Gulabkothari's Blog

September 10, 2015

हिन्दी ही असली स्वतंत्रता

सत्तर सालों से तो हमारे नेता संस्कृति के नाम पर थूकते हैं-चाटते हैं, थूकते हैं-चाटते हैं। यही मजाक हिन्दी के साथ भी हो रहा है। वरना हम से बाद में आजाद हुए देश हमसे आगे कैसे निकल जाते?

आज से भोपाल में दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन शुरू हो रहा है। देश-विदेश से आए मनीषी हिन्दी के माध्यम से शब्द ब्रह्म पर चर्चा करेंगे। भाषा और आत्मा के सम्बंधों पर मंथन होगा। केवल मातृभाषा ही भीतर बैठे पिता के स्वरूप को समझ सकती है। यह सम्बंध ही हमारी स्वतंत्रता की जड़ है, अन्यथा हम परतंत्र हैं। हम इन सब विद्वतजनों का हार्दिक स्वागत-अभिनंदन करते हैं।

विभिन्न सरकारों द्वारा प्रायोजित जितने भी सम्मेलन होते हैं, वे लगभग सभी हाथी के दिखावटी दांत ही साबित होते हैं। यहां तक कि निवेशकों के नाम पर किए जानेे वाले सम्मेलन और यात्राएं भी परिणाम शून्य कही जा सकती हैं। जनता के धन के सहारे सरकारी दौर-दौरे का क्रम बन जाता है। भोपाल के विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए विदेशी हिन्दी लेखकों को निमंत्रित करने के लिए विदेश विभाग से अधिकारी भेजे जाने की चर्चाएं भी खूब हैं। लेकिन जिन लेखकों को भारत सरकार अथवा विभिन्न सरकारें सम्मानित कर चुकी हैं, उनको बुलाने के लिए तो कोई चपरासी भी नहीं भेजा गया। अधिकांश प्रतिष्ठित हिन्दी लेखकों को तो डाक से भी निमंत्रण-पत्र नहीं मिला होगा। तब अन्य भाषाओं के सम्मानित लेखकों की तो चर्चा ही क्यों की जाए?

पिछले सत्तर साल में विभिन्न सरकारों ने हिन्दी भाषा तथा हिन्दी शिक्षा की जो दुर्दशा की है, उससे यह तो प्रमाणित हो गया है कि देश के शीर्ष पदों पर बैठे अंग्रेजों को तो हमने हटा दिया, उनकी जगह हम बैठ गए, किन्तु उनके तंत्र को ही हमने हमारा “तंत्र” घोषित कर दिया। उस संस्कृति और सभ्यता को आधार बनाकर आज हम नीतियां बना रहे हैं। भले ही ये नीतियां हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाएं। यही हाल हिन्दी और सनातन परम्परा का हुआ है। सत्तर सालों से तो हमारे नेता संस्कृति के नाम पर थूकते हैं-चाटते हैं, थूकते हैं-चाटते हैं। यही मजाक हिन्दी के साथ भी हो रहा है। वरना हम से बाद में आजाद हुए देश हमसे आगे कैसे निकल जाते? हमारे देश के नेताओं का कद भी समय के साथ बौना होता जा रहा है। इसका कारण भी विदेशी संस्कृति की नकल ही है। जिसका आधार है, अंग्रेजी। हमें संस्कृति और भाषा को जोड़कर चलना होगा।

हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है। कितने गौरव की बात है! जैसे कि वेद हमारे ज्ञान के भण्डार हैं। इतने पवित्र हैं कि इनके आगे अगरबत्ती जलाते हैं, लेकिन काम में नहीं लेते। उसी तरह हिन्दी भी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन राज भाषा नहीं है।

सरकारी कामकाज एवं न्यायपालिका कहां हिन्दी में कार्य कर रहे हैं? इसीलिए इन तक आम आदमी की पहुंच नहीं बन पाई है। क्यों बीच में दलालों की जरूरत हो? क्यों अधिकारियों के शिक्षण-प्रशिक्षण आज भी अंग्रेजी में हो रहे हैं? क्यों उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम हिन्दी भाषा में नहीं हैं? हम विदेश यात्राओं में (सरकारी) हिन्दी क्यों नहीं बोलते? चीन-जर्मनी-जापान में तो अंग्रेजी बोलेंगे तब भी वे नहीं समझेंगे। यूं तो सम्पूर्ण दक्षिण और पूर्वी भारत हिन्दी सिनेमा देखता ही है। कहने का अर्थ है कि हम चाहें तो हिन्दी को आसानी से अनिवार्य कर सकते हैं। अंग्रेजी में झूठी शान के अलावा बड़ा नुकसान संस्कृति के ह्रास का है। पिछले 70 सालों में इसी बड़े नुकसान को ये देश झेलता आ रहा है। हिन्दी के आते ही विदेशी संस्कृति छू-मंतर हो जाएगी। आम आदमी का फिर कभी अपमान नहीं होगा।

सरकार यदि मन से हिन्दी के पक्ष में है, तो इस सम्मेलन में उसे घोषणा के साथ संकल्प करना चाहिए कि दस साल बाद देश में हिन्दी पूर्ण राज-काज की भाषा हो जाएगी। उसके बाद न अंग्रेजी रहेगी न “इण्डिया”! रहेगा तो केवल “भारत”। इस बीच शिक्षण-प्रशिक्षण की सम्पूर्ण तैयारियां हो जाएंगी। अफसर हिन्दी बोलेंगे, प्रार्थी न्यायालय में स्वयं अपनी बात हिंदी में रख सकेगा। विकास का स्वरूप और गति बदल जाएंगे। आम आदमी विकास में भागीदार होने लगेगा। आज तो कानून भी विदेशों की तर्ज पर अंग्रेजी में बनते हैं। इसलिए तो हाथी के बाहरी दांत ही साबित हुए हैं। भला आम आदमी इन कानूनों को कहां समझ पाएगा? हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि अतिशीघ्र हिन्दी राज-काज और जीवन से जुड़े ताकि यह देश अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी से भी मुक्त हो सके । अब हमारा अंग्रेजों की मातृभाषा में कौन सा स्वार्थ रह गया है, जिसके आगे हम अपनी मातृभाषा को दुत्कार रहे हैं?

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