता में पालन किया जाता है। संथारा को स्वैच्छिक कृत्य कहकर आत्महत्या न मानना एक बात है तथा संविधान की धारा 25 और 26 में स्वीकृत करना दूसरी बात है। न ही धारा 21 में जीवन समाप्त करने का अधिकार दिया जा सकता है। “धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार” में भी स्वयं मृत्यु मार्ग के चयन की स्वीकृति नहीं दी जा सकती। अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी नहीं। अत: सरकार इस परम्परा को बंद करावे तथा इसे धारा 309 के अन्तर्गत आत्महत्या का दर्जा दिया जाए। जैन धर्म में अब किसी भी रूप में संथारा परम्परा को प्रश्रय न दिया जाए।”

आज जैन धर्म विश्व के धर्मो के बीच अपनी पहचान रखता है। लगभग 2500 वर्ष पुराना तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के नाम से पहचाना जाने वाला धर्म है। जीवन भर तप-त्याग के साथ जी कर, अन्तिम काल में निवृत्ति का अभ्यास और “संथारा” का योगमार्ग दिया गया। संथारा का सामान्य अर्थ है बिछौना। यह श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित है। दिगम्बर परम्परा में इसे सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना का अर्थ है-कृश कर देना। किसको? क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों को, जो मोक्ष मार्ग के मुख्य बाधक हैं। इसको ही धर्माचरण कहा गया है। जब तक शरीर धर्माचरण में सहायक रहता है, उसका पोषण किया जाता है।

जब शरीर इस कार्य में असमर्थ हो जाए तब उसका पोषण बंद कर दें। जीवन खाना खाने के लिए नहीं है। भोजन छोड़ देना “भक्त प्रत्याख्यान” कहलाता है। दिगम्बर मुनि तो भिक्षा के लिए स्वयं जाते हैं। खड़े-खड़े आहार ग्रहण करते हैं। इसमें असमर्थ होने पर स्वयं ही आहार का त्याग हो जाता है।

प्रश्न यह है कि क्या संथारा/सल्लेखना को आत्महत्या माना जा सकता है? पांचवीं शताब्दी ईस्वी में जैनाचार्य पूज्यपाद के सामने भी यही प्रश्न आया था। उस उत्तर को सर्वार्थसिद्घ अध्याय (संग्रह) भा.ज्ञानपीठ-1955 में उद्घृत किया गया है । जैनेन्द्र सिद्घान्त कोश (4) में सवार्थसिद्धि उद्घृत करते हुए कहा गया है कि- “सल्लेखना आत्महत्या नहीं है। क्योंकि इसमें प्रमाद का अभाव है । प्रमाद योग (क्रोध-मान-माया-लोभ) सेे प्राण का वध करना हिंसा है। राग-द्वेष, मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्रादि से अपना घात करता है, वह आत्महत्या है। सल्लेखना प्राप्त जीव को रागादिक तो होता नहीं है। यह तो अहिंसा (रागादिक न होना) है।”

जैन धर्म का प्राचीनतम ग्रन्थ है “आयारो”। इसे महावीर की वाणी ही माना जाता है। इसका आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा किया गया अनुवाद तथा विवेचन भी उपलब्ध है। जिस प्रकार प्रथम ब्रह्मसूत्र है-“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”, वैसे ही जैन दर्शन का भी मूल मंत्र है-“अथातो आत्मजिज्ञासा”। यही कर्ता और भोक्ता है, बंध और मोक्ष का कारक है। ज्ञान और आचार मिलकर मोक्ष का हेतु बनते हैं। भगवान महावीर ने आचार के पांच भेद किए-ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और वीर्य। आचार सबके साथ जुड़ा है, अत: मोक्ष का सम्यक् उपाय है। अर्थात् शरीर और कर्म का अनिवार्य योग है।

“न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:”-गीता 18/11

“राग-द्वेष से कर्म करना और फलाशंसा रखना, ये दोनों असंयम हैं।”

आचारांग और गीता एक ही तथ्य प्रकट कर रहे हैं।

भगवान महावीर का दर्शन समता का है। उन्होंने समता के द्वारा जीवन के रूपांतरण की दिशा प्रदर्शित की। आचारांग के मूल प्राकृत सूत्र 125 के हिन्दी अनुवाद में प्रायोपगमन अनशन पर लिखा है-जिस भिक्षु को ऎसा संकल्प होता है-

“मैं इस समय (समयोचित क्रिया करने में) इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ) महसूस कर रहा हूं ।” वह भिक्षु क्रमश: आहार का संक्षेप करे, कषायों को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधि-मरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शांत करे।”

सूत्र-126 (वह संथारा करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर) गांव, नगर, आश्रम, निगम, राजधानी आदि में जाकर घास की याचना करे। एकान्त में शुद्घ स्थान देखकर घास का बिछौना करे । बिछौना कर उस समय प्रायोपगमन (उत्तर ज्झयणाणि भाग-2) अनशन कर शरीर, उसकी प्रवृत्ति (उन्मेष-निमेष आदि) और गमनागमन का प्रत्याख्यान (अस्वीकार) करे।

सूत्र 127-वह अनशन सत्य है। उसे सत्यवादी वीतराग, संसार-सागर का पार पाने वाला, “अनशन का निर्वाह होगा या नहीं” इस संशय से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, परिस्थिति से अप्रभावित, शरीर को क्षणभंगुर जानकर, नाना प्रकार के परिषहों और उपसर्गों को मथकर, “जीव पृथक् है, शरीर पृथक् है” इस भेद विज्ञान की भावना तथा भैरव अनशन का अनुपालन करता हुआ क्षुब्ध न हो।

128-ऎसा करते हुए भी उसकी वह काल मृत्यु होती है।

129-उस मृत्यु से वह अन्त:क्रिया (पूर्ण कर्म-क्षय) करने वाला भी हो सकता है।

130-यह मरण प्राण-मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है। ऎसा मैं महावीर कहता हूं।

“दिव्य और मानुषी-सब प्रकार के विषयों में अमूर्छित और आयुकाल के पार तक पहुंचने वाला भिक्षु तितिक्षा को परम जानकर, हितकर विमोक्ष-भक्त प्रत्याख्यान, इंगित मरण और प्रायोपगमन-में से किसी एक का आलम्बन ले।-ऎसा मैं कहता हूं।”

आचारांग सूत्र में बहुत विस्तार दिया गया है। संथारा-सल्लेखना को काल-मृत्यु और अहिंसा का दर्जा दिया गया है। इसी प्रकार सल्लेखना का महत्व व फल, प्रधानता, आवश्यकता, निषेध, यो ग्य अवसर अन्त समय की प्रधानता का कारण आदि विषयों पर शास्त्रों में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है।

ऎसे धार्मिक विषयों पर न्यायालयों में चर्चा करते समय मात्र कानूनी दलीलों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। धर्म का विषय आत्मा से जुड़ा होता है। आत्मा कभी मरता नहीं है। जड शरीर नश्वर है, अचेतन है। उसमें विचार करने की चेतना होती ही नहीं। तब आत्महत्या का विषय शरीर के नियंत्रण में भी नहीं रह सकता। अच्छा होता यदि इस फैसले से पूर्व कुछ धर्माचार्यों से चर्चा की जाती। क्योंकि ये प्रज्ञा के विषय हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को सामाजिक नहीं, आत्मा के धरातल पर ही तय करना उचित होगा।

August 18, 2015

आधुनिकता बनाम परंपरा और विरासत

माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय,
राजस्थान उच्च न्यायालय।

विषय:-जयपुर के परकोटा में मेट्रो रेल परियोजना में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की अनदेखी ।

माननीय महोदय,

जैसा कि आप जानते हैं कि जयपुर सांस्कृतिक और ऎतिहासिक विरासतों की दृष्टि से एक सम्पन्न शहर है। करीब पौने तीन सौ साल पहले राजा जयसिंह ने इस शहर को बसाया था। चौड़े बाजार, बरामदे, कंगूरेदार परकोटे और एक जैसी चौपड़ें परकोटा क्षेत्र की खास पहचान है। बेजोड़ पुरामहत्व के जंतर-मंतर, हवामहल, सरगासूली के अलावा प्राचीन धार्मिक स्थल गोविन्द देवजी व ताड़केश्वर मंदिर भी इसी क्षेत्र में आता है। प्रतिवर्ष लाखों देसी-विदेशी पर्यटक इनको देखने जयपुर आते हैं। दु:ख की बात यह है कि जिन प्राचीन धरोहरों और विरासत को देखने के लिए दुनिया भर के पर्यटक गुलाबी नगर की ओर खिंचे चले आते हैं उसी की पहचान परकोटे में मेट्रो रेल के अविवेकपूर्ण संचालन से समाप्त करने की तैयारी की जा रही है।

पिछले साल भर के दौरान मेट्रो रेल के लिए यहां भूमिगत रेललाइन बिछाने के लिए खुदाई के काम में पुरामहत्व की चौपड़ों, मंदिरों व परकोटे को नुकसान पहुंचाने का काम खूब हुआ। चौपड़ों पर खुदाई के दौरान निकले कुंडों का अस्तित्व खत्म कर दिया गया। कुंडों में बने फव्वारे, गोमुख आदि सब क्षतिग्रस्त हो गए। जयपुर की जनता के विरोध के बावजूद गुलाबी नगर के परकोटा क्षेत्र में महज 2.3 किलोमीटर मार्ग पर मेट्रो चलाने के लिए 1100 करोड़ रूपए से ज्यादा की योजना पर काम हो रहा है।

जयपुर मेट्रो के नाम पर पुरातत्व संरक्षण कानून की धज्जियां उड़ाते हुए जो काम हो रहा है, उसे देखकर संविधान की धाराएं उसी तरह कराह रही हैं जैसे जयपुर की जनता। सरकार और उसके अधिकारी जनता द्वारा दिए प्रचण्ड बहुमत के नशे में संविधान की फुटबाल खेल रहे हैं। शहर और उसकी सदियों पुरानी विरासत उजड़ रही है। चारों तरफ सन्नाटा है। बीच-बीच में कोई बुदबुदा उठता है और फू ट जाता है। सब अपनी-अपनी कीमत वसूल कर मौन हैं। शहर के सभी जन प्रतिनिधि हाथ बांधकर सिर झुकाए खड़े हैं। उम्मीद सिर्फ न्यायपालिका से है। कुछ वर्ष पूर्व राज्य के मास्टर प्लान की धज्जियां उड़ने से बचाने के लिए तब राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा गया। न्यायालय ने उसे ही याचिका मान सुनवाई करीब-करीब पूरी कर ली है। अब उन्हीं परिस्थितियों में जयपुर मेट्रो पर राजस्थान पत्रिका के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी का यह पत्र माननीय मुख्य न्यायाधीश की सेवा में प्रस्तुत है।

माननीय, आपका ध्यान इस बिन्दु की ओर दिलाना चाहता हूं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (जियालोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों तथा पुरावशेषों के संरक्षण के लिए जिममेदार है लेकिन ऎसा लगता है कि धरोहरों के साथ हो रहे खिलवाड़ को लेकर उसने भी आज तक चुप्पी साध रखी है।

परकोटे में मेट्रो के नाम पर चौपड़ों को क्षतिग्रस्त करने से लेकर आज तक जितना भी काम हुआ उसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुभवी अधिकारियों की राय ली होती तो इतना नुकसान नहीं होता। पिछले अप्रेल में ही 75 टन की बीस मीटर लम्बी क्रेन एक हवेली और मंदिर पर गिर गई।

माननीय, शहर की ऎतिहासिक चौपड़ें पहले ही इस प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ चुकीं हैं। परकोटे में हजारों इमारतें 250 से 300 साल पुरानी हैं। इनमें से बहुत सी मेट्रो के भूमिगत मार्ग के दोनों तरफ हैं। पुरानी इमारतों के बीच प्रतिदिन कई बार गुजरने वाली मेट्रो के कारण इन इमारतों को खतरा होगा इसको लेकर विशेषज्ञ कई बार चेता चुके हैं। पुरामहत्व से जुड़े कानूनों का सरासर उल्लंघन कर तोड़-फोड़ का काम आज भी हो रहा है। शहर की आबादी की आवश्यकता को लेकर मेट्रो चलनी चाहिए, इसके पक्ष में सब हैं। लेकिन विरासत की कीमत पर हो रहे ऎसे विकास का शायद ही कोई स्वागत करेगा। मेट्रो के प्रस्तावित बड़ी चौपड़ स्टेशन से महज 15 मीटर की दूरी पर जयपुर का शुभंकर हवामहल खड़ा है। वर्ष 1799 में बने हवामहल में सामने महराबदार छोटी खिड़कियों से जुड़ी दीवारें बहुत नाजुक और पतली हैं। हवामहल बिना नींव एक चट्टान पर बना हुआ है। हवामहल क्षेत्र में कई पुरानी इमारतें और तहखाने भी बने हुए हैं। ऎसे में मेट्रो सुरंग के लिए खुदाई के दौरान कम्पन हुआ तो इस ऎतिहाासिक इमारत को हमेशा खतरा बना रहेगा।

माननीय, आपका ध्यान इस ओर भी दिलाना चाहता हूं कि यहां की पुराधरोहर जंतर-मंतर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा दे रखा है। नियमानुसार विश्व धरोहर के बफर जोन में किसी भी तरह के निर्माण कार्य के लिए यूनेस्को की अनुमति लेनी होती है। बफर जोन को लेकर राज्य सरकार के स्तर पर कोई नियम नहीं बने हों तो केन्द्र के पुरातत्व विभाग के कानून ही मान्य होते हैं। ऎसे में मेट्रो का निर्माणा कार्य जंतर-मंतर के बफर जोन में आ रहा है। इसके अलावा करीब ढाई सदी से भी ज्यादा पुरानी 60 फीट ऊंची सरगासूली इमारत के तो बिल्कुल सटाकर ही मेट्रो का काम हो रहा है। ऎसा प्रतीत हो रहा है कि नियोजित नगरीय विकास और पुरामहत्व के लिए विश्व विख्यात गुलाबी नगर की विरासत को मेट्रो की आड़ में विनाश की ओर धकेला जा रहा है। चिंता की बात यह है कि जब से मेट्रो का काम शहर के परकोटा क्षेत्र में शुरू हुआ तब से ही पर्यटकों ने भी गुलाबी नगर से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया है। यही हाल रहा तो पर्यटक किसी हादसे की चपेट में आने की आशंका से गुलाबी नगर से मुंह मोड़ते दिखेंगे।

माननीय, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जिम्मेदारी बनती थी कि वह पुरामहत्व की धरोहरों को नुकसान पहुंचने से रोके। हैरत की बात यह है कि पुरातत्व विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों ने राज्य सरकार और जयपुर मेट्रो रेल कॉरपोरेशन से कभी यह तक नहीं पूछा कि आखिर किसकी अनुमति से धरोहरों को नुकसान पहुंचाने का काम हो रहा है? विश्व धरोहर में शामिल जंतर-मंतर संभवतया अकेली वैधशाला है जिसके यंत्रों की गणना आज भी सटीक बैठती है।

माननीय, ऎतिहासिक हवेलियां, वास्तुशिल्प, कलात्मक जाली-झरोखे, बड़ी-बड़ी चौपडें व चौड़ी सड़कों से पहचान बनाने वाले गुलाबी नगर में खास तौर से परकोटे का पुराना स्वरूप बना रहे ऎसा शहर का हर कोई बाशिंदा चाहता है। क्योंकि ये उजड़ गए तो जयपुर में फिर भावी पीढ़ी को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं बचने वाला। जयपुर से जुड़े कई अहम मसलों पर अदालतों ने ही लोगों को राहत पहुंचाने का काम किया है। पुराधरोहरों को नष्ट होते देखकर भी मूकदर्शक बने महकमों को चेताने का काम कोई नहीं करे तो फिर आखिरी उम्मीद न्यायपालिका ही है।माननीय, अब आपसे ही उम्मीद बची है। गुलाबी नगर की पुराधरोहरों के साथ हो रहे खिलवाड़ के लिए जिम्मेदार अफसरों व महकमों के खिलाफ जब तक कोई सख्त कार्रवाई नहीं होगी, इनके हौंसले यूं ही बुलंद होते रहेंगे। उम्मीद है कि आप स्वयं इस मामले में प्रसंज्ञान लेकर मेट्रो रेल के नाम पर गुलाबी नगर की धरोहर से हो रहे खिलवाड़ को रोकेेगे।

(गुलाब कोठारी)
प्रधान संपादक

August 17, 2015

स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता नहीं है

समाज एवं राष्ट्र भी तन्त्र से ही चलते हैं। तन्त्र तो जंगल में भी काम करता है। केवल शिक्षित मानव स्वच्छन्द जीना चाहता है।

सभी प्राणियों की आत्मा “स्व” ही है। तब इसके साथ अर्थ जोड़ा जाए अथवा तन्त्र, एक ही बात है। स्वार्थ का अर्थ है स्वच्छन्दता अर्थात् अमर्यादित स्वतन्त्रता। किसी तन्त्र या व्यवस्था की मर्यादा में रहने वाला आत्मा ही “स्व” कहलाएगा। तभी शब्द की उत्पत्ति सम्भव है। तन्त्र मर्यादा से वह स्वतन्त्र तथा स्वच्छन्दता से जब आत्म रूप विकृत हो तब वह तन्त्रहीन अथवा परतन्त्र कहलाएगा।

“स्वन्” धातु से “स्व” शब्द बना है। “स्वनाति इति, स्वनयते वा” ही स्व शब्द का निर्वचन है। “स्वनति” से आत्मा को ही शब्द कहा जाता है। जिसका आत्मा शब्दोत्पत्ति में असमर्थ है, उसे “स्व” न कहकर “पर” कहा जाता है। इसकी विस्तृत एवं शास्त्रीय व्याख्या पं. मोतीलाल शास्त्री ने की है-शतपथ ब्राह्मण भाष्य में। आत्मा से शब्द निकलता है-इसका क्या अर्थ है? क्या कोई आत्मा शब्द करने में असमर्थ रहता है? आत्मा षोडशकल है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र इनमें ह्वदय प्राण है। अव्यय पुरूष का मन आत्मा का प्रतिनिधि है। मन में कामना उठती है, अर्थ प्राप्ति की, तब मन का आत्मा से योग होता है। शरीर की वैश्वानर अग्नि में क्षोभ उत्पन्न होता है। तब प्राण वायु पर आघात होता है। यह वायु ही उर-कण्ठ-सिर से टकराकर वर्ण बनता है। अत: शब्द आत्मा से ही निकलता है। पं. मधुसूदन ओझा की “पथ्यास्वस्ति” में इसका विस्तार मिलता है। शब्द का मूल हुआ आत्मा में उत्पन्न कामना। सभी प्राणियों की आत्मा “स्व” ही है। तब इसके साथ अर्थ जोड़ा जाए अथवा तन्त्र, एक ही बात है। स्वार्थ का अर्थ है स्वच्छन्दता अर्थात् अमर्यादित स्वतन्त्रता। किसी तन्त्र या व्यवस्था की मर्यादा में रहने वाला आत्मा ही “स्व” कहलाएगा। तभी शब्द की उत्पत्ति सम्भव है। तन्त्र मर्यादा से वह स्वतन्त्र तथा स्वच्छन्दता से जब आत्म रूप विकृत हो तब वह तन्त्रहीन अथवा परतन्त्र कहलाएगा। समाज एवं राष्ट्र भी तन्त्र से ही चलते हैं। तन्त्र तो जंगल में भी काम करता है। केवल शिक्षित मानव स्वच्छन्द जीना चाहता है।

श्रेय तथा प्रेय

“स्वतन्त्र” और “परतन्त्र” दोनों ही शब्द आत्मा के वाचक नहीं हैं। स्व-तन्त्र में रहने वाला आत्मा ही “स्व” भाव सुरक्षित रख सकेगा। पर-तन्त्र में रहने वाला आत्मा “स्व” को खो बैठेगा। स्वतन्त्र में प्रतिष्ठित आत्मा की कामना मन का संचालन करेगी। पर-तन्त्र में आत्म-कामना पर मानस-कामना का अधिकार होगा। इन्द्रियों के विषय हावी होंगे। व्यक्ति बाहर की ओर अटका रहता है। अत: पर कहलाएगा। आत्मा का नियन्त्रण नहीं रह पाएगा। मन आत्मा पर हावी होगा। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों में ज्ञाता यदि आत्मा का स्व-भाव है, तो ज्ञेय पर-भाव कहा जाएगा। ज्ञेय विषय जड होता है। अनात्मरूप होने से पर-भाव है। आत्मा का श्रेय भाव “स्व” तथा प्रेय भाव पर कहलाता है। श्रेय भाव ही नि:श्रेयस का मार्ग है। प्रेय भाव अभ्युदय से जुड़ा है।

प्रकृति को प्रधान कहते हैं। इसी को तन्त्र कहते हैं। इसका बाहरी भाग पंचमहाभूत स्वरूप है तथा भीतरी भाग आत्मा (विश्व संचालन) रूप है। अत: स्व-पर तन्त्र का अर्थ हुआ आत्मा-अनात्मा। आत्म भाव पुरूष है, अनात्म भाव विश्व है। स्वयंभू-परमेष्ठी अमृतरूप पुरूष है। चन्द्रमा-पृथिवी रूप मृत्युरूप विकृति है। मध्य में अमृत-मृत्यु रूप सूर्य प्रकृति है। पुरूष में अव्यय का, विकृति में क्षर का तथा सूर्य में प्रकृति का विकास होता है। इन्हीं को क्रमश: स्व, पर तथा अक्षर तन्त्र कहते हैं। अव्यय का तन्त्र अक्षर है। यदि यही अक्षर क्षर का अनुगामी बन जाता है, तो परतन्त्र बन जाता है। अव्यय आत्मा का अक्षर के माध्यम से क्षर में जुड़ जाना “स्वतन्त्र” है। अक्षर (सूर्य) का तन्त्र अव्यय ही है। इसके स्थान पर क्षर के तन्त्र को स्वीकार कर लेना परतन्त्रता है।

स्वतन्त्रता

तीन लोक हैं-भू:, भुव:, स्व:। तीनों एक तन्त्र से जुड़े हैं। पृथ्वी कभी सीधी सूर्य से नहीं जुड़ती। अन्तरिक्ष के माध्यम से जुड़ती है। सीधी जुड़ी तो जल जाएगी। शनै: शनै: पृथ्वी सूर्य के 12 आदित्य मण्डलों से गुजरती रहती है। इसके अनुरूप ही ऋतु-चक्र (वर्षा-शरद्-ग्रीष्म) बनते हैं। इसी प्रकार तीनों शरीर-कारण-सूक्ष्म-स्थूल भी एक समन्वय के साथ कार्य करते हैं। तीनों लोकों को प्रकृति-पुरूष (अव्यय, अक्षर, क्षर) एक तन्त्र रूप में चलाते हैं। प्रकृति (सत-रज-तम) रूप में आकृतियों-प्रकृतियों का संयोजन करती है। आत्मा अहंकृति रूप केन्द्रस्थ होता है। देखने में सब कुछ परतन्त्र दिखाई पड़ता है। सब एक-दूसरे पर आश्रित जान पड़ते हैं। तभी सृष्टि व्यवस्था चलती है। व्यवस्थित रूप में, निर्बाध चलती है। यथार्थ में यही स्वतन्त्रता है।

तन्त्र से मुक्त रहना तो अपने केन्द्र से च्युत हो जाना है। अपने स्वरूप के बोध को ही मिटा देना है। आत्मा का नियन्त्रण जब बाहरी विश्व के हाथ में चला जाए, उनके साथ ही जब सुख-दु:ख का भाव जुड़ जाए, अर्थात् सुख-दु:ख के लिए भीतर नहीं, बाहर के विषयों पर आश्रित हो जाएं, तब यही परतन्त्रता कहलाती है। परतन्त्रता भौतिकवाद, उपभोक्तावाद, विकासवाद की एकमात्र उपलब्घि है। व्यक्ति का अस्तित्व गौण हो गया, पदार्थ प्रधान हो गया। धर्म, जो आत्म सुख का आधार था, लुप्त हो गया। धर्म ही तन्त्र का केन्द्रीभूत आधार है। स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा है। अव्यय पुरूष का मन, आत्मा ही इसका आधार होता है।

स्वतन्त्र का अर्थ हुआ-आत्मा अक्षर से जुड़कर प्रकृति भाव में रहा और विकृति से सम्बन्ध नहीं बनाया। क्षर भाव से आसक्त नहीं हुआ। तब वह आत्मा “स्वतन्त्र” कहलाया। जब आत्मा विषयों पर आसक्त होकर अक्षर से च्युत हो जाता है, अपने तन्त्र से छूट जाता है। क्षर तन्त्र उस पर प्रतिष्ठित हो जाता है। इसके लिए अब अक्षर तन्त्र ही “पर” हो गया। आत्मा अब क्षर के नश्वर भाव से जुड़ गया। जो स्व (अक्षर) था, उसे पर (क्षर) बना दिया एवं तन्त्र को परतन्त्र बना दिया। आत्मा का स्वरूप “स्वगर्भित-पर” हो गया। गीता में कहा गया-“आत्मैवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।” अनुकूल तन्त्रात्मक आत्मा हमारा मित्र बना रहता है एवं प्रतिकूल तन्त्रागत वही आत्मा हमारा शत्रु बन जाता है। स्वार्थी व्यक्ति सदा परतन्त्र होकर ही जी सकता है। वह तो केवल बाहरी विषयों के जुड़ाव से एक पक्षीय हो जाएगा। क्षर तन्त्र आत्म विरोधी होने से परतन्त्र ही होता है।

स्व और पर

जिससे स्वरूप रक्षा हो वही “स्व” तथा जिससे स्वरूप की हानि हो, वह “पर” (शत्रु) कहलाता है। दोनों के मध्य में तन्त्र (अक्षर) शाश्वत रूप से स्थित है। अक्षर के आगे अव्यय है, आलम्बन है। क्षर सदा अक्षर के नीचे तथा मरणधर्मा है। प्रकृत अवस्था में अक्षर सदा अव्यय और क्षर के मध्य समभाव रहता है। जब अक्षर नीचे क्षर भाव की ओर झुकता है तो तन्त्रभाव को छोड़कर परभाव में बदल जाता है। स्व-भाव तो केवल अव्यय में ही सुरक्षित रहता है। तभी अक्षर भी स्वतन्त्र रह सकता है। क्षर के साथ मिलकर तो अक्षर भी परतन्त्र हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्व और पर का स्वरूप तन्त्र अर्थात् अक्षर पर ही प्रतिष्ठित है। अक्षर “स्व” है, तब ही आत्मा भी स्वतन्त्र है। अक्षर के लिए भी अव्यय “स्व” तथा क्षर “पर” कहा जाता है। “स्व: (अव्यय) तन्त्रो यस्य स अक्षर: स्वतन्त्र:। पर: (क्षर) तन्त्रो यस्य स: अक्षर: परतन्त्र।”

यहां हमें पुरूष के स्वरूप को भी जान लेना चाहिए। जब ब्रह्म-निर्विशेष-की माया जाग्रत हो जाती है, तब वह सृष्टि की ओर उन्मुख होता है। यही परात्पर है तथा इसी से आगे की सृष्टि का निर्माण आगे बढ़ता है। परात्पर ऋत (निराकार) रूप है। इसी का माया के द्वारा सत्य (साकार) रूप-पुर-का निर्माण होता है। यह पुरूष सृष्टि का प्रथम निर्माण है। इस निर्माण में देश-काल, परात्पर ब्रह्म-माया, प्राण-आप की भूमिका रहती है। हालांकि, ब्रह्म और माया न तो कोई पदार्थ रूप है, न ही ऊर्जा रूप। यह मात्र प्राणन व्यापार है। वहां न वायु है, न गति है। स्वयंभू लोक ऋषि प्राणों का लोक है। यह जो प्रथम पुर बनता है, इसके केन्द्र में प्रतिष्ठित ब्रह्म के अंश को अव्यय पुरूष कहते हैं। गीता में कृष्ण कहते हैं कि मैं अव्यय पुरूष हूं। यही अंश रूप ब्रह्म सृष्टि के हर रूप में प्रतिष्ठित रहता है। यही है-“ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।”

इसी अव्यय पुरूष के मन में इच्छा पैदा हुई-“एकोअहं बहुस्याम।” इसी की प्राण कला से अक्षर प्राण (देव) तथा वाक् कला से क्षर प्राण उत्पन्न हुए। ये दोनों ही प्रकृति कहलाए। पुरूष और प्रकृति मिलकर ही सृष्टि व्यापार संचालित करते हैं। क्षर-पुरूष सृष्टि का उपादान कारण है, अक्षर-पुरूष निमित्त कारण (सूक्ष्म) है। अव्यय सम्पूर्ण सृष्टि का आलम्बन है। अक्षर मध्य में समभाव में रहता है। परात्पर सहित तीनों पुरूष “षोडशी” कहलाते हैं। हमारा आत्मा बनते हैं। पति अपने पत्नी के शरीर में प्रवेश करके संतान बनकर बाहर आता है। दोनों की स्वतंत्रता का यही अर्थ है। क्या प्रकृति के इस तंत्र को बदला जा सकता है? इसी तंत्र में बंधकर जीने को स्वतंत्रता कहेंगे। तंत्र से टूटकर यदि व्यक्ति स्वच्छंद हो जाएगा तब उसके जीवन में स्वतंत्रता का कोई लाभ या सुख शेष नहीं रहेगा। प्रकृति भी यदि तंत्र से बाहर एक क्षण के लिए भी हो जाए तो नहीं कह सकते कि क्या अनर्थ घटित हो जाएगा वही प्रकृति हमसे भी अपेक्षा रखती है कि मैंने तुम्हे एक तंत्र विशेष के जरिए पैदा किया है तुम जब तक जीओ इस तंत्र के बाहर पांव रखने का प्रयास मत करना। तंत्र ही हर स्वतंत्रता की लक्ष्मण रेखा है।

परतन्त्रता

अव्यय पुरूष का मन (आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण-वाक्) ही हम सबका मन बनता है। इस स्तर पर सम्पूर्ण सृष्टि समान रहती है। आगे प्रकृति के आवरण से यही मन भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रतिबिम्बित होता है। यही सृष्टि का व्यष्टि स्वरूप है। “स्व” और “पर” में “स्व” का आधार अव्यय मन रहता है तथा “पर” का आधार प्रतिबिम्बित मन हो जाता है।

जो नश्वर संसार किसी के लिए बन्धन का कारण बनता है, वही किसी उपासक के लिए मुक्ति का कारण भी बन जाता है। यदि क्षर का अक्षर के द्वारा अव्यय तन्त्र के साथ योग है, तब वही क्षर अक्षर बनता हुआ स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र और परतन्त्र दोनों परिस्थितिगत हंै, नियत भाव नहीं हैं। चाहे पुरूष हो, प्रकृति हो अथवा विकृति। पुरूष प्रकृति के सहयोग से ही स्वतन्त्र है एवं विकृति के योग में परतन्त्र बन जाता है। प्रकृति भी पुरूष के योग से स्वतन्त्र रहती है तथा विकृति के संयोग से परतन्त्र हो जाती है। विकृति तो प्रकृति एवं पुरूष के मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्र रहती है। विकार रूप तो परतन्त्रता ही है।

सत्ता में बैठे राजनेता और अधिकारी ही नहीं बल्कि उनके कृपापात्र भी किसी तंत्र में बंधकर रहने को तैयार नहीं हैं। वे स्वच्छंद होकर जीना चाहते हैं। तंत्र को अपनी जेब में रखकर चलना चाहते हैं। इसीलिए कानून तथा लोक दोनों की मर्यादा उनके व्यक्तित्व में दिखाई नहीं पड़ती।

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