Gulabkothari's Blog

April 28, 2019

जागो भाग्य विधाता!

समय के प्रवाह को कोई नहीं रोक पाया। विधि के विधान को रावण भी नहीं बदल पाया। कितना बड़ा सत्य दे गया विश्व को-‘भ्रष्टाचारी अपने ही वंश का सर्वनाश करवाने के लिए जन्म लेता है।’ आज चारों ओर भ्रष्टाचार की ही गूंज सुनाई दे रही है। चुनाव काल होने से तो चरम पर है। मानो चुनाव भी भ्रष्टों को चुनने के लिए ही हो रहे हों।

कोई संभ्रात-शालीन-कर्मयोगी या धर्मनिष्ठ तो दिखाई भी देने को तैयार नहीं। ये चुनाव पिछले सन् 2014 के लोकसभा चुनावों से भिन्न होंगे। इस देश के मतदाता ने पिछले पांच वर्षों में अनेक बार कठिन परीक्षाएं दी हैं। तपाया गया है, सताया भी गया है। विपक्ष ने सत्ता पक्ष की आक्रामकता झेली है। संवैधानिक संस्थाओं के स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन आए हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन देश की एकता एवं अखण्डता के ध्वस्त हो जाने से आया है। आज एक देश में तीन देश आश्रय पा रहे हैं और तीनों ही शत्रु बन गए एक-दूसरे के। पाकिस्तान की तरह इनके तीन देश नहीं हो सकते। इसीलिए सत्ता पक्ष ने देश को एक नाम (भारत) नहीं दिया।

लोकसभा के चुनाव इन तीनों देशों के हो रहे हैं। केन्द्रीय सरकार का स्वरूप तय करना है जो तीनों पर शासन करेगी, किन्तु स्वयं को किन्हीं दो से दूर रखेगी। जैसे कि आज भी हो रहा है। पूरे चुनाव का आधार जातीय-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण रह गया है। देश, विकास, संस्कृति और यहां तक कि स्वयं मतदाता, सब गौण हो गए हैं। सोशल मीडिया भारतीय संस्कृति की होली जला रहा है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने मुखौटे लगा रखे हैं। सारा चुनाव व्यापार और विज्ञापन की तर्ज पर हो रहा है। मतदाता उपभोक्ता भी है और बिकाऊ सामग्री भी। सत्तर वर्षों में लोकतंत्र कहां तक पहुंचा है?

उत्तर भारत-हिन्दी क्षेत्र में चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम विपक्षी दल के मध्य होने जा रहा है। भाजपा और प्रत्याशी एक सीमा के बाद गौण हो गए हैं। कांग्रेस का राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना देना ही आत्मघाती कदम हो गया। चुनाव परिणामों का एक सुखद भाग थाली में परोसकर भाजपा को भेंट में मिल गया है। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में पिछले विधानसभा चुनावों के परिणामों को झूठला सकते हैं। वहीं जातिगत राजनीति से पार पाना भाजपा के लिए बिहार-बंगाल-उत्तरप्रदेश में कठिन होगा। लालू के प्रति संवेदना, उत्तरप्रदेश में दलित, मुस्लिम एकता के शूल चुभेंगे। उत्तर पूर्व तो सीमान्त कानून के चलते हाथ से निकला हुआ ही माना जा रहा है। दक्षिण का मिजाज देख चुके हैं। बहुत ही कांटे की टक्कर है सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों में।

आरक्षण की कीमत भी देश को चुकानी पड़ेगी। सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी और कृषि क्षेत्र की नाराजगी। पिछले चुनावों के मुद्दे ज्यों के त्यों हैं। नोटबंदी, जीएसटी, तेल की कीमतें, अंबानी-अडानी और रुपए का मूल्य। फिर इस बार के चुनाव गाली-गलौच और अपमानजनक-मर्यादाहीन भाषा के आधार पर हो रहे हैं।

मतदाता की चर्चा नहीं शेष कहीं। और आज ही यदि मतदाता गौण हो गया तो क्या कोई भी सरकार देश या नागरिकों के लिए कार्य करेगी? जिस धड़े की सरकार बनी, उसी का भला होगा, अन्य दो धड़ों की कीमत पर। उनकी कोई सरकार नहीं होगी। इतिहास में कुछ नई इबारत लिखी जाएगी।

नई पीढ़ी सोशल मीडिया पर टिकी मानी जा रही है। पुरानी पीढ़ी जाति समीकरण पर। अर्थात् नई पीढ़ी प्रवाह में बही तो मोदी लहर भी हो सकती है और जातिवाद-क्षेत्रवाद बना रहा, जो कि संभव है, तब टक्कर का परिणाम आज सोचा नहीं जा सकता। चुनावों की सार्थकता तो तभी होगी जब चुने हुए प्रतिनिधि अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर लोकतंत्र, संविधान तथा देश की अखण्डता के लिए समर्पित हों। हर नागरिक स्वतंत्रता का सुख भोग सके। हम ही हमारे भाग्य विधाता बन सकें।

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